राजयोग के विभिन्न प्रयोगों का स्पष्टीकरण

July 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अष्टाँग योग नाम से जा जाने वाला राजयोग यों स्थूल क्रिया कृत्यों के साथ भी जुड़ा हुआ है, पर उनका वास्तविक उद्देश्य चेतना के अन्तरंग क्षेत्र को पवित्र एवं प्रखर बनाना है। शारीरिक क्रिया-कलापों का भी यों चेतना पर प्रभाव पड़ता है, पर साथ में सिद्धान्तों, आदर्शों का उसके साथ सघन समन्वय भी होना चाहिए। यदि उसकी उपेक्षा की जाय और मात्र कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लिया जाय, तो उतने भर से अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती।

शरीर का अपना महत्व है, उसके क्रिया-कलापों का भी। इतने पर भी यह मानना पड़ेगा कि अध्यात्म क्षेत्र में क्रिया की अपेक्षा भावना का महत्व असंख्य गुना अधिक है। भावनाविहीन भक्ति का कोई मूल्य नहीं। देव प्रतिमाएँ बनती तो धातु-पाषाण आदि जड़ पदार्थों की हैं, पर उनमें चेतना का समावेश भक्त की सघन श्रद्धा के अनुरूप होता है। यदि श्रद्धा न हो, तो वे दुकानों पर रखे खिलौनों से बढ़कर और कोई अतिरिक्त प्रभाव दिखाने में समर्थ नहीं होते। यही बात मंत्र, अनुष्ठान, पूजन, अर्चन आदि के संबन्ध में भी है। उनकी शक्ति-सामर्थ्य उसी अनुपात से घटती-बढ़ती रहती है, जैसी कि उपासक की भावना गहरी-उथली होती है। आध्यात्मिक साधनाओं में से प्रत्येक का यही स्वरूप एवं यही प्रतिफल है। जो मात्र कर्मकाण्डों को ही साधना मान बैठते हैं, वे भूल करते हैं। शारीरिक अथवा पदार्थपरक क्रिया-कृत्यों का मूल्य नगण्य ही होता है। श्रमिक दिन भर काम करके थोड़ा-सा पारिश्रमिक पाते हैं, फिर कुछ समय तक किये जाने वाले जप-ध्यान आदि का कोई बड़ा माहात्म्य या मूल्य कैसे हो सकता है? इतने पर भी जिनका यही आग्रह है कि अमुक जप या पूजन की असाधारण महत्व होना चाहिए, उतने भर से बढ़ी-चढ़ी सिद्धियाँ मिलनी चाहिए, उनकी मान्यता फलीभूत नहीं होती। उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। आशा के अनुरूप फल तो श्रद्धासिक्त भावना ही प्रदान करती है।

राजयोग की सभी साधनाओं के संबन्ध में यही बात है यम-नियम जीवन के चिन्तन-चरित्र एवं आचरण में उतारने पड़ते हैं। आसन व्यायाम नहीं, वरन् आसन जमा कर बैठना है। रसोई भी आसन पर बैठकर की जाती है। बाल-चाल की भाषा में किसी कार्य के लिए दृढ़तापूर्वक आरूढ़ होना भी आसन लगाना या आसन जमाना है। प्राणायाम प्राणवान बनने के लिए किया जाता है। प्राणवान अर्थात् मनस्वी-मनोबल सम्पन्न।

इसी प्रकार प्रत्याहार को संघर्षशीलता कहते हैं। गीता में अर्जुन को जिस युद्ध के लिए प्रेरित किया गया है, वह वस्तुतः आत्मिक क्षेत्र का युद्ध ही है। मारकाट वाली लड़ाई के लिए गीता जैसे आत्मिक प्रवचन की आवश्यकता नहीं थी। वह प्रत्याहार ही है, जिसे गीतोक्त महाभारत नाम दिया गया है। यह धर्मक्षेत्र में- कर्मक्षेत्र में लड़ा जाता है। संचित कुसंस्कारों एवं हेय प्रचलनों के आकर्षणों, दबावों को अस्वीकार करना ही प्रत्याहार है।

अब तीन प्रयोग और शेष रहते हैं- धारणा, ध्यान और समाधि। धारणा का तात्पर्य है- मान्यता, स्थापना, स्वीकृति, निष्ठा। आदर्शों के विषय में यही तथ्य लागू होता है। आदर्शों को तर्क और तथ्य के आधार पर तो सहज ही स्वीकारा जा सकता है, पर जिस आदर्श को श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा के आधार पर हृदयंगम किया गया हो, फलित केवल वही होता है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता के त्रिविध आदर्श प्रमुख हैं। ईश्वर पर विश्वास, आत्मक्षमता पर विश्वास, कर्तव्य कर्मों के दायित्व पर विश्वास - इन तीनों के विश्वास को धारणा कहते हैं। यों साधारणतया किन्हीं देवी-देवताओं, मंत्रों, गुरुजनों, शास्त्रों पंथों आदि पर विश्वास करना भी धारणा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। एक शब्द में धारणा को विश्वास भी कह सकते हैं।

