शक्ति को चाहिए अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति

July 1990

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वह अपनी बस्ती की ओर लौट रहा था। उसके कदमों में तेजी थी। परेशानी में रह-रह कर बल पड़ जाते, मुख पर व्यथा की छाप स्पष्ट थी। चाह कर भी नहीं भूल पा रहा था कल के नगरवास का अनुभव।उसने अपने होंठों को दाँतों से काटा, एक गहरी उसाँस ली और ऊपर की ओर देखा। नगर के ऊपर को होता हुआ सूर्य पश्चिम दिशा की ओर ढल रहा था। उसकी तिरछी किरणें वृक्षों की पत्तियों पर पड़ कर उन्हें स्वर्णिम बना रही थी। वायु शीतल हो चली थी। आकाश के विस्तार में पक्षियों की एक पंक्ति उड़ती चली जा रही थी ठीक उसी की तरह अपनों का सामीप्य पाने।

वह फिर सोचने लगा वे सुसभ्य हैं और हम असभ्य। क्या पहिचान है उनकी सभ्यता की? शराब के ढलते जाम, नर्तकियों के कुत्सित हाव भाव। कल इसी में तो डूबे थे सब, जब वह फरियाद लेकर पहुँचा था जन जीवन की दुरवस्था की। ये शासक हैं या शोषक। यदि शोषक नहीं हैं जो कहाँ से जुटते हैं ये विलासिता के सरंजाम? वासना के पशुओं की उठती हुँकारें कितनों का उत्पीड़न नहीं करतीं सब कुछ तो कृत्रिम था वहाँ। बेशकीमती साजो सामान और भोजन उसके तो प्रकार ही नहीं गिने जा सकते इसके ऊपर से मनोजूठन फेंकी गई। जब वह घुसा तब महोत्सव चल रहा था। सोचा तो था नरेश से मिल कर दुःख दर्द बयान करेंगे। किन्तु घुसते ही आवाजें उठीं निकालो इस भिल्ल को असभ्य बेहूदा यहाँ कहाँ आ गया? असभ्य! हाँ, वह असभ्य है क्योंकि उसके पास उन जैसी सभ्यता के दो प्रधान आधार विलासिता और कृत्रिमता कहाँ हैं? सोचते-सोचते कब आ पहुँचा बस्ती में, पता नहीं चला।

बस्ती में प्रवेश करते ही अनेकों ने उसे लिपटा लिया। वृद्धों ने सिर सूँघ कर आशीर्वाद दिया। बच्चे पैरों से लिपट गये। कितनी न्यारी है उसकी यह असभ्य दुनिया जिसमें चारों ओर प्यार छलकता है, सहकार उफनता है। “क्या कहा ईदर नरेश ने” एक वृद्ध ने प्रश्न किया। “यही कि हम असभ्य हैं।” उसका जवाब था। फिर उसी वृद्ध को सम्बोधित करते हुए बोला हम लोग तो फिर भी ठीक हैं बेचारे ग्राम वासी नगर के सामान्य जन......। क्या हुआ उनको? प्रश्न उभरा बेचारे जीने के लिए तरस रहे हैं। खैर छोड़। वृद्ध ने अनमने भाव से कहा तू नहा धो ले बेटा एक बड़े तेजस्वी साधु आए हैं रोज शाम को हम लोगों के पास बैठते हैं जिन्दगी जीना सिखाएँगे। नई व्यवस्था आएगी और पता नहीं क्या-क्या सचमुच बड़ी अच्छी-अच्छी बातें बताते है। तुझे भी पूछ रहे थे। “अच्छा” कहकर वह चला गया।

