संवेदना का सागर सूखने न पाये

July 1990

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संग्रह और उपभोग की ललक-व्याकुलता इन दिनों ऐसे उन्माद के रूप में लोकमानस पर छाई हुई है, कि उसके कारण धन ही स्वार्थ-सिद्धि का आधार प्रतीत होता है। ऐसी दशा में यदि उल्टा मार्ग अपनाने का निर्णय करते बन पड़े तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

मानवी दिव्य चेतना के लिए इस प्रचलन को अपनाया सर्वथा अवाँछनीय है। ऐसा कुछ तो कृमि-कीटक और पशु-पक्षी भी नहीं करते। वे शरीर चर्या के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त करने के उपरांत प्रकृति के सुझाये उन कार्यों में लग जाते हैं, जिसमें उनका स्वार्थ भले ही न सधता हो, पर विश्व-व्यवस्था के सुनियोजित में कुछ तो योगदान मिलता ही है। संग्रह किसी को भी अभीष्ट नहीं उपभोग में अति कोई नहीं बरतता। सिंह, व्याघ्र तक ड़ड़ड़ड़ वाले ड़ड़ड़ड़ करते।

मनुष्य का दर्जा ऊँचा इसलिए नहीं है कि वह अपनी विशिष्टता को साधनों के संग्रह एवं उपभोग की आतुरता पर विसर्जित करता रहे। उसके लिए कुछ बड़े कर्तव्य निर्धारित हैं। उसे संयम-साधना द्वारा ऐसा आत्म परिष्कार करना होता है, जिसके आधार पर विश्व-उद्यान का माली बनकर वह सर्वत्र शोभा-सुषमा का वातावरण विनिर्मित कर सके। जब सभी प्राणी अपनी प्रकृति के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ अपनाते हैं, तो मनुष्य के लिए ऐसी क्या विवशता आ पड़ी है, जिसके कारण उसे अनावश्यक संग्रह और उच्छृंखल उपभोग के लिए आकुल-व्याकुल होकर पग-पग पर अनर्थ सम्पादित करते फिरना पड़।

गहरी डुबकी लगाने पर इस उल्टी रीति का निमित्त कारण भी समझ में आ जाता है। भाव-संवेदनाओं का स्रोत सूख जाने पर सूखे तालाब जैसी शुष्कता ही शेष बचती है। इसे चेतना क्षेत्र की निष्ठुरता या नीरसता भी कह सकते हैं। इस प्रकार उत्पन्न संकीर्ण स्वार्थपरता कारण, मात्र अपना ही वैभव और उपभोग सब कुछ प्रतीत होता है। उससे आगे भी कुछ हो सकता है, यह सूझता ही नहीं। दूसरों की सेवा-सहायता करने में भी आत्मसंतोष और लोकसम्मान जैसी उपलब्धियाँ संग्रहित हो सकती हैं, इसका अनुमान लगाना-आभास पाना तक कठिन हो जाता है। आँख खराब हो जाने पर, दिन में भी मात्र अन्धकार ही दीख पड़ता है। कान के पर्दे जबाब दे जायें, तो कहीं से कोई आवाज आती सुनाई ही नहीं पड़ती। ऐसी ही स्थिति उनकी बन पड़ती है, जिनके लिए अनर्थ स्तर की स्वार्थपूर्ति ही सब कुछ बन कर रह जाती है।

शरीर से चेतना निकल जाने पर मात्र लाश ही पड़ी रह जाती है, जिसे ठिकाने न लगाया जाय, तो स्वयं सड़ने लगेगी, घिनौना वातावरण उत्पन्न ड़ड़ड़ड़ कि शरीर में चेतना विद्यमान ड़ड़ड़ड शरीर को समर्थ एवं सुन्दर बनाये हुए थी। निर्जीव तो नीरस और निष्ठुर ही हो सकता है। मुर्दा तो समीप बैठे आश्रितों या स्वजनों का विलाप भी नहीं सुनता, उस पर कुछ ध्यान भी नहीं देता। मानो उन सब से उसका कभी दूर का संबंध भी न रहा हो। भाव-संवेदनाओं का स्रोत सूख जाने पर मनुष्य भी ऐसा ही घिनौना हो जाता है। अपना हित-अनहित तक उसे नहीं सूझता, तो दूसरों की सेवा-सहायता करने की उत्कंठा उठने का तो प्रश्न ही कहाँ उठता है?