ध्यान का तात्पर्य है - अभीष्ट निर्धारण का बार-बार चिन्तन करना। इससे मान्यता परिपक्व होती। भूली हुई बातों का स्मरण भी ध्यान के आधार पर हो आता है। अपने आदर्श का, लक्ष्य का, निश्चय का बार-बार स्मरण करने से वह आस्था के रूप में परिणत हो जाता है। यों किसी चित्र का, प्रतिमा का, व्यक्ति का, कल्पना-सपनों का इच्छानुसार ध्यान किया जाता है। नाद-योग में शब्दों का, मेरुदण्ड में षट्चक्रों का, मस्तिष्क में ब्रह्मकमल का, मूलाधार में कुण्डलिनी का ध्यान किया जा सकता है। मस्तिष्क में ड़ड़ड़ड़ हृदय में विष्णु ग्रंथि, नाभि में रुद्र ग्रंथि के ध्यान का विधान है। श्वास-प्रश्वास के साथ सोऽहम् ध्वनि की ध्यान-धारणा की जाती है। इसी प्रकार और भी योग संप्रदायों में कई-कई प्रकार के ध्यानों का निर्धारण है, विचार-चेतना को केन्द्रीभूत करने की साधना है। इन्हीं माध्यमों से मन एकाग्र होता है, बिखरी शक्तियों के केन्द्रीकरण का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है।

अष्टाँग योग की अन्तिम स्थिति है - समाधि। उसके दो पक्ष हैं- एक सविकल्प समाधि, दूसरी निर्विकल्प समाधि। सविकल्प में चिन्तन बना रहता है और निर्विकल्प में चेतना शून्य स्थिति आ जाती है।

समस्त शरीर पर मस्तिष्क अपना अधिकार जमाये हुए है। इच्छाशक्ति के साथ सुदृढ़ संकल्प करके योगीजन शरीर के किसी भी अवयव को मंद गति शिथिल एवं अवरुद्ध कर देते हैं। देखा गया है कि इस मार्ग में क्रियाकुशल साधक हृदय की धड़कन बन्द कर देते हैं, रक्त प्रवाह और श्वास-प्रश्वास का क्रम अवरुद्ध कर देते हैं। प्राण ब्रह्माण्ड में चढ़ जाता है, तो काया निश्चेष्ट हो जाती है। यों इस स्थिति में भी जीवन बना रहता है। शरीर को सुरक्षित रखकर मनःचेतना को लक्ष्य पर केन्द्रीभूत कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति आने पर भूमि समाधि भी ली जा सकती है। कई लेते भी हैं, पर वस्तुतः इसकी आवश्यकता नहीं है। मात्र प्रचार विज्ञापन होता है, जिससे साधक का लक्ष्य की तन्मयता से ध्यान बँटता है और ब्रह्मपरायणता का प्रयोजन दूर हटता जाता है। इस निर्विकल्प समाधि में खतरा भी है। यदि प्राण को ब्रह्माण्ड में चढ़ा तो लिया जाय, पर उतारना संभव न हो सके, तो उससे प्राण-हानि होने का संकट उत्पन्न हो जाता है। सविकल्प समाधि ही जोखिम से रहित है। उसमें बिना मार्गदर्शक के भी क्रमशः एकाग्रता परिपक्व की जाती रहती है और एक दिन ऐसी स्थिति आ जाती है कि चित्त संसार प्रयोजनों से वितर होकर परमात्मसत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित कर ले।

लौकिक जीवन को पारलौकिक, पारमार्थिक बना लेना भी समाधि है। आत्मा को ईश्वर के अंश रूप में देखना-संसार के प्रति विराट ब्रह्म की मान्यता रखना और क्रिया-कलापों को ऐसा बना लेना कि वे स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं, परमार्थ प्रयोजन की पूर्ति के लिए किये जा रहे हैं वो इसे भी समाधि का ही एक अन्य रूप कहा जा सकता है। आत्मसत्ता के स्वरूप, प्रयोजन एवं उपयोग के संबन्ध में तत्वदर्शी ज्ञान भूमिका का रहना समाधि भावना का ही एक स्वरूप है। अपने को ईश्वर का अंश- युवराज मानना- चरित्र चिन्तन और व्यवहार को उच्चस्तरीय रखना गतिविधियों को विश्वउद्यान को समुन्नत बनाने में लगाये रहना, प्रकारान्तर से समाधि अवस्था ही है। सम्यक् + धी = समाधि। बुद्धि तत्व को दूरदर्शी विवेकशीलता में नियोजित रखे रहना है, ऋतम्भरा प्रज्ञा है। इसी को भूमा या तुर्या कहते हैं। योगी-तपस्वी इसी स्थिति में अपनी चेतना को बनाये रहते हैं। यद्यपि शरीर धर्म के अनुरूप नित्यकर्मों की, निर्वाह-व्यवस्था की गतिविधियाँ उन्हें भी सामान्य जनों की तरह सम्पन्न करनी पड़ती हैं। शरीर जब तक जीवित है, तब तक उसके लिए निर्वाह साधन तो जुटाने ही पड़ेंगे, पर राजयोग का योगी अपनी आत्मिक विशिष्टता को बनाये रहता है और समाधि लाभ सहित विभूतिवान जीवन जीता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles