काम बीज का परिष्कार-वर्चस एवं उल्लास के रूप में

July 1990

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जीवधारियों में काम एक प्रचण्ड शक्ति है, जिसका रूपांतरण या ऊर्ध्वीकरण पशु-पक्षी, कीट-पतंगे जैसे प्राणी नहीं कर पाते, मात्र अपने जैसे दूसरे प्राणियों को उत्पन्न करने में ही उसे नियोजित करते और जीवन की इतिश्री कर लेते है॥

मनुष्य की स्थिति अन्य प्राणियों से सर्वथा भिन्न है। स्रष्टा ने उसे विवेक बुद्धि सहित उन अगणित क्षमताओं से सम्पन्न बनाया है, जो काम प्रवृत्ति का प्रयोग वंश-प्रवाह को बनाये रहने के अतिरिक्त शारीरिक बलिष्ठता, मानसिक दक्षता-प्रतिभा एवं आत्मिक प्रखरता के रूप में कर सकता है। आवश्यकता मात्र प्रवाह-परिवर्तन की होती है। वेगवती नदियों के प्रचंड प्रवाह को उपयुक्त दिशा में रूपांतरित कर देने पर उससे विद्युत शक्ति का असीम भण्डार पैदा हो जाता है। जल-वाष्प से बड़े-बड़े स्टीम इंजन चलने लगते हैं। इसी तरह यदि कामशक्ति को-जीवन ऊर्जा को ऊर्ध्वगति प्रदान की जा सके, तो वह प्राण-विद्युत के भाण्डागार के रूप में बदल कर मानवी गौरव-गरिमा के उपयुक्त उत्कर्ष में सहायक बन जाती है। कामशक्ति का दमन नहीं, वरन् उदात्तीकरण ही उसके सदुपयोग का सही मार्ग है। फ्रायडवादी प्रतिपादनों के अनुरूप आचरण करना अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित करना है। इस शक्ति का समुचित सुनियोजन ही मानव जीवन के लिए कल्याणप्रद है।

काम तत्व की महत्ता एवं समर्थता से प्राचीन ऋषि-मनीषी भली-भाँति परिचित थे। यही कारण था कि उनने उसके दमन की नहीं, अपितु सृजनात्मक कार्यों में लगाने की विचारधारा को जन्म दिया था, और कामना की संज्ञा दे कर उसे व्यापक अर्थ प्रदान किया था। अथर्ववेद 1/2/19 में इस सम्बन्ध में कहा गया है, “कामों जशे प्रथमम्.............विश्वहा महान्” अर्थात् इस सृष्टि में काम शक्ति सबसे महान है। वह सृजन भी कर सकती है और दुरुपयोग होने पर ध्वंस भी खड़ा कर सकती है। यही वह शक्ति है, जो प्रत्येक प्राणी के अन्तराल में समाहित उल्लास के रूप में उमंग लाने, आगे बढ़ने, ऊँचा उठने, विनोद का रस लेने एवं साहसिक प्रयास करने के रूप में निरन्तर प्रस्फुटित होती रहती है। इसी को आकर्षण शक्ति कहते हैं। जड़ पदार्थों में ऋण और धन विद्युत के रूप में इसे ही कार्यरत देखा जाता है। भौतिकी के अनुसार भी सृष्टि की गतिविधियों का उद्गम यही है। शक्ति तरंगें उसी से उद्भूत होती और संसार की अनेकानेक हलचलों का सृजन करती हैं।

अध्यात्मवेत्ताओं एवं कार्लगुस्ताव जुँग जैसे विख्यात मनोविज्ञानियों ने काम प्रवृत्ति को साइकिक एनर्जी-मानसिक ऊर्जा के रूप में वर्णन किया है और कहा है कि इसका परिष्कृत स्वरूप ही शारीरिक बलिष्ठता, मानसिक दक्षता एवं आत्मिक प्रखरता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। प्राणियों में उसका उभार उत्साह, उल्लास एवं उमंगों के रूप में होता है। पारस्परिक प्रेम, सहयोग से उत्पन्न उपलब्धियों से परिचित होने के कारण आत्मा इस स्तर के प्रयासों में और सहज विनोद के लिए उन प्रयासों में प्रवृत्त होती है। शास्त्रकारों ने भी इसी को काम कहा है और उसकी उपयोगिता का समर्थन किया है। मनोवेत्ताओं द्वारा प्रतिपादित मानसिक ऊर्जा ही शास्त्रकारों के शब्दों में वह जीवन तत्व है जिसे उत्तेजनाओं, वासनाओं को भड़काने से रोक कर मस्तिष्क की ओर प्रवाहित कर देने पर मनुष्य को ऊर्ध्वरेता बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है। रेतस्-जीवन ऊर्जा का ऊपर- ही-ऊपर मस्तिष्क की तरफ प्रवाहित होना ही ब्रह्मचर्य है यही ऊर्जा जब आध्यात्मिकता की ओर मुड़ जाती है, तो आत्मा-परमात्मा में विचरण करने लगती है। ब्रह्मवर्चस परायण जीवन इसी का नाम है वेदों, उपनिषदों एवं महापुरुषों का यही आदर्श एवं आदेश भी है।

फ्रायड एवं एडलर जैसे पाश्चात्य मनोविज्ञानी ने काम प्रवृत्ति को अर्जेज, इड, लिबिडों, विल आदि नाम देकर जिस संकुचित रूप में उसके व्याख्या-विवेचना की है। शास्त्रकार के शब्दों में वह ऐषणाओं, का एक छोटा रूप है। ऐषणा का अर्थ है मनुष्य को प्रेरणा देने वाली शक्ति। इसका उदात्तीकरण ही सदुपयोग का सही मार्ग है। यह मात्र कामोल्लास तक समिति नहीं है। वृहदारण्यक उपनिषद् के सूत्र 1/4 के अनुसार ‘काम’-कामना रूप में व्यापक अर्थों वाला शब्द है। इसके उभार पर प्राणियों की प्रगति और पदार्थों की हलचलें निर्भर हैं। यही शक्ति अगणित उमंगों के रूप में प्रकट होती और विनोद भरे क्रियाकृत्य करने की प्रेरणा देती है। जीवन में सामान्य क्रिया–कलापों में मन लगाने और आनन्द मनाने का अवसर जिस अन्तःस्फूर्ति के आधार पर मिलता है मनीषियों ने उसे ‘काम’ कहा है। सद्कामना की पूर्ति में उत्साह और उमंग के साथ संलग्न होने वाली प्रवृत्ति ही काम है। इसका रसास्वादन जो न कर सका वह अर्धमृतकवत् जीवित रहेगा, उसे महत्वपूर्ण सफलताओं के दर्शन जीवन में कभी भी न हो सकेंगे। संसार में जितने भी महत्वपूर्ण काम हुए हैं, जितने भी महान व्यक्तित्व उभरे हैं, उन सब के मूल में अदम्य अभिलाषा और उसकी पूर्ति के लिए आतुर साहसिक पुरुषार्थ ही प्रधान भूमिका निभाता रहा है।

हँसती-हँसाती, खिलती-खिलाती, उछलती-फुदकती जिन्दगी के मूल में जो भाव भरा उल्लास काम करता है, वस्तुतः वही काम है। यह विनोद उल्लास अनेक अवसरों पर अनेक स्तर के व्यक्तियों में अनेक प्रकार से उभरता है। बच्चे इठलाते, इतराते, उछलते, मचलते रहते हैं। किशोर क्रीड़ाँगन में अपनी स्फूर्ति का परिचय देते देखे जाते हैं तो प्रौढ़ों को दूरदर्शी योजनाएँ बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने में संलग्न देखा जाता है। गायन वादन में झूमते हुए नृत्य करते हुए अभिनय में थिरकते हुए कलाकार वस्तुतः अन्तरंग के उल्लास का परिचय दर्शकों को कराते और उन्हें भी अपनी ही तरह सरसता के निर्झर में आनन्द लेने का अवसर देते हैं।

