सहचरों की घनिष्ठता

July 1990

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सजातियों का एकत्रीकरण सृष्टि का एक सुनिश्चित नियम हैं चींटी, दीमक, मक्खी-मच्छर तक एकाकी नहीं रहते। उन्हें झुण्ड बनाकर समूहबद्ध रहने में प्रसन्नता भी होती है और सुविधा भी रहती है। वन प्रदेशों में एक जाति के पशु-पक्षी अपने वर्ग के सदस्यों के साथ रहते और मिल-जुलकर समय गुजारने में प्रयत्नशील रहते देखे जाते हैं। एक प्रकार की वनस्पतियाँ पास-पास उगती हैं। निवास के लिए एकाकी झोपड़ों में रहना पसंद नहीं किया जाता। सुविधा और आकर्षण नितान्त छोटे नगरों की अपेक्षा बड़े गाँवों, कस्बों और नगरों में रहता है। बारातों, प्रीतिभोजों, जुलूसों, मेलों में यह प्रवृत्ति काम करती देखी जाती है। उत्पादन, विक्रय, व्यवसाय के लिए क्षेत्र या मार्केट बनाये जाते हैं। दुर्व्यसनी और अपराधी भी अपने गिरोह बना लेते हैं। सभा, सोसाइटियां, संगठन, क्लब आदि एक जैसी प्रकृति या मान्यता वालों द्वारा विनिर्मित किये जाते हैं। आकाश में तारों का समूह ही शोभायमान होता है। बगीचे शोभायमान रहते हैं, पर रेगिस्तान की जहाँ-तहाँ उगी खैर-खजूरें कुरूप ही लगती हैं।

विभिन्न प्रकार की खदानें इसी नियम के आधार पर बनती हैं कि एक जाति के अणु-परमाणु साथ-साथ रहना चाहते हैं, इसलिए वे किसी अदृश्य चुम्बकत्व से प्रेरित होकर उस ओर चल पड़ते हैं जिस ओर सजातियों का बड़ा समुदाय पहले से ही एकत्रित रहता और साथियों के आगमन की प्रतीक्षा करता है। इसी आधार पर विभिन्न वर्ग के कण अपने समूह बनाते और धीरे-धीरे बड़ी खदानों के रूप में परिणत होते जाते हैं।

विचारों के संबंध में यही सोचा जाता है कि वे अपने निजी उत्पादन होते हैं। मनुष्य इच्छापूर्वक कल्पनाएँ करता और स्वनिर्मित चिन्तन में उलझा रहता है, पर यह आँशिक रूप से ही सही हैं सामूहिकता का एकत्रीकरण का नियम उन पर भी लागू होता है। समर्थ विचार दूसरों पर चढ़ दौड़ते हैं और जो अपने से कमजोर हैं उन्हें घसीट कर अपने शिकंजे में कस लेते हैं। समर्थ विचारक यदि मनस्वी हो, सघन श्रद्धा और प्रचण्ड विश्वास के साथ जुड़े हों तो फिर वे भी एकाकी न रहेंगे। अपनी सजातियों की उपस्थिति जहाँ भी देखेंगे, उन्हें घसीट कर अपने साथ चलने के लिए बाधित करेंगे, फिर चाहे वे उत्कृष्ट स्तर के हों या निकृष्ट स्तर के।

लोक व्यवहार में ऐसा ही घटित होता रहता है। दुर्व्यसनी, अनाचारी, क्रूरकर्मी अपने स्तर के लोगों को सहज तलाश लेते हैं। उन्हें अपना साथी बनाते और कुछ ही समय में एक गिरोह के रूप में संगठित हो जाते हैं। एक दूसरे को प्रोत्साहित करते और सहायता देते हैं। इसी आधार पर अवाँछनीयता को संगठित होते देखा गया है। इनके संगठित आक्रमण बहुत हद तक सफल भी होते हैं। गुण्डागर्दी और अपराधी प्रवृत्ति के बढ़ने का एक कारण यह भी है कि उनके गिरोह बन जाते हैं और वे फिर दाद, खाज-खुजली, कैन्सर आदि की तरह गहरी जड़े जमा लेते हैं। इतनी गहरी कि उनको उखाड़ फेंकना कठिन हो जाता है। दैत्य दानवों के समर्थ समूह इसी आधार पर एकत्रित और समर्थ बनते देखे गये हैं। इसलिए विज्ञजन अपने को अपनों को ऐसे वातावरण से बचाये रहने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

सत्संग की, सज्जनों के समुदाय के साथ घनिष्ठता रखने की उपयोगिता को इसीलिए सराहा जाता है कि उस समुदाय में मिलने वाली सत्प्रवृत्तियाँ उन्हें भी श्रेष्ठता प्रदान करती हैं जो उस वातावरण के साथ अपनी घनिष्ठता जोड़ती हैं। ऐसे व्यक्ति न मिलने पर उनकी आँशिक आवश्यकता सत्साहित्य से भी पूरी हो जाती है। स्वाध्याय को भी एक प्रकार का सत्संग ही बताया गया है और उसके लाभों की प्रशंसा भी की गई है।

अनन्त आकाश में भले बुरे विचारों के प्रवाह भी परिभ्रमण करते रहते हैं। उनमें भी अपनी समर्थता के अनुरूप सहचर को खींचने या उनकी ओर खिंचे जाने की विशेषता होती है। बुरे विचार यदि भौतिक क्षेत्र में भी उठाये गये हैं तो यह स्वाभाविक है कि उसी स्तर के लोगों के मनों में उठने वाले कुविचार अपने स्तर वालों की ओर दौड़ पड़ें। सज्जनता के विचार भी इसी प्रकार अपने साथियों के सार्थक वातावरण की तलाश में रहते हैं। सज्जनों की समीपता से, विचार सदृश्यता से भी लोग इसी आधार पर लाभ उठाते रहते हैं।


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