सफलता की जयमाला किसके गले में?

July 1990

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भौतिक क्षेत्र की कई प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाली उपलब्धियाँ हैं। उन्हें योग्यता और तत्परता के आधार पर अर्जित किया जाता है। सम्पदा, बलिष्ठता, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा आदि को पुरुषार्थी अपने पराक्रम और कौशल के आधार पर उपार्जित करते हैं। व्यक्ति यदि स्वयं आलसी प्रमादी, अदूरदर्शी हो तो नया कुछ कमाना तो दूर अपितु जो संग्रह किया हुआ था। वह भी जिस तिस मार्ग से पलायन कर जाता है?

अध्यात्म क्षेत्र की अपनी विभूतियाँ हैं। उन्हें ऋद्धि-सिद्धि नाम से जाना जाता है। महामानव, देवमानव, ऋषि, मनीषी इन्हीं से अलंकृत होते हैं। यह विभूतियां भौतिक सम्पदाओं से किसी भी प्रकार कम महत्व की नहीं होती। वरन् उनकी गरिमा और अधिक बढ़ी चढ़ी होती है। व्यक्तित्ववानों के पीछे-पीछे सम्पदाएँ लगी पड़ती हैं। पर कोई सुसम्पन्न व्यक्ति यदि महापुरुषों जैसी विलक्षणता, सफलता, यशस्विता, सहयोगी, सद्भावना अर्जित करना चाहे तो उसे निराश ही रहना पड़ेगा। अध्यात्मवादी ही महामानव होते हैं। वे अपनी नाव तो पार लगाते ही हैं साथ ही असंख्यों को उस पर बिठाकर नदी की भयानक चौड़ाई को उस पर बिठाकर नदी की भयानक चौड़ाई को पार करते हुए उस पार तक पहुँचाते हैं। उनका यश अमर रहता है। न रहने पर भी उनके अनुकरणीय उदाहरणों के प्रकाश में लोग अपना पथ विनिर्मित करते हैं। विश्व-वसुधा उन्हें पाकर ही धन्य होती है। जबकि भौतिक सम्पदाओं के धनी मात्र अपनी ही साधन सुविधा बढ़ाकर विलासियों, अहंकारियों जैसे उपादान हस्तगत कर पाते हैं। साथ ही दुर्व्यसनों, दुर्गुणों और छीना झपटी के विग्रहों का संकट भी साथ-साथ उभरता, संत्रस्त करता रहता है।

भौतिक सफलताएँ भी अनायास ही किसी के हाथ नहीं लग जाती। इसके लिए आवश्यक योग्यताएँ एकत्रित करनी पड़ती हैं। साधन-उपकरण जुटाने पड़ते हैं। दूसरों का सहयोग लेना पड़ता है। भले ही वह प्रलोभन या दबाव द्वारा ही हस्तगत क्यों न किया गया हों। जो इतना कर पाते हैं वे भौतिक क्षेत्र में किसी कदर सफल हो जाते हैं। जिनसे यह सब करते नहीं बन पड़ता वे आशा लगाये, कल्पना करते रहते ही दिन गुजारते हैं। उन्हें निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

आत्मिक प्रगति के बारे में भी यही बात है। वह किसी देवी, देवता, मंत्र, तंत्र, आशीर्वाद, वरदान, के आधार पर उपलब्ध नहीं होती। यह सब सहायक उपचार हो सकते हैं। आरंभिक यात्रा में उत्साह प्रदान करने और अनुशासन के शिकंजे में कसने के लिए काम आ सकते हैं। पर इन बैसाखियों के सहारे सफलता के उच्च शिखर तक पहुँच सकना संभव नहीं। जो इन उपचार कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लेते हैं वे मंजिल की दिशा में कुछ कदम बढ़ाने के उपरांत थक जाते हैं। निराश होकर वापस लौट आते हैं या फिर असफलता का दोष उन पर मढ़ने लगते हैं जिनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाई गई थीं। ऐसे व्यक्ति पर अवस्था को भी खो बैठते हैं जो कदम बढ़ाने से पूर्व किसी कदर मन में लगाई गई थी। असफलताजन्य निराश की मनःस्थिति में कई लोग ढोंगी-पाखण्डी भी बन बैठते हैं। इससे उतावले लोग अश्रद्धावान भी बन जाते हैं।

प्रगति के तथ्यों को गहराई तक समझ लेना और अभीष्ट दिशा में चलने से पूर्व उसकी आवश्यकताओं को समझ लेना आवश्यक है। अन्यथा भ्रम जंजाल में फँसकर भटकते रहना ही पड़ेगा। न भौतिकवादी भौतिक-प्रगति का आनंद ले सकेंगे और न अध्यात्मवादियों को ही उन सफलताओं के दर्शन होंगे, जिन्हें शास्त्रकारों, आप्तजनों और अनुभवी साधकों ने सौ टंच खरा कहा है।