वनस्पति जगत में पुष्पों का सौंदर्य और सौरभ उनके अन्तराल में उभरे हुए कामोल्लास का परिचय देते हैं। मयूर का नृत्य, भ्रमर का गुँजन, पक्षियों की चहचहाहट और फुदकन आदि में उनके उभरते हुए अन्तःउल्लास का परिचय मिलता है। इसे चेतना की विकास के लिए उभरती हुई उमंग ही समझा जा सकता है। उत्साह के अभाव में नीरसता और निस्तब्धता का अंधकार ही छाने लगेगा। प्रगति क्रम रुक जाने की इस स्थिति में पूरी आशंका है। अतएव प्रकृति ने जड़ चेतन में अपने-अपने स्तर का उत्साह उत्पन्न किया है। और उनका कलेवर ऐसा सृजा है। जिसमें क्रीड़ा-कल्लोल की हलचलों को कार्यान्वित होने का अवसर मिलता है। प्रगति और हलचलों का उभार इसी पर निर्भर है। संक्षेप में यही कामक्रीड़ा है, जो अगणित उमंगों के रूप में प्रकट होती है और विनोद भरे क्रियाकृत्य करने की प्रेरणा देती है।

कामशक्ति का प्रवाह विषयभोग-यौन लिप्सा की और मुड़ जाने के?पर मात्र विनाश ही हाथ लगता है। वासना, कामुकता, अश्लील चिन्तन आदि का समस्त परिकर वस्तुतः उस सुविस्तृत सृष्टि-संचरण प्रक्रिया एवं मानव जीवन की अतिशय महत्वपूर्ण और प्रेरक शक्ति का बहुत ही छोटा और हेय स्वरूप है। इसकी व्याख्या-विवेचना क्रीड़ा, उल्लास के रूप में ही हो सकती है। उसे उत्साह, उभार-उपचार ‘काम’ की परिधि में सम्मिलित किये जा सकते हैं, जिनसे स्नेह, सौजन्य, सहयोग, मिलन आदि की सुखद अनुभूति होती है। सहृदयता, करुणा, सेवा, सहायता उदारता, साहसिकता के रूप में इसी की परिणति होती है। सृजनात्मक सत्प्रयोजनों के लिए किये जाने वाले त्याग-बलिदान में जो भाव-संवेदना काम करती है उसे भी इसी शक्ति का ऊर्ध्वगमन कह सकते है। संगीत, साहित्य, कला के विभिन्न विधाओं के रूप में हम दिन-प्रतिदिन जो कुछ भी देखते हैं, वह भी काम शक्ति का परिष्कृत और प्रखर रूप है।

कामतत्व की उच्चस्तरीय परिणति वह है, जो भावसंवेदनाओं की उत्कृष्टता कोमलता, करुणा के रूप में प्रस्फुटित होती है। इसे ईश्वर के साथ, विराट् ब्रह्म के साथ, नियोजित करने पर उसका स्वरूप उस भक्त जैसा बन जाता है जिसका इतिहास के पृष्ठों में गाँधी, बिनोवा, विवेकानन्द के रूप में उल्लेख है।

इस महाशक्ति का परिष्कार एवं ऊर्ध्वीकरण कार्यक्षेत्र में ओजस्, मनःक्षेत्र में तेजस् और अन्तराल में आत्मिक विभूतियों के रूप में वर्चस् बनकर उद्भूत होता और मानव जीवन को धन्य बना देता है। वेदों में कामशक्ति के इसी दिव्य स्वरूप का नमन वन्दन किया गया है।


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