शाम को सभी एक स्थान पर जमा थे। ऊँचे टीले पर बैठे साधु कुछ कह रहे थे। वह सुनने का प्रयास करते हुए कोने में बैठ गया। साफ सुनाई पड़ रहा था-आज देश की नौका में अनेकों छेद हो गये हैं, समाज शतधा छिन्न हो रहा है। तनिक विचार करो। आज जो परिस्थितियाँ बनी है, यदि ये बढ़ती जायें तो कल और नहीं तो परसों देश की अखण्डता समाप्त हो जाएगी, समाज टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा, धर्म बिखरता नजर आएगा। फिर कोई भी हो ब्राह्मण या भंगी, आक्रान्ताओं के आतंक से कोई बचेगा नहीं। यदि तुमसे कुछ बच भी गए तो सपनों में डर-डर उठा करोगे और मौत की कामना करोगे।

साधु ने अपनी वक्तृता की बाढ़ को जो हर वाक्य के बाद और अधिक भयंकर होती जा रही थी, एक क्षण के लिए रोका परन्तु वह फिर कहने लगा “ऐसे समय में हमारा दुर्भाग्य कि समाज ड़ड़ड़ड़ड़ बुद्धि जीवी वर्ग महत्वाकांक्षाओं के मद में चूर और धनिक! उन्हें भला विलास से अवकाश कहाँ? ये जाग्रत हो इसकी आशा बहुत कम है। इस दशा में मैं हारीत महाकाल का सेवक जन सामान्य को जगाकर एक चमत्कार करना चाहता हूँ। शोषण, उत्पीड़न कुरीतियों चारों ओर फैलती जा रही मूढ़ताओं की भयावह बाढ़ के रोकने के लिए हर नगर से ईंट पत्थर इकट्ठा कर आया हूँ। परन्तु अभी तक मुझे इन ईंटों के जोड़ कर मजबूत बाँध बनाने वाला कारीगर नहीं मिला था। परन्तु आज....... कहने के साथ उन्होंने कोने में बैठे उसकी ओर इशारा किया “इधर आओ।”

वह साधु के समीप आ खड़ा हुआ। गौर देखा विचित्र था वह साधु। उसके हाथों चमकता ड़ड़ड़ड़ जिसको तीनों नोंकें सिंदूर से रँगों थीं और इससे बढ़कर उसकी धधकती आँखें जो सैकड़ों हजारों पर पड़कर उनको निस्तेज बना सकती थीं। दूसरे लोगों की आत्मा की गहराई तक पैठकर उनका अंतर्दर्शन करने की क्षमता रखती थीं।

साधु ने उसका हाथ अपने हाथों में लिया और बहुत ही कोमल स्वरों में पुकारा-पुत्र! अरे यह क्या? स्वरों में तो माँ का वात्सल्य था, आँखों से स्नेह झर रहा। समाज देवता के लिए मैं तुमसे भीख माँगने आया हूँ, इनकार मत करना वत्स!

“मुझ से! मेरे पास है ही क्या महाराज”

“मुझे पत्थरों के ठीकरे और धातुओं के टुकड़े नहीं चाहिए। मेरी चाहत है भाव-संवेदना से अभिपूरित मनुष्य जो जमाना बदल डालने के लिए अपने को न्यौछावर कर सके।

“मैं ही क्यों मेरे अनेक साथी देश और धर्म के लिए अपने को सहज उत्सर्ग कर देंगे। किन्तु हम असभ्य हैं फिर जमाना बदलना कोई आसान काम तो नहीं”। ‘वाणी’ में शिथिलता थी। “मुझे प्रसन्नता हुई आयुष्मान। जमाना हम नहीं बदलेंगे, हम सभी तो सहायक भर बनेंगे, बदलने वाला तो कोई और है। जहाँ तक असभ्यता का सवाल है, वह हमेशा से सुसभ्यता की अकड़ में फूलने वालों का अहं चूर करता आया है। राम राज्य की स्थापना में उसने न तो सेठ-साहूकारों को पूछा और न अकल के ठेकेदारों को उसके साथी बने जंगली रीछ वानर और पूरा कर लिया अपना उद्देश्य। अद्भुत है वह-अपनी पर आ जाए तो गँवार ग्वालों के सामने वज्रधारी इन्द्र को भी कँपकँपी छूट जाती है। फिर हमें तो सभ्यता के मान दण्ड बदलने हैं, विलासिता और कृत्रिमता की जगह सहकार भरा प्राकृतिक जीवन स्थान ग्रहण करेगा। पूरी तरह बदला होगा भावी समाज” ड़ड़ड़ड़ड़ के साथ ही वह किसी सोच में डूब गए वे मानो कल्पना के नेत्रों से नवयुग की छटा निहार रहे हों?

