दिल की धड़कन के साथ चलने वाला विज्ञान

July 1990

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फ्राँस की राजधानी पेरिस के एक सभागार में हजारों लोग जमा थे। सभी उत्सुकता और आश्चर्य से मंच पर टकटकी लगाए हुए थे। इसका कारण था आज प्रदर्शित किया जाता विलक्षण प्रयोग। बात स्वाभाविक है-किसे यह जानकर आश्चर्य न होगा कि जिन पौधों को अभी तक निर्जीव समझते रहे हैं, जड़ता की मान्यता से विभूषित कर रखा, वे भी चेतन और सजीव हैं।

इस असम्भव सी लगने वाली बात को अपने वैज्ञानिक प्रयोगों कसे सिद्ध किया जाना था। ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था-उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। इतने में एक भारतीय वैज्ञानिक अपने सहायकों के साथ मंच पर आए। उन्होंने छोटा सा उद्बोधन दिया। मित्रो! पादप वर्ग भी हमारी तरह सचेतन और प्राणवान है। जो विष हमारे प्राण हरण कर निर्जीव बनाता है उसे यदि पौधों में इंजेक्शन के द्वारा प्रवेश करा दें तो वे भी प्राणहीन और निर्जीव हो जाएंगे। इस कथन के तुरन्त बाद उन्होंने तीव्र विष-पोटेशियम सायनाइड की पुड़िया माँगी। वहीं के सज्जन ने इसे ला कर दिया। इसे बीकर में घोला गया। घोल को इंजेक्शन में भर कर गमले में लगे एक पौधे को लगाया। पर यह क्या? एक मिनट दो मिनट पूरे दस मिनट हो गए पौधा ज्यों का त्यों रहा। फिर क्या प्रयोग झूठा है? पूर्व मान्यताएँ ही सही थीं उपस्थित लोगों के बीच से असन्तोष के स्वर उभरे।

भारतीय वैज्ञानिक भी चकित था। यकायक उसके चेहरे पर दृढ़ भाव झलके-दृढ़ स्वरों में उसने कहा कि यदि इस जहर से पौध नहीं मर सकता तो मैं भी नहीं मरूंगा। इस वाक्य के साथ बीकर के शेष घोल को उठाया और गटागट पीने लगा। जन समुदाय की नहीं नहीं की आवाजें उसे विरत नहीं कर सकीं। पर अरे! वह भी तो नहीं मरा। तो क्या पोटेशियम सायनाइड नकली था। जी हाँ उसने आश्चर्य को तोड़ते हुए कहा मुझे विष की जगह शक्कर दी गई थी, घोल भी इसी का था। शर्बत पीने से भला पौधा क्यों करने लगा। यही कारण है वह मेरी तरह खुश है। ईर्ष्यालु षड्यंत्रकारियों के चेहरे झुक गए। उनकी सोच थी इस तरह उसे भरी सभा में अपमानित किया जा सकेगा। पर जिसमें लक्ष्य के प्रति दृढ़ता व अपने प्रति विश्वास है उन्हें मार्ग से विरत करने की सामर्थ्य किसी में नहीं होती।

असली पोटेशियम सायनाइड लाया गया। इसके घोल को चुभोते हुए पौधा कुम्हलाया सूखा और मुरझा गया। उपस्थित लोगों के चेहरे खिल उठे। क्यों ने हो आखिर ज्ञान के एक नए अध्याय का शुभारम्भ जो हुआ था। ईर्ष्यालु खिसक गए। भारतीय वैज्ञानिक के चेहरे पर एक आत्मविश्वासी का तेज था।

यह भारतीय वैज्ञानिक और कोई नहीं श्री जगदीश चन्द्र बसु थे। सत्य को उद्घाटित करने की तीव्र अभीप्सा को हृदय में सँजोने वाले श्री बसु की नीति थी कि विज्ञान मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य विज्ञान के लिए। यह तभी तक उपयुक्त है जब तक मानव हृदय में धड़कती संवेदनाओं के साथ तैयार हों

