जीवन सम्पदा का क्षरण रोकिए

July 1990

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विक्षिप्त और मूर्च्छित कुछ काम कर सकने में समर्थ नहीं होते। निद्राग्रस्त भी नशे पीने वालों की तरह सुध-बुध गँवा कर बेसुध पड़े रहते हैं। आपरेशनों के समय रोगी को दवा सुँघाकर बेहोश कर दिया जाता है। यह सभी अवस्थाएँ ऐसी हैं जिनमें समर्थ सुयोग्य होते हुए भी व्यक्ति कुछ कर नहीं पाता, फिर और कमाये बिना गुजारा कैसे चले? इसके लिए परावलम्बन ही एक मात्र गति रह जाती है। स्वजन संबंधी ऐसी स्थिति में जो सहारा देते रहते हैं, उतने से ही किसी प्रकार काम चलता है। अपंगों, अपाहिजों की भी यही स्थिति है उन्हें जहाँ से भी भिक्षा स्तर का सहयोग मिल जाता है, उसी के सहारे जीवित रहते और दिन गुजारते हैं। उन्मादी पागल की तो गतिविधियों पर भी दृष्टि रखनी पड़ती है, अन्यथा वे अपने लिए, दूसरों के लिए कोई संकट भी खड़ा कर सकते हैं।

उपरोक्त सभी दुर्दशाओं, दुर्भाग्यों का समुच्चय एक और भी है, जिसमें दीखने वाला शरीर तो भला चंगा प्रतीत होता है, पर कठिनाइयाँ वही सब सहनी पड़ती हैं जो ऊपर वाले दुर्भाग्यग्रस्तों पर सवार होकर उन्हें त्रास देती रहती हैं। इस व्यथा का नाम है-आलस्य। अन्य विपत्तियों में तो कितनी ही प्रारब्धवश आती और परिस्थितिवश व्यक्ति को अपने चँगुल में फँसाती हैं। वे चढ़ दौड़ती हैं, कोई निमंत्रण नहीं देता। नशेबाजी जैसी कुछ आदतें ही ऐसी हैं फिर छूटने का नाम नहीं लेती, किन्तु आलस्य ही एक ऐसा है जो पूर्णतया मनुष्य की इच्छा पर निर्भर रहता है। उसी के बुलाने पर आता है और जब उससे पीछा छुड़ाने की बात सोची जाती है तो अपनी इज्जत बचाते हुए चला भी जाता है।

आलस्य देखने-सुनने में एक असाधारण सी कुटेव है। एक भ्रान्ति के अनुसार उसे सौभाग्य का चिह्न भी माना जाता है। जिन्हें हाथ-पैर हिलाने न पड़ें, किन्तु जरूरतें यथा समय पूरी होती रहें तो उनके संबंध में कहा जाता है कि यह पूर्वजन्म के किसी संचित पुण्य का प्रारब्ध लाभ ले रहे हैं। इतना भी उनके संबंध में कुछ ठीक बैठता है जो बढ़ी-चढ़ी सम्पदा के स्वामी हैं, जिनका खर्च आसानी से चल जाता है, सहायता के लिए नौकर-चाकर उपस्थित रहते हैं। शेष आलसी अपनी और दूसरों की दृष्टि में गई-गुजरी स्थिति में ही दिन काटते हैं।

इज्जत सद्गुणी की होती है। सद्गुण दो प्रभाव दिखाते हैं- एक सम्मान दिलाते हैं और दूसरे धनोपार्जन में सहायता करते हैं। परमार्थ परायण ऋषिकल्प व्यक्ति अपना अभ्युदय उत्कर्ष करते हैं और साथ ही अनेकानेकों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का दायित्व भी संभालते हैं। यह सब बन पड़ना कठोर परिश्रम के द्वारा ही संभव होता है। व्यस्तता के फलस्वरूप ही समृद्धियाँ, सफलताएँ और विभूतियाँ हस्तगत होती है। आलसी तो निद्राग्रस्त, मूर्च्छितों की तरह पड़े रहते हैं। नित्यकर्म भी वे तब करते हैं जब प्रकृति गत दबाव उन्हें विवश करते हैं। यदि ऐसा न होता तो वे कदाचित शौच, स्नान, भोजन आदि से भी कतराते और किसी प्रकार पड़े-पड़े समय काटने में संतोष करते।

तत्पर श्रमशीलता प्राणियों का स्वाभाविक गुण हैं। चिड़ियाँ सबेरे से शाम तक उड़ती, फुदकती रहती हैं। पशु चरने के बहाने निरन्तर यहाँ-वहाँ चलते रहते हैं। बन्दरों से लेकर मच्छरों तक सभी को विशेष उद्देश्य न होने पर भी इधर से उधर दौड़ लगाते देखा जाता है। अंग संचालन शरीर को सक्रिय एवं समर्थ रखने वाली एक परमावश्यक प्रक्रिया है। इसकी अपेक्षा करने पर अंग-अवयव जकड़ने, सिकुड़ने लगते हैं। निरर्थक पड़ी रहने पर क्रियाशक्ति चली जाती है, साथ ही उस समर्थता का भी समापन हो जाता है, जिसे कभी प्रयत्नपूर्वक अर्जित किया गया होगा। अध्ययन क्रम छूट जाने पर अर्जित ज्ञान विस्मृत हो जाता है। संगीतकार-कलाकार भी उस स्थिति में पहुँच जाते हैं। मानों उनने कभी कुछ सीखा-समझा ही न था। निष्क्रिय रहने पर पाचनतंत्र, श्वसनतंत्र, रक्ताभिसरण, स्नायुतंत्र आदि सभी में निष्क्रियता आ जाती है। कालांतर में स्वभाव ऐसा बन जाता है कि जी करने पर भी कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता।

