माँसाहार “गुनाह बेलज्जत”

July 1990

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मनुष्य प्राकृतिक रूप से शाकाहारी है। माँस उसका खाद्य नहीं है। उसकी संरचना भी शाकाहारी स्तर की आँतों वाले मनुष्य से तनिक भी तालमेल नहीं खाती, फिर दुष्प्राप्य भी होता है। मारे गये पशु के शरीर में जो रोग कीट पाये जाते हैं, वे उबालने, तलने पर भी बने रहते हैं, और खाने वाले के शरीर पर अहित कर प्रभाव छोड़ते हैं। वधकाल की पीड़ा, व्याकुलता, और चीत्कार के सूक्ष्म प्रभाव माँस पर छाये रहते हैं। वे खाने वाले में ऐसी प्रवृत्ति बढ़ाते हैं जो मानवी गरिमा के अनुरूप नहीं होती है। इन दुष्प्रभावों की चपेट में मनुष्य अपनी करुणा एवं शालीनता तक गँवा बैठता है।

भारत में माँसाहार का प्रचार प्रोटीन पौष्टिकता के नाम पर दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान मैक्सिको, चीन जैसे देशों के निवासी जहाँ अपने आहार में विशेष परिवर्तन कर शाकाहारी बनते जा रहे हैं, वहीं अपने देश में माँसाहार का प्रचलन अभिवृद्धि पर है। लगभग सत्तर प्रतिशत व्यक्ति सामिष भोजन करते हैं। प्रत्येक दस व्यक्ति में से सात व्यक्ति माँसाहारी हैं जबकि स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने निरंतर अनुसंधान के पश्चात् इस भ्राँतिपूर्ण धारणा को अब गलत सिद्ध कर दिया है कि माँस-मछली पौष्टिक तथा स्वास्थ्यवर्धक आहार हैं। इससे न केवल पाचन प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता और शरीर रोगग्रस्त होता है, वरन् अप्राकृतिक आहार होने से मन भी दूषित और विकारग्रस्त बन जाता है। वध किये जाते समय जानवर को जिस भयभीत और चीत्कार भरी स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है, उसके कारण उनकी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों तेजी से विध उगलने लगती हैं। उस स्थिति में तीव्रता से उभरते हुए हारमोन्स रसायन कुछ क्षण में समस्त रक्त में घुल जाते हैं और उसका प्रभाव माँस पर भी पड़ता है। इसके सूक्ष्म प्रभाव खाने वालों में भी पहुँचे बिना रहते नहीं। पेट में पहुँचते ही वह मनुष्य की तामसिक प्रवृत्तियों को भड़काते हैं, जिसके कारण हिंसा, क्रोध, तनाव जैसे अनेकानेक मानसिक विकास पैदा हो जाते हैं और समाज में पारस्परिक मनमुटाव, गृहकलह, लूट-खसोट खून खराबे आदि का निमित्त बनते हैं।

आहार विशेषज्ञों का कहना है कि माँस मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं हो सकता। मानवी काया के उचित विकास के लिए जिन पोषक तत्वों की संतुलित मात्रा का होना अनिवार्य है, उसकी पूर्ति शाकाहार से ही होती है।

माँसाहार में जिन तत्वों को पुष्टिकर बताया जाता है उनमें एक और विपत्ति जुड़ी रहती है यूरिक एसिड की अधिकता। ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. अलेक्जेन्डर के अनुसार यह तत्व शरीर के भीतर जमा होकर गठिया, मूत्र विकार, रक्त विकार, हृदयरोग, यक्ष्मा, अनिद्रा, हिस्टीरिया, यकृत रोग आदि कितनी ही बीमारियों को जन्म देता है। इसके अतिरिक्त माँस में उपस्थित चर्बी एवं कोलेस्ट्रॉल की अत्याधिक मात्रा खाने वाले के शरीर में पहुँच कर रक्तवाही धमनियों में जमकर उसे मोटी बना देती है जो हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, गुर्दे की बीमारी, पथरी आदि का प्रमुख कारण बनती है। समृद्ध औद्योगिक देशों में दो तिहाई लोगों की मृत्यु प्रायः इसी के कारण होती है।

अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों ने पाया है कि माँसाहारियों के रक्त में उपस्थित क्षार और अम्ल के बीच का निर्धारित अनुपात बिगड़ जाता है और आँतों की बढ़ी हुई गर्मी के दबाव से उसकी अधिकाँश मात्रा मूत्र के साथ बाहर निकल जाती है। उस कमी को पूरा करने के लिए शरीर में हड्डियों के अतिरिक्त और दूसरा स्रोत मिलता नहीं। फलस्वरूप रक्त अपना सन्तुलन बनाये रखने लिए क्षार और अम्ल हड्डियों से चूसने लगता है। इस प्रकार माँसाहारी की हड्डियां कमजोर पड़ती जाती है। और उसे गठिया एवं संधिवात जैसी व्यथायें जल्दी ही धर दबोचती है। शरीर को शक्ति और स्फूर्ति उस खाद्य पदार्थ से प्राप्त होती है जिसे हमारा पाचन संस्थान सरलतापूर्वक पचा लेता है। शाकाहार न केवल पाचन की दृष्टि से शरीरोपयोगी है वरन् मानव अंतःकरण को प्रिय लगने वाले समस्त गुण उसी से उपलब्ध होते हैं। इसलिए शाकाहार की वरेण्य है

आहारशास्त्री एल.एच. एण्डरसन ने ठीक ही कहा है-”हम सभ्यताभिमानियों के हाथ मूक और उपयोगी पशुओं के रक्त से रँगे हैं। हमारे माथे पर उनके खून का कलंक है। हमारा पेट एक घिनौना कब्रिस्तान बन गया है। शरीर की दुर्गन्ध हमारे मुख्य से निकल रही है। क्या यही मानवोचित आहार है? माँसाहार मानवता के नाम पर एक कलंक, गुनाह है इसे बंद किया ही जाना चाहिए।


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