यह स्वयं भी अपने को सर्वप्रथम सरस संवेदनाओं से युक्त मनुष्य मानते थे। उनके लिए इसकी एक ही कसौटी थी, मनुष्य वही है, जो मनुष्यता को खुशहाल बनाए रखने के लिए तत्पर हो जाए। उन दिनों बंगाल अकाल-महामारी की चपेट में आ गया। उन्हें भी प्रयोगशाला की दीवारें कैद न रख सकीं। आर्थिक सहायता दी। लोगों को अनेकों तरह से मदद करने के लिए प्रोत्साहित किया। यही नहीं इस अवसर पर उन्होंने कहा यदि जरूरत पड़ी तो प्रयोगशाला बेच देंगे। अरे यह क्या? मित्र-सहयोगी भौंचक्के रह गए। इतनी कठिनाइयों से स्थापित की गई प्रयोगशाला जिसमें घर का सब कुछ खप गया। शीर्षस्थ स्तर तक पहुँचाया अमूल्य-बहुमूल्य मान-सम्मान पदक उपाधियाँ सभी कुछ दिलाई। उसे बेचने की बात कहना क्या कृतघ्नता नहीं है?

इस प्रश्न के जवाब में श्री बसु के नेत्रों में आँसू छलछला आए। बड़ी कठिनाई से भरे गले से जवाब दिया। नहीं मित्रों यह कृतघ्नता नहीं है। यद्यपि प्रयोगशाला मेरा जीव है प्राण है। पर मानवता के इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जबकि प्राणों का त्याग करना पड़ता है। ऐसे अवसर पर सहर्ष प्राण दान भी विजय का द्योतक होता है। मानवता बिलखती-तड़पती रहे-और मैं बैठा रहूँ प्रयोगशाला तो क्या कोई मुझे खरीदने को तैयार हो तो स्वयं भी बिक जाऊँ। डॉ. बसु के इन भावों ने अनूठी जाग्रति पैदा की। देने वालों की थैलियाँ खुल गई। सभी ने आश्वासन दिया नहीं प्रयोगशाला नहीं बिकेगी। श्रम, समय, धन देने वालों की ऐसी बाढ़ आयी। अकाल का मुख बन्द हो गया। पर बसु की भावनाएँ उतनी ही उदात्त रहीं। वह जो कुछ कमाते उसका पांचवां भाग अपने ऊपर खर्च करते। इसका कारण कंजूसी नहीं “सादा-जीवन उच्चविचार” की वह नीति थी जिसे उन्होंने घुट्टी के रूप में बचपन में सीखा था। शेष धन पर वह समाज का अधिकार मानते। नोबुल पुरस्कार की राशि भी उनने समाज को अर्पित कर दी थी।

देश में स्त्री शिक्षा की शुरुआत हुई। निवेदिता ने इस कार्य के लिए अपनी आहुति दी। श्रम तो था, पर धन नहीं। डॉ. बसु ने कहा-धन के कारण ऐसा पुनीत कार्य नहीं रोका जा सकता। उन्होंने एक लाख रुपया तुरन्त दिया। इसी प्रकार शराब बन्दी के लिए प्रयत्न किए गए। न जाने कितने लोग, व्यक्ति, परिवार मदिरा-राक्षसी की चपेट में आते और नष्ट होते। जनमानस में जाग्रति आए, इसके लिए एक लाख रुपये दिए। जिससे नाटक मंचन, साहित्य प्रचार आदि सार्थक साधनों के द्वारा जनमानस को झकझोरा जा सके।

देश आगे बढ़े समाज प्रगतिशील बने इसमें विज्ञान वैज्ञानिकता की भूमिका को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। यह भूमिका और अधिक प्रभावकारी बने इस हेतु उन्होंने “बसु विज्ञान मन्दिर” की स्थापना में अपना 14 लाख रुपया लगा दिया। यही उनकी समाज देवता को अर्पित की गई पूर्णाहुति थी।

अब वह वृद्ध हो चुके थे। सन् 1937 में 71 वर्ष की अवस्था में 23 नवम्बर के दिन कर्मठता


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