सहस्राधिक नेत्र उस पर टिके थे। फ्राँस का राजदरबार आज उसे राजकीय सम्मान प्रदान कर रहा है। यों यह सम्मान अब तक औरों ने भी पाया होगा, लेकिन उसके जैसा नहीं। पहले के सम्मान समारोहों में सिर्फ राजदरबार के वर्ग अथवा कतिपय गणमान्य व्यक्ति आकर्षित होते थे। लेकिन आज जन-सामान्य भी उमड़ पड़ा था। दर्शक दीर्घा के खचाखच भर जाने के कारण अनेकों दरबार के बाहर खड़े थे, इस आशा के साथ कि निकलने पर तो देख ही सकेंगे।
वह कोई बहुत बड़ा कवि-कलाकार न होकर पेशे से सामान्य चिकित्सक भर था। पर यहाँ उसे चिकित्सा विद्या नहीं वह अनूठी अनबूझ राहों पर चलने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। सबके लिए अनजाना, अनसुलझा रहने वाला भविष्य उसके लिए सर्वथा परिचित और स्पष्ट था। अपने इस भविष्य दर्शन के करतब के कारण वह न केवल मोन्टेपिलर-पेरिस बल्कि समूचे फ्राँस में प्रसिद्धि पा चुका था।
अद्भुत है मानवी कलेवर भी-ऊपर से देखने पर तो हड्डियों के सहारे टिका, सर्वथा निकृष्ट दर्जे के चमड़े से मढ़ा खोल भर दिखता है, जिसका बाजार भाव मुश्किल से चालीस-पचास रुपये लगे पर क्या इतना ही है,? “नहीं तो “ शरीर, प्राण, मन और मन से आत्मा तक अनेक विधि स्तरों में ऐसे-ऐसे खजाने छुपे हैं, ऐसी-ऐसी सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं जिसे देखकर अवाक् होना पड़ता है। मानने के लिए विवश होना पड़ता है कि मनुष्य निःसंदेह परमेश्वर का राजदुलारा है। आज लोग उसे देखकर कुछ इसी तरह विवश हो रहे थे। महारानी कैथेरीन द मेदिसी ने सम्राट और राजपुत्रों के भविष्य को जानने के लिए ही उसे बुलाया था।
उसके इस कर्तव्य पर दरबारी आपस में कुछ खुसफुसा रहे थे, पर बोले कौन? राजदरबार की मर्यादाएँ। साम्राज्ञी की दृष्टि उधर गई उनकी तेज आँखों से तथ्य छुपा न रह सका। उन्होंने उद्घोषक को बुलाकर कुछ कहा।
अगले ही पल वाणी गूँज गई-दरबार के सदस्य यदि कुछ कहना या पूछना चाहें तो पूछ सकते हैं; सम्राट व साम्राज्ञी आज्ञा देते हैं।
उत्तर में मंत्रीपरिषद् के एक सदस्य खड़े हुए। उन्होंने दरबारी शिष्टाचार का पूर्ण निर्वाह करते हुए पूछा-हमारे मानवीय अतिथि सिर्फ व्यक्तियों के ही भविष्य बता सकते हैं अथवा उनमें समूचे विश्व, अखिल मानव समाज की भवितव्यता उद्घाटित करने की भी क्षमता है।
कथन चुनौती भरा था। परन्तु इसके साथ ही अन्यों के चेहरों पर सन्तोष के भाव तैर गए। हो भी क्यों न? आखिर वे भी यही तो पूछना चाहते थे। उसने महारानी की ओर देखा, आँखों-ही-आँखों में बोलने की इजाजत माँगी। मिलने पर एक भरपूर दृष्टि मंत्रीपरिषद के सदस्यों, दरबारियों पर डालते हुए कहा-”आपका प्रश्न वाजिब है, यदि आप लोग व्यक्ति से ऊपर उठकर विश्व तक न पहुँचेंगे तो कौन पहुँचेगा? संभवतः आप सभी उत्तर भी चाहेंगे?” सभी का उत्तर सकारात्मक था।
