वरिष्ठता की दो कसौटियां- प्रामाणिकता एवं उदारता

July 1990

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विशेषज्ञों की हर जगह माँग रहती है। विशिष्ट क्षमा सम्पन्नों की ही हर कोई खोज करता है। बेकार, बेरोजगार, उपेक्षित फिरने वालों में से अधिकाँश अयोग्य ही होते हैं। महत्वपूर्ण प्रयोजन पूरे कर सकने में दक्ष और विशिष्ट लोग ही सफल होते हैं। अयोग्यों से तो जीवन-निर्वाह करते भी सही रीति से बन नहीं पड़ता। इसलिए प्रत्यक्ष महत्वाकाँक्षी को सर्वप्रथम अपनी योग्यताओं, विशेषताओं का अभिवर्धन करने में प्रवृत्त होना पड़ता है, अन्यथा न कोई बड़ा स्वार्थ-साधन करते बन पड़ेगा और न कहने योग्य परमार्थ में सफलता प्राप्त कर सकना संभव होगा।

परमसत्ता ने इन दिनों युग निर्माण योजना सरंजाम जुटाने के साथ-साथ प्रतिभाशालियों को एकत्रित और प्रशिक्षित करने के कार्य को प्राथमिकता देते हुए हाथ में लिया है। इसके लिए विश्वसनीयता, वफादारी से भरे-पूरे व्यक्तियों के सहारे ही काम चलेगा। समुद्र पर सेतु बनाने के लिए नल-नील जैसे कुशल इंजीनियरों को बुलाया और जुटाया गया था। स्वेज और पनामा नहरें बनाने का नियोजन उच्चकोटि के प्रतिभावानों के हाथ में सौंपा गया था।

निर्देशक अयोग्य हो, तो अच्छी कहानियों वाली फिल्में भी हिट हो जाती है। अयोग्यों को सौंपे गये अन्य कार्य भी घाटा देते और असफल सिद्ध होते हैं। संसार के हर क्षेत्र में विशिष्टता और योग्यता की ही भारी माँग रहती है। महान परिवर्तनों के लिए नियोजित हुई महाक्रान्तियाँ भी उच्चस्तरीय नेतृत्व में ही सम्पन्न हुई हैं। यहाँ परिवर्तन की इस विषम वेला में विश्व का अभिनव निर्माण करने के लिए श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के धनी लोगों को आमंत्रित करने की गुहार लग रही हो, तो आश्चर्य ही क्या? महाकाल में प्राणवानों को युगधर्म को पहचानने और आड़े समय में काम आने के लिए इसी प्रकार के आमंत्रण-आह्वान दसों दिशाओं से उठाने आरंभ कर दिये हैं। जिनकी भाव-संवेदना और आदर्शवादी साहसिकता जीवन्त है, वे कुछ कर गुजरने के लिए अग्रिम पंक्ति में खड़े होने की तैयारी भी कर रहे हैं।

जहाँ अध्यात्म ‘वर्चस्’ उभरता है, वहाँ बौद्धिक ‘तेजस्’ और पुरुषार्थ के प्राण ‘ओजस्’ की भी कमी नहीं रहती। पहलवान कसरत करते और पौष्टिक खुराक का सरंजाम जुटाते हैं। विद्वान बनने वाले को उपयुक्त साहित्य और निष्णात् अध्यापकों का आश्रय लेना पड़ता है। रोगियों को पथ्य-पालन और औषधि सेवन को शिरोधार्य करना पड़ता है। आना-कानी करने पर वे असमर्थ रहने की स्थिति से उबर नहीं पाते।

जिन्हें अपने समय का हनुमान, अर्जुन बनाना है, उन्हें अपने को दो कसौटियों पर कसे जाने और खरे उतरने की तैयारी में बिना इधर-उधर झाँके इन्हीं दिनों जुट जाना चाहिए। इनमें से एक है - प्रामाणिकता, दूसरी है - उदारता। इन दोनों विभूतियों से सुसज्जित होने पर उच्चस्तरीय व्यक्तित्व विनिर्मित करने का सुयोग सहज ही बन जाता है। प्रामाणिकता का पर्यायवाची है - आत्म परिष्कार। इसके लिए दुश्चिंतन और अनाचरण से मुक्ति पाना। इसी को तत्वदर्शियों ने लोभ और मोह की हथकड़ी, बेडिय़ों से छुटकारा पाना कहा है। उनने बड़प्पन प्रदर्शन की अहंता को भी तीसरी बाधा बताया है। इन तीन से निपट लेने पर, उन भव–बन्धनों से, कषाय कल्मषों से छुटकारा मिल जाता है, जो पतन, पराभव के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं।

प्रतिभा परिष्कार का दूसरा चरण है -उदारता। इसे भी तपश्चर्या एवं पुण्य-पुरुषार्थ संचित करने की सुनिश्चित क्रिया-प्रतिक्रिया समझा जा सकता है। उसी दृष्टिकोण को अपनाने पर ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के दोनों महामंत्रों की क्षमता व्यावहारिक जीवन में प्रवेश पाती और सामान्य को असामान्य बना देने में पूरी तरह सफल होती है। जिनने अपनी विचारणा को कषाय-कल्मषों से लिप्सा-लालसा से ऊपर उठा लिया है, उनके लिए फिर कोई ऐसा बंधन शेष नहीं रह जाता, जिसके आधार पर युगधर्म अपनाने से आनाकानी करने के लिए बहाना ढूँढ़ा जाय।