आदतें देर में पड़ती हैं, पर जब वे अभ्यास में उतर कर आदतें बन जाती हैं तो छुड़ाये नहीं छूटतीं। नशेबाजी का व्यसन ऐसा ही है जो पनपता तो धीरे-धीरे है, पर जब परिपक्व हो जाता है तो छुड़ाये नहीं छूटता। शरीर की क्षीणता, आर्थिक दरिद्रता, समाज में बदनामी, परिवार की दुर्गति आँखों से देखते रहने पर भी इतना मनोबल शेष नहीं रहता जिसके आधार पर बंधनों से छुटकारा मिल सके। सामने उपस्थित शत्रु से तो अपने, दूसरों के साधन जुटाकर निपटा जा सकता है, किन्तु कैन्सर के विषाणुओं की तरह जो दुर्गुण अभ्यास एवं स्वभाव की गहराई में उतर जाते हैं, वे बिना विशिष्ट प्रयास के सहज विदा नहीं होते।

आलस्य के लिए किसी वैद्य, डॉक्टर से चिकित्सा नहीं करानी पड़ती, किन्तु फिर भी वह ऐसा रोग है जिसकी तुलना क्षय रोग के साथ की जा सकें। क्षयग्रस्त व्यक्ति भी क्रमशः अपनी जीवनी शक्ति खोता और खोखला बनता जाता है। यही हाल आलसी का भी होता है। वह कुछ करना चाहता है, पर यह भूल जाता है कि करने के लिए श्रम और मनोयोग की आवश्यकता होती है। समय का अनुशासन पालना पड़ता है। यदि व सब न बन पड़े तो फिर शक्ति घटती जाती है। वह निरर्थक पड़ी रहने पर स्थिर नहीं रहती। जो उपार्जन नहीं करते उनकी पूँजी समाप्त होती चली जाती है। घटना या बढ़ना एक क्रम है। जो बढ़ेगा नहीं, सो घटेगा।

शरीर का स्थान मन से भी है। पुरुषार्थरत का मात्र शरीर ही काम नहीं करता साथ में मस्तिष्कीय क्षमताओं का भी नियोजन होता रहता है। बुद्धिमत्ता की अभिवृद्धि का यही तरीका है कि उसे बड़े उत्तरदायित्व सौंपे और पूरा करने के अवसर दिये जायें। माँ के पेट से कोई बुद्धिमान नहीं जन्मता। मानसिक शक्तियों का निरन्तर प्रयोग करते हरने पर ही दार्शनिक, वैज्ञानिक, विद्वान, व्यवसायी, विशेषज्ञ कलाकार अपने-अपने क्षेत्रों में अधिकाधिक कुशलता प्राप्त करते प्रवीण, पारंगत होते देखे गये हैं, पर आलसी तो इस प्रकार के सुयोग से अपने आपको वंचित ही करते चले जाते हैं। जब शरीर ही काम नहीं करेगा तो मन को भी व्यावहारिक चिन्तन करते न बन पड़ेगा। शेख चिल्ली जैसी रंगीन कल्पनाओं वाली बिना पंख की काल्पनिक उड़ाने भर भले ही उड़ता रहें।

आलस्य का अर्थ काम को पूरी तरह छोड़ बैठना, पलंगों पर पड़े रहना ही नहीं है वरन् यह भी है कि कार्य को धीमी गति से, रुक-रुक कर उपेक्षापूर्वक, अन्यमनस्क होकर किया जाय। ऐसे कामों की परिणति बड़ी फूहड़ और कुरूप होती है। उसे बेगार की तरह भुगतने पर काम के बदले उपहास, तिरस्कार ही मिलता है।

आलस्य और प्रमाद का जोड़ा है। जहाँ एक रहेगा, वहाँ दूसरा पहुँचे बिना रहेगा नहीं। आलसी से प्रमाद उग आते हैं और प्रमादी को आलसी बनने की आदत पड़ जाती है। शरीर सक्रिय रहता है तो नियत कामों में पन भी लगता है। मन में उत्कंठा उभरे तो उस के लिए शरीर को काम करना पड़ेगा। यह डायनेमो और बैटरी जैसा संयोग है। दोनों की मध्यवर्ती सक्षमता तभी गतिशील रहती है, जब अपने को व्यस्त रखा जाय-शारीरिक दृष्टि से भी और मानसिक दृष्टि से भी। यही प्रगति का समृद्धि का मूल मंत्र है।

इन दिनों श्रम क्षेत्र में भी असन्तुलन का दौर चल पड़ा है। बुद्धिजीवी शारीरिक श्रम से बचते हैं और श्रमिकों को बुद्धिबल बढ़ाने की उत्सुकता नहीं उठती। यह एकाकीपन अस्वस्थता और मूढ़ता को जन्म देता है। शरीर श्रम से बचने वाले बुद्धिजीवी प्रायः अनेक रोगों से घिरे रहते हैं। इसी प्रकार जिन्हें पसीना बहाने वाले परिश्रम भर से संतोष करना पड़ता है उनकी बुद्धिमत्ता अविकसित स्थिति में ही पड़ी रहती है। होना यह चाहिए कि हर वर्ग को शारीरिक और मानसिक श्रम करने का समान अवसर मिले। कोई भी आलस्य और प्रमाद से ग्रसित न होने पाए। इसी में सबका सब प्रकार कल्याण है।


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