जीवितों और मृतकों की अलग-अलग दुनिया है। मुर्दे श्मशान, कब्रिस्तान में जगह घेर कर जा बैठते है और उधर से निकलने वालों को भूत-प्रेतों की तरह डराते-भगाते रहते हैं। जीवितों में से भला कोई ऐसी हरकत करता है? उन्हें तो आवश्यक प्रयासों में ही निरत देखा जाता है। इन दिनों संवेदनाओं को प्रेतों जैसी और संवेदनशीलों को जीवितों जैसी और गतिविधियाँ अपनाये हुए प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

करुणा उभरे बिना दूसरों की स्थिति और आवश्यकता का भान ही नहीं होता। इस अभाव की स्थिति में लकड़ी चीरना और किसी निरपराध की बोटी-बोटी नोंच लेना प्रायः एक जैसा ही लगता है। किसी के साथ अन्याय बरतने में, सताने-शोषण करने में कुछ भी अनुचित प्रतीत नहीं होता। भावना के अभाव में मनुष्य का अन्तराल चट्टान की तरह नीरस-निष्ठुर हो जाता है। संवेदनाशून्यों को नर-पशुओं की भी अपनी मर्यादायें होती हैं, जो प्रकृति-अनुशासन के विपरीत एक कदम भी नहीं उठाते, भले ही मनुष्य की तुलना में उन्हें असमर्थ-अविकसित माना जाता रहे।

लगता है भाव-श्रद्धाविहीनों के लिए नर-पिशाच, ब्रह्मराक्षस, मृत्युदूत, दुर्दान्त दैत्य जैसे नामों में से ही किसी का चयन करना पड़ेगा, क्योंकि उन्हीं की आपाधापी उस स्तर तक पहुँचती है, जिसमें दूसरों के विकास-विनाश से, उत्पीड़न एवं अभिवर्धन से कोई वास्ता नहीं रहता। उनके लिए “स्व” ही सब कुछ बनकर रह जाता है। बस चले तो वे हिरण्याक्ष दैत्य की तरह दुनिया को समुद्र में छिपाकर निरर्थक बनाना पड़े। जिनके लिए सभी बिराने हैं, वे किसी का कुछ भी-अनर्थ कर सकते हैं। ऐसा ही पिछले दिनों होता भी रहा है। स्वार्थांधों से इतना भी सोचते न बन पड़ा कि इस सृष्टि में दूसरे भी रहते हैं और उन्हें भी जीवित रहने दिया जाना चाहिए। वस्तुतः प्रस्तुत समस्याएँ अगणित है। उलझनों, संकटों, विग्रहों का कोई अन्त नहीं। यह सब कहाँ से उत्पन्न होते हैं और क्यों कर निपट सकते हैं,? इसकी विवेचना पर इसी एक निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मात्र अपने आपे तक, गिने-चुने अपनों तक सीमित रहने वाला किन्हीं अन्यों की चिन्ता नहीं कर सकता और न उदार न्यायनिष्ठा का ही परिचय दे सकता है। ऐसी दशा में अनाचार के अतिरिक्त और कुछ बन ही न पड़ेगा, यही दुष्प्रवृत्ति जब बहुसंख्यक लोगों द्वारा अपनायी जाती है तो उसका परिणाम वातावरण को विक्षुब्ध किये व प्रतिक्रिया उत्पन्न किये बिना नहीं रहता।

संवेदना आत्मीयता के रूप में विकसित होती है, जब मनुष्य दूसरों के दुःख को अपना दुःख और अन्यों के सुख मानने लगता है। सहानुभूति के रहते ऐसा व्यवहार करना संभव नहीं होता है, जिनसे किसी के अधिकारों का अपहरण होता हो, अथवा किसी को शोषण का शिकार बनना पड़ता हो।

आमतौर से अपना, अपनों का हित-साधन ही अभीष्ट रहता है। यदि यह आत्मभाव सुविस्तृत होता चला जाय, जन-समुदाय को अपने अंचल में लपेट ले अन्य प्राणियों को भी अपने कुटुम्बी जैसा मानें, अपने जैसा समझें, फिर वैसा ही सोचते-करते बन पड़ेगा, जिससे सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता हो। मात्र आतुरता के लिए उकसाती है और उसके फलस्वरूप अगणित संकटों का परिकर विनिर्मित करती है। यदि भाव संवेदना जीवन्त और सक्रिय बनी रहे, तो सृजन और सहयोग के आधार पर उत्थान और कल्याण का सुयोग ही सर्वत्र बन पड़ेगा।यही नवयुग की प्रतिष्ठापना का मूल आधार होगा।


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