भारत की अखण्डता एकता का स्वप्न द्रष्टा

July 1990

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रात्रि के सघन अन्धकार में एक युवा अपनी कुटिया में टिमटिमाते दीपक के सामने बैठा कुछ पढ़ रहा था। पढ़ते-पढ़ते किसी गम्भीर सोच में डूब जाता। माथे पर चिन्ता की रेखाएं उभर आती। तब तक दूसरे कोने से एक वृद्धा के खाँसने की आवाज उभरी। खाँसते बुढ़िया ने पूछा अरे बेटा! तू अभी सोया नहीं, क्या सोच -सोच कर परेशान हो रहा है।

“नहीं माँ। सोना चाहकर भी नहीं सो पा रहा।”युवक के स्वरों में पीड़ा थी। उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा-कहाँ वेदों में वर्णित भारत (अजनाभ वर्ष) की भव्यता। ऋषितन्त्र और राजतंत्र का समन्वित गौरव। कहाँ आज-चारों ओर टकराहट, देश का एक भाग दूसरे से बड़े-बड़े पत्थरों की तरह एक दूसरे से टकरा रहे है। इनकी टकराहटों में जन सामान्य बुरी तरह पिस रहा है। ओह! आज कोई ब्राह्मण तपस्वी नहीं बचा जो इस टूटते बिखरते देश को सँवार सकें।

वृद्धा अपने युवा पुत्र की चिन्ता को सुनती रही। सुनने के पश्चात् बोली “ न जाने क्या सोचा करता है। अरे तू विवाह कर ले? मैं भी तेरी बहू का मुख देख लूँ।” “ नहीं यह मेरे से न होगा माँ! मेरा सुख विवाह में नहीं सबके सुख में समाया है। “ “ अच्छा”कहकर वृद्धा चली गयी वह फिर अपने चिन्तन में डूब गया।

उसके दिन रात इसी सोच में बीतने लगे। इसी बीच वृद्धा माँ भी चल बसी। अब वह एकाकी था। इसी समय पता चला कि यूनान देश का राजा सिकन्दर अनेक देशों को कुचलता - रौंदता भारत की सीमा पर आ पहुँचा है। तक्षशिला के राजा आम्भि ने उसका स्वागत किया। देशभक्त पुरू के विरोध में उसकी मदद की। कुछ छोटे छोटे राज्यों को उसने जीत भी लिया था।

इन जीते हुए राज्यों में यवन सैनिकों और शासकों ने जो अत्याचार किये उसे देखकर उसका दिल दहल गया। भारतीय सभ्यता और संस्कृति को इस प्रकार लुटते देखकर झोपड़ी में रहने वाले उस ब्राह्मण की आत्मा तड़प उठी। देश का अपमान तथा बहू बेटियों की लुटती अस्मत को वह चुप बैठ कर देख न सका। उसने प्रतिज्ञा की कि इन अत्याचारियों के व्यूह को ध्वस्त कर ऋषितन्त्र व राजतन्त्र के समन्वित स्वरूप की स्थापना करूंगा। एक बार पुनः इस धरती पर सतयुग ला कर रहूँगा।

उस समय देश में मगध का राज्य अपेक्षाकृत शक्तिशाली और बड़ा था। यद्यपि वहाँ का राजा घनानन्द खुद भी अत्याचारी था फिर भी युवक को आशा थी कि शायद देश के गौरव की रक्षा के नाम पर वह कुछ कर सके। बस इसी आशा में तक्षशिला से मगध अर्थात् पेशावर से पाटलिपुत्र की पदयात्रा शुरू कर दी। रास्ते में जन सामान्य की दीनता, पीड़ा कराहों को सुन कर उसका सत्ययुग के अवतरण का संकल्प वज्रक्त दृढ़ हो जाता। पर घनानन्द के दरबार में पहुँच कर भी उसे असफलता हाथ लगी। विलासी भला संवेदना के स्वरों को कब सुनते हैं? किन्तु इस असफलता के बाद भी वह दुगुने उत्साह के साथ सत्पात्र की खोज में जुट गया।

