भोज विद्वानों की बड़ी कदर करते थे और उन्हें सारस्वत सम्मान देते थे। एक बार उनके दरबार में एक विद्वान गीता की कथा सुनाने के अभिप्राय से गये। उनका उद्देश्य इस प्रकार कुछ धन प्राप्त करने का था। राजा उनका स्तर समझ गये और अवकाश न होने का बहाना बनाकर उन्हें लौटा दिया। कुछ समय बाद वे पंडित फिर पहुँचे और अवकाश निकाल कर कथा सुनने का आग्रह करने लगे। राजा ने अब की बार कहा आप गीता में प्रवीण हो जाइए तब कथा सुनाइये। पंडित जी ने गीता कंठाग्र कर ली। सन्देश भेजा और कब कथा सुनाने आयें यह पूछा। राजा ने इस बार उत्तर भिजवाया कि जब आप गीतामय हो जायें तब सूचित करें। पंडित जी ने इस व्यवहार पर गंभीरतापूर्वक विचार किया, बार-बार अपमानित होने का कारण समझा। उनने लोभवृत्ति छोड़ दी ओर मन, वचन, कर्म से अपने आपको गीता के अनुरूप ढालने में लग गये।
बहुत दिन बीत जाने पर राजा ने उनकी खोज खबर ली। जब पता चला कि उनका चरित्र-चिन्तन एक दम बदल गया है। तो उनने बुलावा भेजा। पर पंडित जी ने मना कर दिया और कहा अपने आप में संतुष्ट हूँ। कहीं जाने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती।
राजा ने परिवर्तन की वस्तु स्थिति समझ ली। वे स्वयं पंडित जी के घर पहुँचे और अठारह दिन वहीं रहकर अठारह अध्याय कथा सुनी। साथ ही दक्षिणा में उनके घर जिन वस्तुओं की कमी प्रतीत हुई वे सभी पहुँचा दीं।