प्रामाणिकता का एक ही आधार है-पवित्रतायुक्त निर्दोष जीवन। मानवी गरिमा को महत्व देने वाले व्यक्ति सहज ही अपने दृष्टिकोण को क्रिया-कलाप को औचित्य के राजमार्ग पर गतिशील रखे रह सकता है और हर किसी की दृष्टि में विश्वस्त ही नहीं, श्रद्धा, सम्मान और सहयोग का भाजन भी बना सकता है। ऐसे ही व्यक्ति अपने परामर्श को, कथनी और करनी की एकरूपता के आधार पर इतना सशक्त बना सकता है, कि उन्हें मानने अपनाने के लिए अनेकों को तत्पर पाया जा सके।

उदारता का प्रतीक परमार्थ है। इसी को दूसरे शब्दों में भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाला पुण्य भी कहते हैं। सत्प्रयोजनों के खेत में अपने समय, श्रम और साधनों को बोने वाला साधारण किसानों की अपेक्षा कहीं अधिक नफे में रहता है। किसान के बोये बीज का वाँछित मात्रा में फलित होना कई बार प्रतिकूलताएँ उपस्थित हो जाने पर संदिग्ध भी रहता है, पर उत्कृष्टता के क्षेत्र में बोये गये अपने अनुदानों के फलित होने में किसी को भी घाटा सहन करने की कुण्ठा नहीं भुगतनी पड़ी। इस अध्यात्मवादी कृषि प्रयास में एक दाना बोकर हजार दाने पाने की सुनिश्चितता को कोई भी अनुभव कर सकता है। उदारचेता, आत्मसंयमी महामानवों के इतिहास का हर पृष्ठ यह साक्षी देने के लिए विद्यमान है कि प्रामाणिकता और उदारता की विभूतियां सम्पादित करने वाले सदा ऊँचाई की और तेजी से बढ़ते रहे हैं और ऐसा वातावरण बनाते रहे हैं, जिसको अनन्त काल तक सराहा और स्मरण किया जाता रहे।

नव सृजन की भवितव्यता सुनिश्चित है। उस संभावना में भागीदार होकर गोवर्धन उठाने में लाठी का सहारा देने वाले ग्वाल बालों जैसा अवसर हम सब के सामने भी है। इस अवसर से चूका क्यों जाए? श्रेय के भागीदारों में सम्मिलित होने में झिझकने और संकोच करने की आवश्यकता ही किसी बुद्धिमान को क्यों पड़नी चाहिए।

तैयारी के लिए इतना भर करना पर्याप्त होगा कि प्रामाणिकता, प्रतिभा और उदारता का इतना संचय किया जाय, जिसका अनुभव अपने को हो सके और परिचय सर्वसाधारण को मिल सके। भावनाएँ, मान्यताएँ और आकाँक्षाएँ अन्तराल की गहराई के रूप में अपना परिचय देने लगती हैं। इन प्रवृत्तियों का समुच्चय ही व्यक्तित्व रूप में विकसित होता है। सामर्थ्यवान जिस भी मार्ग पर चल पड़ता है, उसी में असाधारण स्तर की सफलताएँ अर्जित करता चला जाता है।

परिवर्तन की इस महान वेला में उच्चस्तरीय दायित्व जिन्हें सौंपे जाने हैं, जो उत्साहपूर्वक उन्हें अंगीकार और वहन करने वाले हैं, उनमें असामान्यता के कुछ लक्षण तो जाँचे-परखे ही जायेंगे। सोने की जाँच-पड़ताल कसौटी पर कसने और आग में तपाने से होती है। व्यक्ति की गरिमा भी ऐसे ही दो माध्यमों से जानी जाती है, जिनमें से एक है चिंतन चरित्र और व्यवहार में समाविष्ट उत्कृष्टता। यही वह है जिसे पवित्रता, प्रामाणिकता, और वरिष्ठता कहा जाता है और उन्हें कुछ भी दायित्व सौंपने पर ठीक तरह सम्पन्न किया जाने का विश्वास किया जाता है। यही है प्रामाणिकता जिसके आधार पर किसी को भी जनसाधारण की आँखों में श्रद्धास्पद बनने का अवसर मिलता है। ईश्वर तक उन्हें अपने प्रतिनिधि-पार्षद का गौरव प्रदान करता है।

प्रामाणिकता के अतिरिक्त उदारता दूसरा माध्यम है-जिसके आधार पर आदर्शों के प्रति भावभरी निष्ठा को जाँचा-परखा जाता है। प्रामाणिकता शरीर की स्वस्थता, सुन्दरता, के समतुल्य है और उदारता उसकी शोभा-सज्जा। शरीर भले ही कितना ही सुडौल हो, पर वह नग्न स्थिति में होगा, तो उसे अश्लील कहा जायेगा। हीरे का असली होना आवश्यक है, पर उसे चमकाने के लिए खराद पर भी तो चढ़ाया जाता है। वर-वधू विवाह के अवसर पर सुसज्जित परिधान धारण करते हैं। शालीनता, सद्भावना, सदाचरण का होना प्राथमिक आवश्यकता है, पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि समर्थता का उपयोग सत्प्रयोजनों में करने की उदारता में भी कोई कृपणता न की जाय। नवयुग के लिए जिन्हें सृजेताओं की भूमिका निभानी है, उनका चयन प्रामाणिकता और उदारता की प्रवृत्ति अभ्यास में उतरी या नहीं, इसी जांच-पड़ताल के आधार पर उपयुक्त पाया और चयन किया जाएगा। श्रेय लाभ भी उन्हीं के हिस्से में आयेगा।


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