जब जाग उठता है ब्राह्मणत्व तो....

July 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महल की सीढ़ियाँ चढ़ने के साथ ही एक बार फिर उनके हाथ कुर्ते की जेब में गए। दूसरे ही क्षण एक का हाथ में था। इसमें मोड़ कर रखे हुए कागज को खोला और पढ़ने लगे। अक्षरों के क्रम के साथ ही चेहरे पर भावों की लहरें उठ रही थी। इन लहरों में ऊर्जस्विता भर रहा था यह कागज का टुकड़ा। ऐसा क्या था इस सोलह अंगुल के कागज में। वह भी तो एक कागज ही था जिसने कल से ही उनके मन को मथ रखा था। कितनी बार पढ़ा होगा उसे कुछ ख्याल नहीं, हाँ यह अवश्य है कि जितनी भी बार पढ़ा विकलता बढ़ती गई और आखिर में लिखना ही पड़ा इस कागज को जो इस क्षण उनके हाथ में था। यह कागज का एक टुकड़ा नहीं, उनका आत्मा निर्णय था।

दरबान काफी देर से उनको बड़ी बारीकी से देख रहा था। जेब से लिफाफे का निकालना-उलटना पलटना कागज खोलकर पढ़ना फिर भावों के दरिया में डूब जाना। आखिर उससे रहा न गया पूछ ही बैठा क्या सोचने लगे पण्डित जी?

और वह जैसे सोते से उठे। चिन्तन की निमग्नता टूटी। दरबान को सम्बोधित करते हुए बोले- हिज हाइनेस को सूचना दो कि मैं मिलना चाहता हूँ।

अरे आपके लिए क्या सूचना चले जाइए।

नहीं-नहीं तुम बताकर आओ।

“अच्छा कहकर वह चला गया और वे फिर सोचने लगे ठीक ही तो लिखा है महामना ने ब्राह्मणत्व एक साधना है। मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान है। इसकी साधना की ओर उन्मुख होने वाले क्षत्रिय विश्वामित्र और शूद्र ऐतरेय भी ब्राह्मण हो जाते हैं। साधना से विमुख होने पर ब्राह्मण कुमार अजामिल और कौण्डिलायन शूद्र हो गए। सही तो है जन्म से कोई कब ब्राह्मण हुआ है। ब्राह्मण वह जो समाज से कम से कम लेकर उसे अधिकतम दे। स्वयं के तप, विचार और आदर्श जीवन के द्वारा अनेकों को सुपथ पर चलना सिखाए। इस कसौटी पर कसे जाने.....। आगे कुछ सोच पाते कि दरबान ने खबर दी महाराज आपको बुला रहे हैं।

उनके नपे तुले कदम महल के एक आलीशान कक्ष की ओर बढ़ गए। यहाँ महाराज अपने खास मित्रों के साथ बैठ कर वार्तालाप किया करते हैं। उन्हें सामने देख कर वह बोल उठे आज असमय कैसे आना हुआ, खैरियत तो है।

जवाब में उन्होंने वही कागज थमा दिया। पढ़कर राजा साहब चौंक उठे जैसे कागज न होकर बिच्छू हो। बड़ी मुश्किल से उनके मुख से निकला के के .... क्यों? यह सब! कहकर नरेश ने उनके चेहरे की ओर देखा जैसे वह पूर्ण कारण जानना चाहते हों।

“कल मालवीय जी का पत्र आया था, उन्होंने लिखा है यदि तुम में ब्राह्मणत्व जागे तो रियासत की आराम तलबी छोड़कर हिन्दू विश्व विद्यालय के कर्त्तव्य क्षेत्र में आ जाओ”। यहाँ तुम्हारी उपयोगिता और आवश्यकता कहीं अधिक है।

ब्राह्मण तो आप हैं नहीं इसमें जगने और सोने की क्या बात है? महाराज को वाकया समझ में नहीं आ रहा था।

“आज से पहले मैं भी यही समझता था। किन्तु अब मालवीय जी की परिभाषा पढ़कर लगा कि अर्थ लोलुप भी कहीं ब्राह्मण हो सकता है?”

“कितना मिलेगा वहाँ “? “ यही तकरीबन अढ़ाई तीन सौ “ “और यहाँ आपको साढ़े तीन हजार प्रतिमास मिलता है आवास तथा अन्य सुविधाएँ अलग। मालवीय जी से पूछियेगा। ब्राह्मण होने का मतलब बुद्धिहीन होना तो नहीं है? “ और विवेकहीन होना भी नहीं है। ““बुद्धि और विवेक? क्या अन्तर है इनमें? “

“बुद्धि येन केन प्रकारेण तिकड़म भिड़ाकर उल्लू सीधा करती है और विवेक भावनाओं से एक होकर उच्चादर्शों के लिए अपनी राह खोजता है। “तो आपका यह अंतिम निर्णय है?”

“हाँ आत्मा की इस प्रकार की अवहेलना करने में असमर्थ हूँ।” सुनकर नरेश उनकी ओर देखते हुए बोले “आप हमेशा से मेरे श्रद्धाभाजन रहे और आज तो आपके प्रति मेरी श्रद्धा पहले की अपेक्षा द्विगुणित हो उठी है। सच पंडित जी आज मैंने जाना कि ब्राह्मण राजा से भी बड़ा होता है।”

यह महामानव थे पं. रामचंद्र शुक्ल जिनने कर्त्तव्य की पुकार पर कालाकाँकर नरेश के हिन्दी सचिव का पद ठुकराकर मालवीय जी का सहकर्मी बनना श्रेयस्कर माना। यही है सही माने में ब्राह्मणत्व का जागरण।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118