सामान्य से असामान्य

July 1990

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परमात्मा ने-प्रकृति ने-मनुष्य मात्र को बहुत कुछ ऐसा असाधारण दिया है, जिसके आधार पर वह सुख-सौभाग्य, प्रगति स्वयं प्राप्त करने के साथ-साथ औरों के लिए भी सहायक सिद्ध हो सकता है। परन्तु मनुष्य की दुर्बुद्धि कहें या माया का भटकाव-जिसके प्रभाव से सुख-सौभाग्य के स्थान पर वह अपने तथा औरों के लिए समस्याएँ एवं विडम्बनाएँ ही रचता रह जाता है। लालसा, वासना और अहंता के चक्र में मनुष्य स्वयं को दयनीय स्थिति तक पहुँचा देता है।

इस स्वनिर्मित दुर्गति से पार निकलना कैसे हो? गिरना तो किसी के लिए भी सरल हो सकता है, पर उबरने और ऊँचा उठने के लिए मात्र अपने पुरुषार्थ से भी काम नहीं चलता, उसके लिए किसी समर्थ सहायक की जरूरत पड़ती है। यह सहायता भी किसी को अकस्मात् अप्रत्याशित रूप से मुफ्त में नहीं मिलती। उधार देकर समर्थ सत्ता भी उसका कुछ बदला चाहती है। मुफ्त में तो यहाँ किसी को कुछ भी नहीं मिलता।

पात्रता के नियम मनुष्य पर तीन प्रकार से लागू होते हैं-एक उत्साह और स्फूर्ति भरी श्रमशीलता, दूसरी तन्मयता, तत्परता भरी अभिरुचि तीसरी उत्कृष्टता के लिए गहरी लगन और ललक। यह तीनों जहाँ-कहीं भी सम्मिलित रूप से पायी जायेंगी, समझना चाहिए कि सफलता तक दौड़कर जा पहुँचने का अवसर मिला। पात्र हो तो पानी से न सही, हवा से वह जरूर भर जायेगा। खाली तो कभी रहेगा ही नहीं। ईश्वर की अनुकम्पा भी ऐसे ही लोगों पर बरसती है। उच्च पदों पर नियुक्ति उन्हीं की होती है, जो निर्धारित प्रतिस्पर्धाओं में बाजी मारते हैं।

यों ईश्वर के लिए सभी समान और सभी प्रिय हैं, पर उनके साथ बेइंसाफी भी तो नहीं की जा सकती, जिनने अथक परिश्रम करके अपनी योग्यता का परिचय दिया है। कोई बड़ा कारखाना खड़ा किया जाना होता है और उसके निर्माण में जल्दी करनी होती है, तो एक ही उपाय रह जाता है कि सुयोग्य एवं अनुभवी अधिकारियों की बड़ी संख्या में नियुक्ति की जाय। अधिक कारीगर खोजे और जुटाये जायें। यही अगले दिनों होने जा रहा है।

प्रतिभावान व्यक्ति जहाँ तहाँ मारे-मारे नहीं फिरते। गुणवानों, प्रतिभावानों को कभी खाली नहीं पाया जाता। इस पर भी यह आपत्तिकाल है। गरज कारीगरों को उतनी नहीं पड़ी है, जितनी कि निर्माणकर्ताओं को अपने अच्छे और भव्य काम समय रहते करा लेने की है।

भक्त भगवान से सदा अनुग्रह माँगते हैं, पर अब की बार इन दिनों ऐसा समय है, जिसमें निर्माणकर्ता को ही बड़ी बेचैनी से सत्पात्रों की खोजबीन करनी पड़ रही है। काम तो नियन्ता का ही रुका पड़ा है। उसे ही उतावली है। जैसी सड़ी-गली परिस्थितियां आज हैं, वैसी अधिक दिनों नहीं रहने दी जा सकती। बदलाव में बढ़-चढ़कर जो भूमिका निभाई जानी है, उसके लिए सत्पात्र तेजी से ढूँढ़े जा रहे हैं। विशेष अनुदान और उपहार भी उन्हीं का अविलम्ब मिलने वाले हैं। औसत स्तर के व्यक्तियों से लेकर प्रतिभावानों तक को, इस अभिनव सृजन में भाव-भरा योगदान प्रस्तुत करने के लिए समुचित अनुदान उदारतापूर्वक दिये जाने हैं।

