सविता देवता की समर्थ साधना

July 1990

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गायत्री महामंत्र की गरिमा सर्वविदित है। उसकी साधना से जिस चमत्कारी शक्ति-सम्पदा की उपलब्धि होती है, उसका उद्गम केन्द्र ‘सविता’ है गायत्री का अधिपति सविता देवता है। विशिष्ट साधना विधानों की सहायता से उसी की दिव्य शक्तियों को आकर्षित किया जाता है और साधन को भौतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सर्व समर्थ बनने का अवसर मिलता है। प्राचीन काल के दिव्यदर्शी ऋषि-मनीषी इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे। उनने भूतकाल से ही सूर्य का उपयोग सविता-साधना के रूप में मनुष्य का सर्वतोमुखी प्रगति के लिए-उत्कर्ष के लिए किया है। युगान्तरकारी महापरिवर्तन की प्रस्तुत संधिवेला में भी उसी की दिव्य शक्तियों का आवाहन किया गया है।

अगले ही दिनों सूर्य की प्रबल प्रेरक शक्तियाँ अपने प्रचण्ड प्रवाह से मानवी मस्तिष्कों की अवाँछनीय दिशा धारा को, ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को तोड़कर-मरोड़कर सृजनात्मकता की ओर उन्मुख कर दें और धरित्री पर सर्वत्र स्वर्गोपम परिस्थितियाँ तथा मानव में देवत्व के दर्शन होने लगें, तो इसमें किसी को कोई आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।

सूर्य विज्ञान और सविता साधना एक ही तथ्य के स्थूल और सूक्ष्म रूप हैं। सूर्य विज्ञान से भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का सुयोग मिलता है तो सविता साधना से आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं वैदिक युग में सूर्योपासना सर्वोपरि थी। वेद एवं उपनिषदों में सूर्य को जगत की आत्मा के रूप में उल्लेख किया गया है और कहा गया है कि सारा जगत उसी से प्रकाशित होता और प्राणवान बनता है। वह जीवनी शक्ति और चेतना शक्ति का घनीभूत रूप है। सबको वर्चस् और ज्योति उसी से मिलती है। प्राणियों की उत्पत्ति, पोषण आदि का तथा संसार की सृष्टि, स्थिति और संहार का निमित्त कारण भी सूर्य है, वरन् वह आरोग्यकारक, अनिष्ट निवारक एवं पीड़ा पतन का बिगाड़ का परिहार करने वाला भी है। समस्त आशंकाओं, अनिष्टों, अनाचारों का निवारक भी वह है। प्राकृतिक नियमों, मानवी मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले दुरात्माओं का संहारक-विघातक भी उसे कहा गया है। ‘ज्योतिषा’ ‘रविरंशुमान’ कहकर गीताकार ने उसे अपनी विभूति के रूप में निरूपित किया है। सूर्य की सविता देवता की प्रचण्डता, समर्थता एवं श्रेष्ठता के प्रतिपादनों से वैदिक साहित्य भरा पड़ा है। सूर्योपस्थान, सूर्य आराधना, सूर्य नमस्कार, सविता साधना जैसे आध्यात्मिक उपाय-उपचार मानवी चेतना की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही विनिर्मित किये गये हैं।

पाश्चात्य मनीषी भी सूर्य के सम्पूर्ण सृष्टि का कारण मानते हैं। प्रख्यात दार्शनिक प्लेटो के अनुसार सूर्य मात्र प्रकाश या ताप का पुँज नहीं, वरन् जीवन ज्योतियों का रश्मि समूह है जो सौर मंडल में एकत्र होती और नाना विधि शक्ति उत्पन्न करती हैं। इसे उन्होंने सेफिरों ‘डिवाइनइन्टैलिजैन्स’ के नाम से सम्बोधित किया है। स्काँट ने अपनी कृति “द साइकिल्स ऑफ हेवन” में इसे ही ‘ब्रह्मांडीय प्रभाव’ कहा है। उनके अनुसार सूर्य मंडल की शक्तियाँ न केवल भौतिक परिवर्तन प्रस्तुत करती हैं, वरन् हमारे मस्तिष्क एवं व्यवहार को भी प्रभावित परिवर्तित करती रहती हैं। इनके बिना तो पृथ्वी पर जीवन की कल्पना तक नहीं का जा सकती। सूर्य की किरणें यदि धरती तक न पहुँचें तो यहाँ जीवन एवं हरीतिमा नाम की कोई वस्तु दृष्टिगोचर न होगी।

