समर्थ का आश्रय ले

October 1987

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जीवन स्थिर नहीं। उसके साथ जुड़ी हुई सुविधाओं का भी कोई ठिकाना नहीं। हँसना बचपन बोझिल जवानी की ओर बढ़ता है और कहार भरे बुढ़ापे में बदल जाता है। सम्पदा भी सदा किसका साथ देती है और मित्र, सहयोगी भी पानी के बबूले की तरह उछलते और समय के साथ आगे चले जाते हैं। अनुकूलताएँ सदा नहीं रहतीं। समय के बाद वे भी प्रतिकूलता में बदल जाती हैं। सूरज, चाँद तक जब स्थिर नहीं तो और किससे सदा साथ देने की आशा की जाय? जब शरीर तक साथ छोड़ जाता है, तो स्वजन सम्बन्धियों से ही कब तक साथ देने की आशा की जाय?

स्थिर इस संसार में एक ही है, जिसे धर्म कहते हैं। धर्म ही ईश्वर है। ईश्वर अर्थात् मानवी गरिमा के अनुरूप अपने को ढोलने के लिए विवश करने की व्यवस्था। यही है ईश्वर का आश्रय और धर्म का अवलम्बन। इन्हीं में सदा साथ देने और विश्वासपूर्वक मैत्री निबाहने की क्षमता है। वे इतने सुदृढ़ और अटल है कि संसार का कोई अंधड़ उन्हें डगमगाने में समर्थ नहीं।

जिस-तिस का आश्रय तकने और साथ निबाहने की आशा-अपेक्षा व्यर्थ है। जो स्वयं अस्थिर हैं, वे दूसरे किसका और कब तक साथ निभा सकेंगे। इस सृष्टि में मात्र धर्म और ईश्वर ही स्थिर व समर्थ हैं, जिन्हें अपनी परिष्कृत अन्तरात्मा में पाया जा सकता है। उन्हीं का आश्रय अपनाना बुद्धिमत्तापूर्ण है।


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