धर्म धारणा-प्रगति का एक सनातन राजमार्ग

October 1987

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जीवन उतना जटिल नहीं जितना कि बन गया है या बना दिया गया है। हँसी-खुशी की सम्भावनाओं से वह भरा-पूरा है। शरीर और मन की संरचना इस प्रकार हुई है कि वह बाहर से तनिक से साधनों की सुविधा प्राप्त हो जाने पर सहज ही स्वस्थ और सुखी रह सकता है। अति स्वल्प साधनों से अन्य जीवधारी अपना संतोषपूर्ण व्यवस्था क्रम चलाते रहते हैं, न उन्हें रुग्णता सताती है और न खिन्नता। यदि उन्हें सताया न जाय तो शरीर यात्रा की प्रचुर परिणाम में उपलब्ध साधन सामग्री से ही अपना काम चला लेते हैं और हँसी खुशी के दिन काटते हैं।

मनुष्य को यह सुविधा और भी अधिक मात्रा में उपलब्ध है। उसका अस्तित्व एवं व्यक्तित्व इतना समर्थ है कि न केवल शारीरिक सुविधा की सामग्री वरन् मानसिक प्रसन्नता की परिस्थिति भी स्वल्प प्रयत्न से प्रचुर मात्रा में प्राप्त कर सकती है। इतने पर भी देखा यह जाता है कि मनुष्य खिन्नता और अतृप्ति से ही घिरा रहता है। आधियों और व्याधियों की घटाएँ उस पर छाई रहती है।

सौभाग्य जैसे समस्त साधन प्राप्त होने पर भी दुर्भाग्य की जलन में झुलसते रहने के पीछे एक ही कारण ढूँढ़ा जा सकता है कि सहज सरल रीति-नीति को छोड़कर हम जाल-जंजाल भरी विद्रूप विडम्बनाओं में उलझ गये और अपना मार्ग स्वयं कंटकाकीर्ण बना लिया। धर्माचरण का सहज राजमार्ग छोड़कर विपरीत आचरण अपना लिया। परिणाम स्वरूप असंतोष एवं रोग, शाक, युक्त जीवन जीने को बाध्य होना पड़ रहा है।

ऐलिस ने ठीक ही कहा है- “मनुष्य के मन और शरीर को आधि-व्याधियों ने इसलिए घेरा है कि उसे धर्म का समुचित संरक्षण नहीं मिला। यदि आहार निद्रा की तरह धर्म को भी जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया होता तो हम शोक-सन्तापों की विविध-विधि व्यथायें सहने से सहज ही बच सकते थे।”

सन्त आगस्टाइन ने मानव की मानव के प्रति कर्त्तव्य घोषणा को धर्म माना है। सेन्टपाल का कथन है कि पतन के गर्त से उत्थान के शिखर पर चढ़ने की सीढ़ी को धर्म कहना उपयुक्त होगा।

हेम्रोज ने धर्म को दो धाराओं में विभक्त किया है- एक आस्था मूलक दूसरी व्यवहार परक। आस्था की स्थापना ‘अध्यात्म’ के आधार पर होती है और आचरण -व्यवहार का समीकरण धर्माचरण पक्ष द्वारा किया जाता है। दोनों के समन्वय को धर्म कह सकते हैं। ईश्वरवाद के सहारे ही धर्म सिद्धान्तों की व्याख्या और पुष्टि की जा सकती है।

विलियम ब्लैक ने-धर्म को आत्मा का कवित्व कहा है वे कहते हैं - “पुराणों के अलंकार में परियों की गाथाएँ और जादुई किंवदंतियों भी पड़ी है। इन सबका सार निष्कर्ष” यह है कि आत्मा की भाव सरिता यदि उत्कृष्टता की दिशा में बह निकले तो उसका प्रतिफल व्यक्ति और समाज के लिए उतना ही सरस और आकर्षक हो सकता है “जैसा कि देवताओं का सौंदर्य, वैभव और कर्त्तव्य।”

ल्यूबा ने धर्म को एक सनातन राजमार्ग बताया है। जिस पर धीरे-धीरे चलते हुए मनुष्य जाति विकास के वर्तमान स्तर तक पहुँचने में समर्थ हुई है और भविष्य में अधिक कुछ पाने की आशा कर सकती है।

वस्तुतः सहज स्वाभाविकता का नाम ही धर्म है और इसके विपरीत आचरण अधर्म कहलाता है। वैयक्तिक और सामाजिक कर्तव्यों को जो सही तरह समझता है और सही तरह पालन करता है। उसे स्वल्प साधनों में भी तुष्ट-पुष्ट और प्रगतिशील देखा जा सकेगा। धर्म की धारणा निश्चित रूप से सुख शान्ति के प्रतिफल प्रदान करती है।


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