वस्तुतः सौर मण्डल के समस्त ग्रह-गोलकों सहित अपने धरातल की सारी हलचलें सूर्य के अनुदान पर ही अवलम्बित हैं। पृथ्वी की अपनी विशिष्टताएँ एवं क्षमताएँ परोक्ष रूप से सूर्य की ही देन हैं। ब्रह्माण्डीय अनुदानों के रूप में उसे जो कुछ प्राप्त होता है, उसमें सूर्य का भाग ही प्रमुख होता है। भौतिक जगत पर सविता का अजस्र अनुदान ऊर्जा, ताप और प्रकाश के रूप में बरसता है, तो आत्मिक क्षेत्र पर उसका अभिवर्षण प्राण के रूप में, सत्प्रेरणाओं-सद्भावनाओं के रूप में होता है। साम्ब-उपनिषद् में उल्लेख है कि सूर्य का समग्र तेजो मण्डल दो शक्ति धाराओं में विभक्त है जिन्हें ‘संज्ञा’ एवं छाया के नाम से जाना जाता है। इनका कार्य समस्त लोकों में निवास करने वाले प्राणियों के भीतर ज्ञान एवं क्रिया का उद्दीपन करना है। पुराणों में इन्हें ही सूर्य की दो पत्नियों के रूप में वर्णन किया गया है और कहा गया है कि ‘संज्ञा’ ज्ञान चेतना के रूप में ‘छाया’ कर्म एवं क्रियाशीलता के रूप में प्राणि चेतना में कार्यरत रहती हैं। सविता साधना में इन्हीं शक्तियों का अवगाहन अवधारण किया और ओजस् तेजस् एवं वर्चस् की बहुमूल्य विभूतियों-सम्पदाओं से लाभान्वित हुआ जाता है।

जरथुस्त्र ने सूर्य को विराट् चेतना का प्रतीक माना और जीवन को उससे उद्भव अविनाशी अंश बताया है। उनके अनुसार धरती पर पाये जाने वाले या निवास करने वाले जड़-चेतन सभी का उत्पादनकर्ता सूर्य है। उसी की रश्मियों से उन्हें गति और शक्ति मिलती है। भौतिक प्रकाश के अतिरिक्त आंतरिक प्रकाश भी हमें उसी से मिलता है। सविता की प्रकाश रश्मियाँ ब्रह्माण्डीय चेतना के रूप में मानवी अन्तराल में प्रविष्ट होकर उसे आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ने, ऊँचा उठने के लिए प्रेरित करती है। सूर्य के प्रकाश में सप्तवर्णी रश्मियों के अतिरिक्त अल्ट्रावायलेट इन्फ्रारेड, कॉस्मिक आदि शक्तिशाली अदृश्य किरणें भी सम्मिलित रहतीं और धरातल तक पहुँच कर अपने-अपने गुणों एवं विशिष्टताओं के आधार पर वनस्पति जगत एवं प्राणि जगत को प्रभावित करती हैं। ठीक इसी तरह उससे भी अधिक शक्तिशाली सूक्ष्म ऊर्जा तरंगें सूर्य से निस्सृत होकर अपनी कृपा की वर्षा मानव समुदाय पर करती रहती हैं। जरथुस्त्र ने इन्हें ‘दिव्य आध्यात्मिक किरणों के नाम से सम्बोधित करते हुए कहा है कि अभ्युदय की अभीप्सा रखने वालों के अंतःकरण में यह सीधे प्रवेश करतीं और प्राण चेतना में उच्चस्तरीय उभार उत्पन्न करती हैं। उनके अनुसार विशेष परिवर्तनों के समय जब कभी ‘दिव्य आध्यात्मिक रवि रश्मियाँ’ अपनी समग्रता के साथ पृथ्वी पर उतर आती हैं तो सर्वत्र उथल-पुथल मच जाती है। आन्दोलनों, परिवर्तनों एवं महाक्रांतियों के अम्बार लग जाते हैं। विश्व में हुई विभिन्न महाक्रान्तियाँ इसकी साक्षी हैं। प्रस्तुत समय इसी तरह की सौर सक्रियता से भरापूरा हैं। अब विज्ञानवेत्ताओं ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। ग्रीक अध्यात्मवेत्ता जूलियन ने सूर्य संबंधी अपनी व्याख्या-विवेचना में उक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए सूर्य के तीन रूपों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। प्रथम पार्थिव ईथर के रूप में, दूसरा-लाइट ऑफ हेवन के रूप में तथा तीसरा विशुद्ध आध्यात्मिक माना है। उनका मत है कि जब कभी धरती पर विध्वंसकारी प्रवृत्तियों का बाहुल्य हो जाता है, सर्वत्र विक्षोभकारी परिस्थितियां ही विस्तार ले लेती हैं, तब सूर्य अपने तीसरे रूप में प्रकट होता है और अपने प्रचण्ड शक्ति प्रवाह से ध्वंस को सृजन में बदल देता है। इसकी पुष्टि पाइथागोरस एवं एनाक्सागोरस की रचनाओं में भी की गई है।

