सरलतम और समग्र शक्तिवान “ॐ कार”

October 1987

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मंत्र साधना करने वाले साधक को जिन बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना होता है, उसमें प्रधान यह है कि मंत्रोच्चारण की ध्वनि शुद्ध हो। इसकी जाँच पड़ताल किसी अनुभवी से करा लेनी चाहिए। ईश्वर प्रार्थना के रूप में राम का नाम सीधा उल्टा, सही गलत किसी भी रूप में किया जा सकता है, पर मंत्रोच्चार में उसकी ध्वनि शुद्धता आवश्यक है। सितार के तारों का गठन और अंगुलि चालन यदि सही हो तो ही उसमें से अभीष्ट राग, रागनियाँ निकलते हैं। ओंधे किसी भी प्रकार कुछ भी बजाने लग जाय तो उसमें से बेसुरी कर्कशता ही निकलेगी। यह बात मंत्रोच्चार की शुद्धता के सम्बन्ध में भी है।

कौन व्यक्ति किस प्रयोजन के लिए किस मंत्र की साधना करें। इसका निर्धारण अपनी मन-मर्जी से नहीं कर लेना चाहिए और न पुस्तकीय उल्लेखों को आत्यंतिक प्रमाणभूत मानना चाहिए। चिकित्सा शास्त्र के अनेकों ग्रंथ औषधि निर्माण का विधान एवं सेवन का उपचार बताने वाले है। इस पर भी रोगी की विशेष स्थित को जाँचकर तद्नुरूप औषधि का निर्धारण करने में अनुभवी चिकित्सक की सलाह लेनी पड़ती है। यदि ऐसा न किया जाय तो कोई भी रोगी बाजार से पुस्तक या दवा खरीद कर अपना इलाज आप करने लगे। इच्छित मात्रा में इच्छित औषधि खाने लगे तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। इसलिए सार्वजनिक प्रार्थनाओं को छोड़कर यदि मंत्र विद्या में गहराई तक प्रवेश करना है और अभीष्ट लाभ प्राप्त करने का लक्ष्य रखना है, तो अपने मनोरथ के अनुरूप मंत्र के चयन एवं प्रयोग के विधान में किसी अनुभवी का परामर्श लेना चाहिए। अपनी स्थिति एवं कामना के अनुरूप मंत्र का चयन, विधान एवं उच्चारण सही करना चाहिए।

उच्चारण के अतिरिक्त जो बात ध्यान रखने की है, वह है व्यवहार शुद्धि। मंत्र साधक का आहार-विहार सात्विक ही नहीं सीमित भी होना चाहिए। इसी को व्रत उपवास की परिधि कहते हैं। यह प्रक्रिया संयम साधना के अंतर्गत आती है। जिसका प्रारम्भ आहार शुद्धि से होता है और आगे बढ़कर चरित्र शुद्धि तक पहुँचता है। दुराचारी, अनाचारी, कुकर्मी, व्यक्ति अपने उद्धत आचरणों से इतनी प्रतिकूल प्रतिक्रिया काय कलेवर में अर्जित कर लेते हैं कि उस पर मंत्र साधना का प्रभाव उतना ही पड़ता है, जितना जलते तवे पर पानी की कुछ बूँदों का।

आध्यात्मिक उपचारों का विधि विधान ही समुचित नहीं होना चाहिए, वरन् उसके प्रयोक्ता का व्यक्तिगत चरित्र-चिन्तन भी परिष्कृत स्तर पर होना चाहिए। अभक्ष्य खाने वाले, बहुभक्षी, नशे वाले, व्यभिचारी, दुराचारी स्तर के व्यक्ति प्रायः उपयुक्त साधना विधान अपनाने पर भी असफल रहते देखे गये हैं। उनकी विद्रूप मानसिकता एवं उच्छृंखलता क्रियाशीलता यदि रुके नहीं तो मलीनता की मात्रा एवं इतनी अधिक संचित होती जाती है, जो साधना के स्वल्प प्रयास को भी अपने तूफानी झोंके में उड़ा ले जाय। इसलिए मंत्र योगी को आहार विहार की सात्विकता संयमशीलता बनाये रहने के लिए विज्ञजन दबाव या निर्देश करते रहे हैं विशेषतया आहार की सात्विकता बढ़ाने और मात्रा घटाने के के पलिए। भूख से कुछ कम और नियत समय पर सात्विक आहार करने से भी उपवास का काम चलाऊ उद्देश्य पूरा हो जाता है। इस हेतु अस्वाद व्रत बिना नमक शक्कर मिला भोजन भी प्रशंसनीय है। अमृताशन उबला हुआ खिड़की जैसे प्रस्तुतीकरण को भी अन्न की तुलना में कुछ अधिक ही रखा जाय। खाने के समय तो नहीं पर बाद में पानी की मात्रा भी पर्याप्त रखी जाय। जिससे कचरे की धुलाई ठीक प्रकार होती रहे।

