बड़प्पन का आधार-श्रमनिष्ठा

July 1990

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उसके कदम ठिठक गए। चेहरे पर कुछ झल्लाहट के चिह्न भी उभरे। सोचने लगा किससे मिलना था, यहाँ भेज दिया, वह भला यहाँ क्यों होंगे। उन्हीं से मिलने के लिए तो वह इतनी दूर से आया है, नहीं तो कहाँ अमेरिका और कहाँ यह भारत। बम्बई की भूमि का स्पर्श करके सीधा चला आ रहा था। चेहरे पर थकावट के चिह्न, कपड़ों पर गर्द स्पष्ट दिख रही थी। प्रश्न थकावट का नहीं उनके दर्शन का था। पर आगे कुछ सोच पाता इसके पूर्व पानी बाल्टी ले जा रहे एक सज्जन ने टोका आपको बापू जी से मिलना है?

“बापू जी नहीं, महात्मा गाँधी से उसका संक्षिप्त सा जवाब था। “वह रहे।” उसने तरकारी काट रहे व्यक्तियों में से एक की ओर इशारा किया क्या। सब्जी काटने में तन्मयता से जुटा तनिक सांवले रंग का यह व्यक्ति-सामान्य वस्त्रों में कुछ पास तो नहीं दिखता। वह गौर से उनकी ओर देखने लगा, लम्बे कान, सिर र हल्के से बाल मुस्कान की आभा को सर्वदा धारण करने वाला मुख और आँखें....। इस ओर दृष्टि जाते ही उसे लगा व्यक्ति सचमुच गहरा होगा। उनकी दृष्टि जैसे तीर के अग्रभाग की तरह अति दूर अदृश्य की ओर लक्ष्य किए है साथ ही कद भर में लौटकर पास की चीज पर भी बिजली की तरह चोट कर सकती है। वह अवाक् सा खड़ा उनकी ओर देख रहा था सोचा पर यहाँ सब्जी क्यों काट रहा है? इतने में वह स्वयं सब्जी काटना छोड़ ठीक उसी के सामने आ कर बोले “आप तो अचानक रुक गए आइए न। कहने के साथ ही उन्होंने उसे सिर से पाँव तक देखा। दो क्षण बाद कहने लगे शायद आप थके अधिक हैं। स्नान आदि से निबट लीजिए भोजन पर बातें होगी।” आने वाला एक व्यक्ति के साथ दूसरी ओ चला गया। ठीक दो घण्टे बाद दोनों साथ बैठकर भोजन करने लगे।

“भोजन ठीक लग रहा है”। गाँधी जी ने स्नेह पूर्ण शब्दों में पूछा। “क्यों न लगेगा। आखिर तरकारियाँ आपने जो काटी हैं। हाँ इसमें सामूहिक श्रम का स्वाद है।

“पर आप इन सब साधारण कामों में जुटते हैं, यह आज पता चला। वह अपने अन्दर के आश्चर्य को व्यक्त करने से रोक न सका।”

“साधारण क्यों, हर एक की अपने स्थान पर उतनी ही आवश्यकता और उपयोगिता है”। कहते हुए उन्होंने रोटी के कौर को थाली में रखी नीम की चटनी में डुबोया।

“किन्तु आप जैसे बड़े आदमी” “दुर्भाग्य है मानव समाज का जहाँ आलसी, विलास, कामचोर, मुफ्तखोर बड़े माने जाते हैं। इस मामले में मनुष्य से समझदार तो मधु मक्खियाँ है जो आलसियों मुफ्तखोरों को निकाल बाहर करती हैं। वाणी से हृदय की व्यथा छलक पड़ी। वह तो उनके चेहरे की ओर ताकता रह गया।

इधर वह कह रहे थे मेरा अटल सिद्धान्त है जो श्रम की अवहेलना करके भोजन करता है निश्चित रूप से चोर हैं। भले कोई भी क्यों न हो। मि. गाँधी श्रम मानसिक भी तो होता है उसके लिए क्या आवश्यक है कि सब्जी काटी जाए। कहकर उसने पानी का गिलास उठाया।

यह तो है पर अपाहिज हो जाना कोई अच्छी बात तो नहीं। अपाहिज! स्वर में आश्चर्य था। और नहीं तो क्या? जिस तरह शरीर के अनेकों अंग हैं उनमें से किसी के काम न करने पर अपाहिज माना जाता है। उसी प्रकार मानवीय व्यक्तित्व के अंग हैं शरीर मन, आत्मा। इनमें से किसी को निष्क्रियता बर्दाश्त नहीं। किसी के निठल्ले पड़े रहने का मतलब है अपाहिज हो जाना। जब शरीर को ही पड़ता घेर लेगी, तब मन, और आत्मा तो तम के गहरे कुएँ में चले जाएँगे। बात समझ में आने वाली थी “और जहाँ तक बड़े होने की बात है, उसका एक ही मानदण्ड है जो जितना अधिक श्रम करे वह उतना ही बड़ा। भावी मनुष्यता इसी पैमाने के आधार पर सम्मानित करेगी।” उसे भोजन की तृप्ति के साथ एक और भी तृप्ति मिल रही थी। समाधान पाने की। श्रम की गरिमा समझने वाले यह मुलाकाती अमेरिकन सज्जन थे रिचर्ड बी. ग्रेग और समझाने वाले थे अपने राष्ट्रपिता। अच्छा हो हम भी उनके इस स्वानुभूति को अपना सकें कि श्रमशीलता ही यथार्थ बड़प्पन और सम्मान का आधार है।


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