वह खड़ा सोच रहा था, कौन है इस विराट अभियान का सूत्र संचालक? जिसका संकल्प उठते ही समस्त असफलताएँ दुम दबा कर भाग जाती है। ड़ड़ड़ड़ पूछ ही लिया कौन है वह? शब्दों ने उन्हें प्रकृति ड़ड़ड़ड़ महाकाल! सदाशिव! भगवान, एकलिंग अनेकों नाम हैं उसके।”

ओह! उसने श्रद्धा भरे मन से मस्तक नवाया। एकलिंग के प्रति तो उसकी बचपन से भक्ति रही है। भला ऐसा कौन भील है जो भगवान एकलिंग के नाम पर प्राण न्यौछावर न कर सके। किन्तु वह सोचने लगा कि पूछे या न पूछे।

साधु महाराज उसके चेहरे के भाव को ताड़ गए। स्वयं बोल पड़ कुछ पूछना चाहते हो तो निःसंकोच पूछो।”

“महाकाल की चेतना अभी तक क्यों नहीं पसीजी। सदियों की दुरवस्था बिलखते-छटपटाते प्राणियों पर उसे अब तक क्यों दया नहीं आती? आँसुओं की बरसात से धरती भीगती रही। निर्दोषों के रक्त से बर्बर अपना तर्पण करते रहे, यह देखकर भी सदाशिव मौन कैसे रह सके? “तुम्हारा आक्षेप उचित है, पर तनिक समझने का प्रयास करो। इस मानव ने ही उनकी शक्तियों को तिरस्कृत किया है। जब-जब वह आँसू पोंछने आए हैं उन्हें भगा दिया है।

सौ कैसे? वह समझ न सका। “साधु समझाने का प्रयास करते हुए कहने लगे-भगवान, सत्यनिष्ठ, कर्मठ, श्रमिकों के पसीने में सुगन्धि और प्राणों को न्यौछावर करने वाले वीरों के कर्म में अमोघत्व पैदा कर सकते हैं। वह स्वयं शक्ति हैं उन्हें अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य चाहिए। उन्हें किसी से कोई पक्षपात नहीं जहाँ भी जिस देश में उदारता, ज्ञान, संघर्ष, त्याग और साहस का निवास है वहीं वह भी वर देने लगते हैं। इसके विपरीत जहाँ दुराचार, अज्ञान, और स्वार्थान्धता का कुचक्र चलता हो वहाँ भला वे कैसे अभिव्यक्त होंगे?

“पर पुत्र गलती करे तो पिता को दण्ड देना चाहिए न?”

“विषमताएँ, आज की परिस्थितियाँ दण्ड नहीं तो और क्या हैं? अब वह सब सुधार करके रहेंगे। भली प्रकार नहीं तो कान उमेठ कर। अब उनका संकल्प जाग्रत हो गया है वत्स! जिसका कोई प्रतिरोध नहीं। बात उसकी समझ में आ चुकी थी सारे भील एक जुट हो गए। फेल गया सर्वत्र सद्विचारों का प्रवाह उलटा उलटकर सीधा किया गया। महाकाल के संकेतों के अनुसार काम करने वाले युवक का नाम इतिहास ने स्वर्णाक्षरों में लिखा। कभी के साधारण भील बालक को आज इतिहास सम्राट बप्पा रावल के रूप में जानता है। औघड़दानी सदाशिव भला अपने सहचरों को पुरस्कृत करने से कब चूके हैं। आज वह पुनः महाकाल बन पुकार रहे हैं।


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