तीसरी बात है- मंत्र की सशक्तता एवं प्रमाणिकता पर अटूट विश्वास। विश्वास को साधना का प्राण कहा गया है। उसके अभाव में संदेह छाया रहता है और उपयुक्त परिणति की संभावना बड़ी मात्रा में नष्ट हो जाती है। विश्वास अपने आप में एक शक्ति है। उसके आधार पर सिद्ध पुरुषों द्वारा दी हुई “भस्म” भी जादू जैसा प्रभाव दिखती देखी गई है। जिजीविषा के प्रबल रहने पर मरणासन्न व्यक्ति भी मौत को परास्त करते देखे गये हैं। स्वयंकेतों का-स्वयंवेदनों का-एक स्वतंत्र शास्त्र ही विकसित हुआ है, जिसमें व्यक्ति की अपनी प्रकृति की, सुधार की, उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित अवधारणा करनी पड़ती है। विश्वास द्वारा उत्पन्न ऊर्जा अनेकानेक विपन्नताओं को परास्त करती देखी गई है। इस अवलम्बन को मजबूती से पकड़े रहने वाले आशावादी साधनों के अभाव में भी ऊँचे उठते, आगे बढ़ते देखे गये हैं। “एकला चलोरे” का संकल्प उस साहसिकता का द्योतक है। जिसमें उपयुक्त सहयोग एवं साधन न मिलने पर भी आत्म विश्वास के सहारे कदम उठाते हैं और अभीष्ट तक पहुँचाने वाला प्रयास निर्वाध गति से अनुगामी बनता है। सफल होकर रहता है।

रस्सी का साँप, झाड़ी का भूत, बतलाने जैसे उदाहरणों में अवास्तविकता विश्वास के आधार पर सत्य बनकर अपना दुष्प्रभाव दिखाती देख गई है। कथा प्रसिद्ध है कि यमराज ने मृत्यु को पाँच हजार व्यक्ति मार लाने के लिए भेजा। अब वह पन्द्रह लाख लेकर लौटी तो जवाब-तलब हुआ कि आदेश से अधिक बटोरने की आवश्यकता क्यों की गई? तो मौन ने कहा- मैंने तो नियत संख्या में ही मारे। पर अन्य लोग आशंका, कुकल्पना और भीरुता के कारण डर के मारे स्वयं मर गये और परलोक आने वालों की भीड़ में सम्मिलित हो गये। “होता ऐसा भी है कि संकल्पों की दृढ़ता एवं दुर्बलता अपने आप में एक तथ्य भरी शक्ति बन जाती है और ऐसे परिणाम दिखाती है जिसे आश्चर्यजनक कहा जा सके। शास्त्रकार ने श्रद्धा विश्वास को भवानी शंकर की उपमा दी है। इसे मनगढ़ंत नहीं, सचाई जैसी वास्तविकता समझा जाना चाहिए। इस आधार पर हित साधन भी होता है और अनर्थ में जकड़ा भी जाता है। मंत्र साधन में विशेष रूप से इस तथ्य को समझा और सम्मिलित किया जाना चाहिए कि विश्वासी को मंत्र साधन की सहज सफलता प्राप्त करते देखा गया है, जबकि अविश्वासी का सही मंत्र और सही प्रयोग भी अनेक बार असफल रहते देखा गया है।

कौन व्यक्ति किस प्रयोजन के लिए, किस मंत्र साधना किस प्रकार करें? यह एक विशेष निर्धारण है। इसके लिए परीक्षक एवं निर्धारक ऐसा होना चाहिए जो व्यक्तित्व का सही वर्गीकरण करने एवं साधना विधान में प्रयोग प्रतिक्रिया से भली भाँति परिचित हो। ऐसे निष्णात अनुभवियों का इन दिनों एक प्रकार से अभाव ही देखा जाता है। अनपढ़ आडम्बर ही अध्यात्म क्षेत्र पर विडम्बनाओं के सहारे हावी है। उन्हीं का छल प्रपंच भावुकजनों की भाव श्रद्धा का दहन करता रहता है बाहुल्य इसी समुदाय का है। उन्हीं का गुरु दम्भ जहाँ-तहाँ अधिकार जमाये बैठा है और चित्र-विचित्र विडम्बनाएँ रचना रहता है। जिनने गम्भीर अध्ययन, मनन चिन्तन किया हो, आचरणों में भावनाओं में उत्कृष्टताओं का भरपूर समावेश रखा हो साथ ही साधना विधान के हर पक्ष को भली भाँति समझा हो। ऐसे मार्गदर्शकों के अभाव में साधक के सामने यह कठिनाई आती है कि वह स्थूल शरीर के परिमार्जन हेतु मंत्र साधना का उपयोग किस प्रकार करे? द्विविधा से किस प्रकार मुक्ति पाये? सरल और सीधे मार्ग पर किस प्रकार चल सकें?