उपरोक्त दोनों ही क्षेत्रों में असाधारण सफलता प्राप्त किये अनेकानेक लोगों के उदाहरण सामने रहते हैं। विपन्न साधनहीन परिस्थितियों में जन्मे, पले लोग किस प्रकार चकाचौंध उत्पन्न करने वाली सफलता प्राप्त कर सके इसके उदाहरण भी कम नहीं हैं। यदि उन उदाहरणों की भरमार न रही होती तो समान मनोबल वालों को कदाचित उस ओर चल पड़ने का साहस भी न हुआ होता और गये गुजरे लोगों की तरह किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे करते रहते। उदाहरण की उत्साह उत्पन्न करते हैं। उत्साह के बल पर ही पुरुषार्थ बन पड़ता है। पुरुषार्थ के सहारे ही सफलता की ऊँची मंजिल तक पहुँचा जा सकता है।

यही सिद्धान्त अध्यात्म क्षेत्र में भी लागू होता है। इस मार्ग का अवलम्बन भी इसीलिए बन पड़ता है कि अनेक सफल अध्यात्मवादियों के उदाहरण सामने रहते हैं। राजा हरिश्चन्द्र का नाटक गाँधी जी ने बचपन में देखा था। उससे उन्हें इतनी प्रेरणा मिली कि उसी मार्ग को अपनाने के लिए निश्चय कर लिया। विनोबा प्रभृति अनेकों सर्वोदयी कार्यकर्ता वस्तुतः गाँधी जी के ही मानस पुत्र थे। साँचे के बिना वस्तुएँ ढलती नहीं। उदाहरणों के अभाव में सामान्यजनों को दुस्साहसपूर्ण कदम बढ़ा सकना संभव नहीं होता। मनोविनोद तो लोग अपनी मन मर्जी से भी कर लेते हैं। पर पर्वतों की ऊँची चोटी पर चढ़ने के लिए साधनों, जानकारियों और प्रेरक उदाहरणों की तलाश करनी पड़ती है। इसके बिना कोई पर्वतारोही बनने के लिए मन चलाता तो रह सकता है पर वैसा कुछ कर सकने में समर्थ नहीं होता।

महत्वपूर्ण क्षेत्रों की महत्वपूर्ण प्रगति के लिए प्रत्यक्ष साधनों के अतिरिक्त परोक्ष विशेषताओं को भी कमाना, अपनाना और उन्हें आधार अवलम्बन बनाना पड़ता है। सफल जीवन जीने वाले मनुष्यों में से प्रत्येक की अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ रही हैं। वे डडडडडडडडड व्यंजनों की तुलना में अधिक मनस्वी रहे हैं। इनके संकल्पों में दृढ़ता रही है। लक्ष्य पर से उनकी दृष्टि कभी हटी नहीं है। वे यह सोचते और करते रहे हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में, वर्तमान साधनों से क्या कुछ किया जा सकता है। जो संभव था उसे कर गुजरने में उन्होंने देरी नहीं की। निराशा को पास नहीं फटकने दिया। कठिनाइयों से जूझते रहे। अवरोध बीच में आते रहने पर उनने न तो प्रयास छोड़ा और न घबरा कर निराश हो बैठने का अवसर आने दिया ऐसे ही लोग हैं जो आत्म विश्वास के आधार पर अवरोधों से जूझते हुए दूने उत्साह के साथ निर्धारित लक्ष्य की ओर गतिशील रहते हैं।

सफलता की राजकुमारी हर किसी के गले में जयमाला नहीं पहनाती। उसकी प्रतिभा को हजार कसौटियों पर कसती है। जब अपने लिए किसी प्रतिभाशाली को सुयोग्य मान लेती है तभी उसे अपना हाथ थमाती है। मसखरे, बहुरूपिये ऐसा स्वाँग तो बना सकते हैं। मन न मानता हो तो नाटक के स्वयंवर में किसी नट को राजकुमारी बनाकर उसके हाथों तत्काल जयमाला भी पहन सकते हैं। पर बहुमूल्य उपलब्धियों के लिए तो बढ़े-चढ़े प्रयास ही करने पड़ते हैं। अर्जुन को द्रौपदी स्वयंवर जीतने के लिए मत्स्यवेध की दीर्घकालीन साधना मनोयोगपूर्वक करनी पड़ी थी। हर सफलता प्राप्त करने के आकाँक्षी को चाहे वह किसी भी क्षेत्र की ही हो, ऐसी ही एकाग्रता भरा मनोयोग जुटाना पड़ता है।


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