वस्तुतः मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में सविता देवता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके अनुसार मानव जितना अधिक पार्थिव शक्तियों से प्रभावित होता है, उससे भी कहीं अनेक गुना अधिक उसे सौर शक्तियाँ उत्तेजित, आन्दोलित करती हैं। पार्थिव शक्तियाँ गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार नीचे की ओर खींचने का प्रयास करती दीखती हैं, जबकि सूर्य की शक्तियाँ ऊर्ध्वगामिता की ओर ले जाती हैं। सूर्य ही है जो समस्त ग्रह पिण्डों को अपनी आकर्षण शक्ति से बाँधे हुए है और उन्हें अपनी-अपनी कक्षा में परिभ्रमण के लिए बाधित किये हुए है। उस की शक्तियाँ ही पृथ्वी पर उतरती और मनुष्य समेत समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों में प्राण भरती हैं। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, जिनने भी क्रान्तियों का संचालन किया है, मनीषियों ने उन्हें सविता-शक्ति से संचालित बताया है। प्राचीनकाल के ऋषि-मनीषियों के आराध्य देवता सूर्य ही थे। वैदिक ऋचाएँ सूर्य मंत्रों से भरी पड़ी हैं। इस रहस्य को यदि समझा जा सके तो ब्रह्माण्डीय शक्तियों को आकर्षित करने और महानता की ओर अग्रसर होने का अवसर हर किसी के समक्ष प्रस्तुत है।

दिव्य द्रष्टा मनीषियों का कहना है कि इन दिनों अपने सौर मण्डल में कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है। एक और जहाँ किन्हीं अज्ञात कारणों से सूर्य की गर्मी में वृद्धि के साथ सौर-कलंकों-सूर्य धब्बों की बाढ़ सी आई हुई है और विनाशकारी विभीषिकाओं को आमंत्रित करती दीख रही हैं, वहीं दूसरी ओर अभिनव सृजन शक्ति से परिपूर्ण उज्ज्वल भविष्य का सरंजाम जुटाये सूर्य की आध्यात्मिक शक्तियाँ भी प्रचण्ड प्रवाह के रूप में धरती पर घटाटोप बनकर बरस रही हैं। आवश्यकता मात्र उनकी और अभिमुख होने और आत्मसात करने की है। सविता साधना में स्वयं के उत्कर्ष के साथ समूचे संसार का कल्याण सन्निहित है।


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