इस उलझन का समाधान करने के लिए हमें व्यक्ति विशेष के लिए विभिन्न विधि विधान बताने वाली प्रक्रिया से बच कर ऐसा राजमार्ग निश्चित करना होगा, जो हर किसी के काम आ सके और बिना किसी जोखिम का हो।

पन्द्रह वर्ष की आयु से आरम्भ करे अब 77 वर्ष तक के 62 वर्षों में हमने निरन्तर गायत्री महामंत्र की उपासना की है। इस अवधि में हमने अपने अवरोधों को हटाने और अनुकूलताओं के उगने में आशातीत सफलता पाई है। संपर्क परिकर के जिन लोगों को यह प्रयोग बताया है, उन सब ने भी अपनी प्रतिक्रिया ऐसी ही व्यक्ति की है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विश्वासी के लिए इस साधना का सुनिश्चित प्रतिफल हो सकता है और वह मंत्र शक्ति की सार्थकता के सम्बन्ध में स्वयं संतुष्ट रहकर दूसरों को भी अपने अनुभवों से आश्वस्त कर सकता है। किन्तु कहाँ कठिनाई यह आड़े आती है कि यह संस्कृत भाषा में विनिर्मित है, साथ ही हिन्दू परम्परा से भी जुड़ा हुआ है।

उसकी मातृ स्तर की छवि ही बनी हुई है। यह सब बातें हिन्दू धर्मानुयायियों के ही गलत उतरती है। प्रश्न सार्वभौम व्यवस्था है। लक्ष्य विश्व मानव की प्रगति का सामने है जो हिन्दू परम्परा के प्रति निष्ठावान नहीं है उन अन्य भाषा भाषियों और अन्य धर्मावलम्बियों का भी है। अब हमें विश्व विचारणा विश्व भावना को भी ध्यान में रखना है भविष्य में एकता और समता को ही मान्यता मिलनी है। विभेदों वाले प्रचलन हटने है। ऐसी दशा में उस मानसिकता का निर्धारण करना होगा जो सर्वग्राहय भी हो और सर्वसुलभ, सर्व ग्राहय एवं प्रयोग में सरलतम भी हो।

इस संदर्भ में “‘ॐ कार” की ध्वनि धारणा से उपरोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। “‘ॐ” किसी भाषा का कोई शब्द नहीं। भारत में उसे अ-उ-म के सम्मिश्रण से बना “ओम्” माना जाता है और उसका अर्थ भी संस्कृत शब्द कोष के आधार पर किया जाता है। पर “ॐ” तो ध्वनि मात्र है। “ओउम्” से भिन्न है। इसे ऐसी ध्वनि समझा जा सकता है जैसी घड़ियाल में हथौड़ी मारने के उपरान्त झनझनाहट के रूप में होती है। यह प्रकृति पुरुष का आदि समागम भी है और उसी उपक्रम के निरन्तर चलते रहने से सृष्टिक्रम चलता रहता है। इसे घड़ी का पेण्डुलम तुल्य कहा जा सकता है। गायत्री का बीज भी यही है ॐ से तीन व्याहृतियाँ उत्पन्न हुई। प्रत्येक व्याहृति से तीन-तीन शब्द प्रस्फुटित हुए। जैसे कि बीज में अंकुर, पौधा और पत्तों फूल फलों से विकसित हुआ वृक्ष दृष्टिगोचर होता है। गायत्री को वृक्ष और “ॐ” को उसका बीज कहा जा सकता है। गायी के 24 अक्षरों में काय कलेवर के अन्तराल में विद्यमान 24 शक्ति केन्द्रों का जागरण होता है और उस आधार पर अनेक ऋद्धि-सिद्धियों की विभूतियों को वैभव हस्तगत होता है यही समूचा लाभ प्रकारान्तर से अकेले “ॐ” कार के जप से भी हस्तगत हो सकता है।

शरीर को यथा संभव शुद्ध करके शुद्ध स्थान में बैठकर अन्तर्मुखी मुद्रा में “‘ऊँ कार” जप इस प्रकार किया जा सकता कि मनोचेतना और आया के बीज आघातों का क्रम चलने की झनझनाहट जैसी अनुभूति होने का क्रम चल रहा है। इस आधार के चक्रों उपत्यिकाओं, ग्रंथियों, गुच्छकों में अभिनव चेतना का संचार होता है। कुछ ही दिन के अभ्यास से इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी किया जा सकता है। साथ ही उन लाभों को हस्तगत होते देखा जा सकता है, जो गायत्री मंत्र की विधिवत् साधना करने से उपलब्ध होता है

अच्छा हो इस जप का कंठ से गुँजन होता रहे और उसका कम्पन प्रभाव समस्त काया को प्रभावित करता प्रतीत होता रहे। इसके अतिरिक्त ऐसा भी हो सकता है। जब भी अवसर अवकाश हो तभी “‘ॐ” का मानसिक जप चालू कर दिया जाय। यह प्रक्रिया भी लौकिक जीवन को सुखी समुन्नत बनाने में कारगर हो सकती है।


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