साधारण और औसत दर्जे का व्यक्ति भी यदि सामान्य चाल और धीमी गति से प्रगति पथ पर आगे बढ़ता चले, तो इसका परिणाम भी ऐसा हो सकता है, जिससे उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न साकार होते देखा-समझा जा सके। प्रतिभाशालियों का समुदाय इसके अतिरिक्त है। जिनमें शारीरिक स्फूर्ति, मानसिक साहसिकता, और अन्तःकरण में उमंग भरी रहती हैं वे परिस्थितियों की दृष्टि से सामान्य होने पर भी इतना कुछ कर सकते हैं, जिसे अद्भुत कहा जा सके। जटायु जैसे अपनी आदर्शवादी उमंगों के आधार पर इतना कुछ कर सके, जितना कि हीन मनोबल वाले तरुण और बलिष्ठ भी नहीं कर सके। ऐसी कृतियाँ सदा स्मरण की जाती रहेंगी। अष्टावक्र जैसे टूटे-फूटे शरीर वालों ने ऐसे इतिहास की संरचना की, जिसका स्मरण करने मात्र से मन उल्लास से भर जाता है। लक्ष्मीबाई जैसी लड़कियाँ शत्रुओं के दाँत खट्टे करके अपने पौरुष का परिचय दे सकी। भामाशाह की थोड़ी-सी पूँजी ने राणा प्रताप की हारती बाजी को जिता दिया। संसार ऐसी प्रतिभाओं की कथा-गाथाओं से भरा पड़ा है।

साहित्य, कला, लगन, संगठन, सुनियोजन जैसे कितने ही गुण मनुष्य में ऐसे हैं, जिनका आँशिक उपयोग हो सके, तो वैयक्तिक और सामूहिक क्षेत्रों में आश्चर्यजनक चमत्कार सामने आ सकते हैं। ऐसे लोगों की तुलना में कहीं अधिक उपलब्धियाँ प्राप्त हैं। पैसे वाले ऐसे व्यापक व्यवसाय खड़े कर देते हैं, जिसके उत्पादन से अनेकों बहुमुखी आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि बुद्धिजीवी अपने कला-कौशल के आधार पर इतनी बड़ी सफलताएँ अर्जित करते हैं, जितनी की साधारण लोगों से तो कल्पना करते भी नहीं बनती। गायक, वादक, अभिनेता स्तर के कलाकार इतना यश और पैसा कमा लेते हैं, कि साधारण लोगों की दृष्टि में वह कोई वरदान जैसा प्रतीत होता है। कितने ही ऐसे विश्वासपात्र प्रतिभावान होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लेते हैं, उसे सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचा देते हैं।

देखा गया है कि ऐसे विभूतिवान भी मात्र लिप्सा, लालसा, तृष्णा, वासना, अहंता और संकीर्ण स्वार्थपरता जैसे हेय प्रयोजनों में ही अपनी उन उपलब्धियों को खपा देते हैं, जिनका उपयोग यदि लोक कल्याण के लिए हो सका होता, तो उतने पौरुष से निर्माण की दिशा में इतना कुछ बना पड़ा होता, जिनकी कीर्ति-गाथा चिरकाल तक गाई जाती और उनका अनुकरण करके कितने ही लोग अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर सके होते।

भगवान ने जिनको ऐसी सद्बुद्धि, सत्प्रेरणा और सत्साहसिकता प्रदान की है, उनने अपने साधनों की विलासिता अहंता और मोहजन्य वासना में न लगा कर, ऐसे महान प्रयोजनों में लगाया है कि उनसे प्रेरणा पाकर अनेकों लोग उसी मार्ग पर चल पड़ें। तब उस समुदाय का सम्मिलित क्रिया-कलाप इतना बड़ा होता है, जिनकी कल्पना मात्र से लोगों का हृदय हुलसने

दूसरों की निन्दा करने में खर्च किया जाने वाला समय अपने दोष ढूँढ़ने में लगाओ। दूसरों को सुधारने के लिए प्रयत्न करने का पहला चरण अपने सुधार से आरम्भ करो।

लगता है और देख-देखी वे भी ऐसा कुछ कर बैठने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं, जिससे असंख्यों के हित-साधन हो। जब सामान्य साधनों और सामान्य परिस्थितियों के लोगों ने इतने भर से बड़े कार्य कर दिखाये, तो जिनके पास साधन है, शक्ति है, संगठन है, मनोबल है, सूझबूझ है, वे कुछ अतिरिक्त उच्चस्तर के काम न कर सकें, ऐसी कोई बात नहीं।

मनुष्य की कृपणता, कायरता, संकीर्णता ही ऐसा अभिशाप है, जो उसे समर्थ रहते हुए भी कुछ करने नहीं देती, कठिनाइयों के जैसे-तैसे बहाने गढ़ लेती है। इसी को धिक्कारते हुए गीताकार ने कहा था कि- “क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वा तिष्ठ परंतप “। हृदय की इस क्षुद्रता, कृपणता से कोई अपना पीछा छुड़ा सके, तो आदर्शवादी उदारता उसके ऐसे पुष्ट आधार बना देती है, जिसके बल-बूते वह महामानवों की पंक्ति में बैठ सके और अपने साथ अन्यों को भी निहाल कर सके।


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