लेखनी की सृजन-सामर्थ्य

July 1990

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“भाभी, तुम्हारे अन्दर मानवता के प्रति कसक है। लगता है पीड़ितों, असहायों का दर्द तुम्हारे अन्तःकरण में उतर आया है। तुम्हारे मन में जो करुणा, दया और प्रेम निहित है, उसे पा दुःखी और भ्रमित, पीड़ित और दलित-समाज को नई ज्योति मिलेगी। इसलिए तुम्हें अपनी रोजी-रोटी बेटा-बेटी की समस्या से ऊपर उठकर समाज सेवा का भी कुछ व्रत पालन करना चाहिए।” पति की छोटी बहिन ने उक्त शब्द कहे।

उस समय उसकी गोद में नवजात बालक था उसने कहा- “दीदी भला मेरे पास ऐसी कौन सी प्रतिभा है जिससे समाज का उद्बोधन और समाज का मार्गदर्शन करूं। किससे क्या कहूँ, मेरी कौन सुनेगा? सेवा का मार्ग कठिन है, उस पर मुझ जैसी स्वल्प शक्ति वाली स्त्री चल सकेगी, इसमें संदेह है।”

“ऐसा कहकर मनुष्य को प्रदत्त परमात्मा की शक्ति को तिरस्कृत न कीजिए भाभी जी। भगवान ने हर व्यक्ति को कुछ न कुछ दिया है, जिससे वह दूसरों की सेवा कर सकता है। दूसरों को ऊपर उठाने में मददगार साबित हो सकता है। कठिनाई तो कुल इतनी सी है, लोगों ने अपने स्वार्थ की एक छोटी सी रेखा खींच ली है। बढ़िया कपड़ा, दमकते जेवर और सुस्वादु भोजन हो तो सिर्फ अपने लिए। दूसरे के बच्चे कैसे भी रहें, पर मेरे बालक को उच्च शिक्षा, अधिक सुविधाएँ, स्नेह और आदर मिलना चाहिए। अपने सुख अपनी तृष्णा, अपने स्वार्थ की मृगतृष्णा से कुछ समय निकले तो सेवा के लिए सर्वत्र स्थान है।

बहिन ने आगे समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा-”भाभी जी आप लिखा कीजिए। अपनी बौद्धिक क्षमता, सूझ-बूझ और भीतर भरे गुणों का प्रकाश तो आप समाज को दे ही सकती हैं।”

“अच्छा जीजी लिखूँगी! जरूर लिखूँगी! उसने वचन दिया - जैसे ही बच्चा थोड़ा संभला, मैं लिखना अवश्य प्रारंभ करूंगी।”

यह वह समय था, जब अमेरिका में दास प्रथा खूब प्रचलित थी। दक्षिणी अफ्रीका में तो सामन्तवादियों ने दासों का घोर उत्पीड़न किया था, उनके साथ पशुवत् व्यवहार करते थे। मनमाना दण्ड देते और उनके जीवन को कंकड़-पत्थर की तरह अपनी सम्पत्ति मानते।

ऐसे समय में जब उनके खिलाफ एक शब्द भी कहने की किसी की हिम्मत ने होती थी। दृढ़ संकल्प करके एक साधारण गृहिणी जब कलम लेकर बैठ गई तो नज़ारा ही बदल गया। जो कल तक यह कहा करती थी कि उसके पास तो कुछ है ही नहीं, वह समाज का क्या हित कर सकती है। उसने जब सेवा का संकल्प ठान लिया तो सारे अमेरिका की आबोहवा गर्म होने लगी। उसने अपना सारा दर्द उतार कर कागजों में रख दिया। “अंकिल टाम्स केबिन”- “टाम काका की कुटिया” नाम से जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तो सारे देश में परिवर्तन का तूफान उठ खड़ा हुआ।

अवाँछनीयताओं के विषवृक्ष की जड़ें उखड़ने लगीं।

उसने इस किताब में दासत्व की अवाँछनीय प्रथा के खिलाफ ऐसे सशक्त विचार भरे थे कि हर पढ़ने वाला - तिल-मिला उठता और यही कहता -”मनुष्य, मनुष्य को उत्पीड़ित करना बंद करे।” घर-द्वार, कल-कारखाने, पार्क-पाठशाला सर्वत्र ये विचार व्याप्त हो गये। दास प्रथा समाप्त हो गई। दुनिया की 22 भाषाओं में अनूदित इस कृति को सभी ने सराहा।

एक दिन तत्कालीन राष्ट्रपति लिंकन ने उसका सार्वजनिक अभिनन्दन किया और कहा - यही हैं- हेरियट स्टो- जिन्होंने अमेरिकी समाज से सदियों से चली आ रही इस अवाँछनीयता को उखाड़ फेंका। यह इनकी निष्ठा और संकल्प का बल था - जिसने इतना बड़ा कार्य कर दिखाया। आप लोग यह अनुमान करें कि आप के पास भी उतनी ही शक्ति है। यदि आप कुछ करने को उद्यत हों, तो इससे भी अधिक चमत्कारपूर्ण कार्य कर सकते हैं।


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