वह एक गाँव से निकला चला जा रहा था कि देखा कुछ लड़के खेल में मग्न हैं वे आँख-मिचौनी, आइस पाइस नहीं राज्य व्यवस्था का खेल रहे हैं। युवा ब्राह्मण खड़े देखते रह गये राजा बने बालक का कौशल। उसकी तत्परता,कुशलता अन्य सभी के प्रति प्रेम भाव देख कर उन्हें लगा इस किशोर में वे सभी सद्गुण बीज रूप में विद्यमान हैं जिनकी उन्हें खोज थी। इसके माध्यम से ब्रह्म तेज अर्थात् उत्कृष्ट चिन्तन और क्षात्र तेज अर्थात् प्रखर कर्म का समन्वय किया जा सकना सम्भव है।

वह बालक की माँ से मिले। अपने उद्देश्य से उसे अवगत कराया और बालक की माँग की। आपका परिचय?लड़के की माँ का प्रश्न ठीक ही था। भला अनजाने आदमी को कौन अपने हृदय का टुकड़ा सौंपता। ब्राह्मण ने संक्षेप में अपना परिचय दिया। मैं तक्षशिला विश्व विद्यालय का आचार्य चाणक्य हूँ। तक्षशिला और चाणक्य इन दो नामों को समूचा भारत जानता था। इनकी प्रामाणिकता में किसी को भी कोई सन्देह न था। आचार्य के सुयोग हाथों में बालक को सौंपने में उसे कोई हिचकिचाहट न हुई।

चाणक्य ने उसे पढ़ाया लिखाया, उच्च चरित्र बल से सम्पन्न किया। विन्ध्यवासी दस्युओं को धर्म व देश के नाम पर संगठित किया। सीमावर्ती जन पदों में अपने - शत- सहस्र विद्यार्थियों के द्वारा जनजाग्रति का शंख फूँका। लाखों जन युगान्तरकारी परिवर्तन के लिए आ जुटें। यवनों को निकाल बाहर किया। सेल्यूकस की पराजय मगध के क्लीव व्यवस्था के स्थान पर चन्द्रगुप्त के नायकत्व में अखंड बृहत्तर भारत की, स्थापना की पर इतना भर करके आचार्य ने अपने कार्य को विराम नहीं दिया।

उनका यथार्थ कार्य तो अब शुरू हुआ। दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन के बाद सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन बृहत्तर अखण्ड भारत का संस्थापक यह ब्राह्मण अभी भी कुटिया सेवी था सारे समय उनका एक ही कार्य था। मानवों में सुप्त सम्वेदना को जगाने उमगाने के लिए चिन्तन व श्रम। इसी के तहत उन्होंने कौटिल्य के नाम से अर्थशास्त्र व्यक्ति व समाज में नैतिक साहस जगाने के लिए चाणक्य नीति। इसको सुबोध बनाने के लिए विष्णु शर्मा के नाम से पंचतंत्र की रचना की।

उन्हीं के प्रयास थे कि मैगस्थनीज को विवश हो कहना पड़ा “ भारत धरती का स्वर्ग है और यहाँ के नागरिक जीवन्त देवता। हरेक के उन्नत चरित्र बल के कारण घरों में ताले तक जरूरी न थे। किसी महिला को भयभीत न होना पड़ता था। “ उसने एक अन्य स्थान पर आश्चर्य प्रकट करते हुए लिखा “ जहाँ सामान्य जन भव्य भवनों में निवास करता हों, वहाँ का प्रधान मंत्री सम्राट का गुरु एक टूटी झोपड़ी में निवास करता हैं।

यह था उनका त्याग। श्रेय और सम्मान से निस्पृहता। निष्कामता -कर्म योग और अनासक्ति की वह सम्पत्ति जिसके बल पर वह आज से बाईस सौ वर्ष पहले धरती पर स्वर्ग का अवतरण कर सकने में सक्षम हुए

इतिहास अपने को दोहराता है। आज की स्थिति कितनी ही टूटी -बिखरी बदतर क्यों न लगे पर चाणक्य के कार्य के प्रारम्भ के समय से कही अच्छी है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण जिसे चाणक्य ने चरितार्थ किया था, पुनः मूर्त होने को है।

इस महत्तर कार्य में अपनी भूमिका तलाशें क्रियापद्धति आज की परिस्थिति के अनुरूप बदली हुई लगने पर भी सारतः समान है। आज भी जन जाग्रति की आवश्यकता है। जागरण शंख को गली-गली दरवाजे -दरवाजे जाकर फूँकने में जुट पड़ने की आवश्यकता है। अब युग की भाव धारा से स्वयं अनुप्राणित करने में सहायक बनाना ही अभीष्ट है।


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