तो सुनिये! आवाज किन्हीं अतल गहराइयों से रही थी। चेहरे पर पहले के सभी भाव लुप्त हो चुके थे। पहले हास-परिहास सहज मुस्कान सब गायब थी। अब थी एक अनोखी चमक-द्रष्टा का आभामण्डल। सभी दम साधे सुन रहे थे। “विश्व को अनेक कठिनाइयों से गुजरना पड़ेगा। अठारहवीं सदी के अन्तिम दशक में फ्राँस को राज्य क्रान्ति से गुजरना होगा। बीसवीं सदी में धरती दो महायुद्धों से हुए रक्तपात से भीग जाएगी। हिंसा, आग, बवण्डर, अलगाव-आतंक, क्रान्तियाँ और.........।” उसके कहने के भाव इतने भयंकर थे जैसे प्रत्येक शब्द से ज्वाला बरस रही हो। जन समुदाय सहम गया। क्या होगा? अभी तो 1442 चल रहा है, यह सब तो दूर है।
“हिटलर नामक तानाशाह का उदय-अस्त मार्क्सवाद का प्रादुर्भाव और विनाश, ब्रिटेन पर आघात न जाने कितनी बातें बयान कर डालीं। विनाश-विध्वंस चीत्कारें तो क्या धरती के भाग्य में महानाश के अलावा और कुछ नहीं है। सभी के मनों में उथल-पुथल थी। 1999 के होते-होते धरती पर एक महाक्राँति सम्पन्न होगी-एज ऑफ ट्रुथ “सतयुग” का आगमन होगा। सर्वत्र शान्ति, चहुँ ओर सृजन मानव के रूप में देवताओं का विहार, धन्य हो उठेगी धरा स्वयं को स्वर्ग का आधार बनते देखकर।” “कौन करेगा यह सब कहाँ से उठेगी महाक्रांति” एक ने दूसरे की ओर इशारा किया। महारानी सम्राट सभी आश्चर्यचकित थे, इस भावान्तर को देखकर। तभी प्रधान आमात्य ने सभी को शान्त किया।
वह कह रहे थे -”जहाँ तीन समुद्र मिलते हैं, उसी देश में आयेगा क्रान्ति का संचालक। उसे गुरुवार प्रिय होगा। वही महाशिल्पी इस अलौकिक सृजन को सम्पन्न करेगा। समस्त धरावासी “न भूतो न भविष्यति” कह कर सिर झुका लेंगे” जिन्हें भौगोलिक जानकारी थी, वे भारत का संकेत समझ चुके थे। पर असमंजस में थे। क्योंकि वे तो उसके वर्तमान को जानते ही न थे। एवं यह महापुरुष तो साढ़े चार सौ वर्ष बाद की भवितव्यता बता रहा था। महाविनाश से महासृजन तक का भविष्य दर्शन कर सभी भाव-विभोर थे। कुछ ही क्षणों में वे फिर पहले की तरह सामान्य सरल और हँसमुख बन गए, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
मोशिए! आपका कथन कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। मंत्रीपरिषद के एक वृद्ध सदस्य ने अचकचाहट के साथ सवाल किया। “ धरती की वर्तमान अवस्था और....।”
समझा मैंने भी नहीं है। मैंने तो सिर्फ देखा है सूक्ष्म में घटते हुए। अब समझना चाहते हैं समझ लीजिए एक छोटी सी कहानी सुनना पसंद करेंगे? उसने हल्की मुस्कराहट के साथ अपनी बात पूरी की। अवश्य-अवश्य। सभी ने अनुमोदन किया।
जवाब में वह हँसते हुए सुनाने लगे। अपने फ्राँस में एक फकीर थे मोपलिए। एक दिन एक युवक उनके पास आया - उसे तीव्र वैराग्य था, आशा थी कि सन्त उसे मानवीय चेतना का मर्मज्ञ बनाएँगे। सन्त ने अनेकों तरह की परीक्षा की, समस्त लक्षणों को परखा और उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा - तुममें सम्राट होने के लक्षण हैं।
पर मैं तो ....। युवक ने सकरुण नेत्रों से उनकी ओर ताका।
ठीक है, ठीक है साधना करो। सन्त की आँखें किसी अदृष्ट को निहार रही थी। साधना की प्रक्रिया समझायी, युवक भी तन्मय होकर साधना करने लगा। एक दिन सन्त ने कहा - “ पुत्र तुम्हारे अन्दर योगी के लक्षण दीखने लगे हैं। तुम किसी भी अवस्था में क्यों न हो, इच्छा होते ही मुझे अपने पास अनुभव कर सकोगे।
इसके एक-आध साल बाद ही साधनारत युवक के प्राणों ने शरीर छोड़ दिया। शरीर छोड़ने के बाद भी उसके प्राण सचेतन थे। उसने देखा कि वह एक अन्धेरी, संकीर्ण, दुर्गन्ध भरी गुफा में प्रवेश कर रहा है। दुःख और क्रोध से तमतमा कर उसने गुरु को पुकारते हुए कहा यही है आपका सत्य? आपने कहा था मैं सम्राट बनूँगा, अपने कहा था मैं योगी बनूँगा और मैं यह नारकीय यातना भुगत रहा हूँ।
पुकारते ही सन्त की सूक्ष्म उपस्थिति अनुभव हुई।”धैर्य मत खोओ बालक! तुम वैसे ही बनोगे जैसा मैंने कहा था। लेकिन तैयारी के लिए तुम्हें इस अँधेरी, विकट गुफा से गुजरना होगा। तुम इस देश की महान साम्राज्ञी के गर्भ में हो। जन्मते ही साम्राज्य तुम्हें विरासत में मिलेगा और योग संस्कारों वश प्राप्त होगा।” आज वह बालक....... कहते हुए उसने राजकुमार की ओर देखा।
सभी ने एक साथ कहानी के आवरण में छुपी यथार्थता को अनुभव किया। महारानी के मन में राजकुमार के जन्म से पूर्व के दिन सन्त का आशीर्वाद, सुखद अनुभूतियाँ एक-एक करके साकार हो उठी।
समझ में आया रहस्य, उसने अपनी रहस्यमयी दृष्टि सब पर घुमाई। विश्व व्यवस्था, अखिल मानव समाज अपनी गर्भावस्था से गुजर रहा है। प्रसव होने तक उसे अनेकों कष्ट सहने होंगे।
कौन है इस गर्भ को धारण करने वाला? अनेकों सवाल एक साथ उभरे। स्वयं सम्राट चकित थे। स्वयं महाकाल। संक्षिप्त उत्तर था। तो विश्व मानवता महाकाल के गर्भ में है। हाँ जहाँ उसे क्षण-क्षण परिवर्तन और अनिश्चितता का सामना करना पड़ेगा। दुःसह यातना जिसकी नियति होगी। यह यातना ही तो उसे सर्वांग सुन्दर बनाने वाली है।
काल के महाकाल के गर्भ में। ये शब्द सभी कानों में हथौड़े की तरह बज उठे। मस्तिष्क झनझना उठा। रुक-रुक कर सिहरन दौड़ उठती। नया मानव जन्म लेगा। सब कुछ नया होगा। नए प्राण, नया मनुष्य, नया समाज, नया जमाना, समूचा युग नया सब कुछ नया-नया। स्पष्ट हो गया न तथ्य। रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोले गए शब्दों ने जैसे सभी को अशाँत भविष्य से वर्तमान में ला दिया। फ्राँस की राजसभा में तथ्य को स्पष्ट करने वाले यह भविष्यद्रष्टा थे-”माइकेलनोस्ट्राडेमस” जिनकी भविष्यवाणियों को अपने में सँजोने वाली पुस्तक “सेंचुरीज” आज भी प्रत्येक के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। बीतती सदियों ने जिसे धुँधला करने के बजाय अधिकाधिक उज्ज्वल किया है।
1999 की घड़ियाँ निकट आती जा रही हैं। महाकाल की चेतना सघन से सघन तर सघनतम होती जा रही है। नवयुग जन्म लेने को है। अगवानी का समय आ रहा है। ऐसे में कदम पीछे क्यों हटें? जबकि कार्यक्षेत्र भारतवर्ष ही बनने जा रहा है।