परोक्ष जगत से उतरते “दैवी संदेश”

October 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यदा-कदा सूक्ष्म लोकों से देवी चेतना उठते और लोगों को महत्वपूर्ण सूचनाएँ दे जाती है पर देखा गया है कि यह सूक्ष्म संदेश हर कोई ग्रहण नहीं कर पाता। वही व्यक्ति इन तरंगों को पकड़ पाता है, जिसका अन्तःकरण निर्मल हो, विचारणाएँ, भावनाएं पवित्र हो, जो लोकमंगल के लिए जीता और परमार्थ के लिए मरता हो। ऐसे व्यक्ति इन सूक्ष्म सूचनाओं के माध्यम से अपना और समाज दोनों का कल्याण करते देखे जाते हैं। पिछले दिनों ऐसी अनेक घटनाएँ घटी है। एक घटना इजराइल की हैं

वहाँ के निवासियों को 45 वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए अथक प्रयास करने के बावजूद भी जब मुक्ति के कोई आसार नजर नहीं आये, तो उन्होंने धार्मिक कृत्यों का सहारा लिया और धर्मानुष्ठानों की एक लम्बी शृंखला चलायी। इसी मध्य उन्हें “माउन्ट सिनाई” से एक दिन एक दिव्य संदेश मिला, जिसमें कहा गया कि, तुम्हारी खुशियाँ वापस लौटेगी और तुम जल्द ही स्वतंत्र होगे। इस ईश्वरीय सूचना के मिलते ही लोगों की उद्विग्नता समाप्त हो गयी और सभी ने चैन की साँस ली। इसी के फलस्वरूप न्यायनिष्ठ सम्राट सोलोमन का अवतरण हुआ था, जिनने इजराइल की स्थिति सुधारने और स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

ग्रीक पौराणिक उपाख्यानों के अनुसार रोम की स्थापना का श्रेय रोमुलस और रैसम नामक जुड़वा भाइयों को है। वे मार्स की सन्तान थे। रैमस उम्र प्रकृति का था, जबकि रोमुलस शान्त सात्विक स्वभाव का। शासन काल के दौरान एक दिन रोमुलस ने अपने सिर के ऊपर एक अलौकिक प्रकाश देखा और एक दिव्य ध्वनि सुनी, जिसमें उसकी सत्ता के अवसान का संकेत था। बाद में ऐसा ही हुआ। सुप्रसिद्ध ग्रीक इतिहासकारों, जिन्होंने ग्रीक-परशियन युद्ध के कारणों का बड़ी गहनता से अध्ययन किया है का कहना है कि एथेना प्रोनोइया के मंदिर में एकबार ऐसी दिव्य आवाज गूँजी, जिसमें अनाचार के विरुद्ध मुहिम शुरू करने का स्पष्ट आदेश था। एसक्यलेपस को रोम में चिकित्सा का देव कहा जाता है। एक दिन उनने अनुभव किया, मानो कोई अदृश्य व्यक्ति उससे कह रहा हो कि “रुग्ण और बीमार व्यक्तियों की सहायता करो।” तभी से रोगियों की सेवा-परिचर्या में वे जुट पड़े और आजीवन इसी काम में निरत रहे। इसी कारण रोमवासी उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं।

कभी कभी सूक्ष्म प्रेरणाएँ इतनी सशक्त होती है कि बड़े समुदाय भी उसके प्रभाव में आये बिना नहीं रहते। 13 मई से अक्टूबर 1917 के अन्त तक कुछ व्यक्तियों ने पुर्तगाल के गए गाँव में लेडी फातिमा को “तिडवाइन मदर ऑफ रोजरी” के रूप में महीने की हर 13 तारीख को दिव्य संदेश के साथ अवतरित होते देखा। इस घटना की जब स्थानीय लोगों की जानकारी मिली, तो 13 अक्टूबर 1917 को बड़ी संख्या में लोग इस अभूतपूर्व दृश्य को देखने के लिए एकत्रित हो गये। उपस्थित लोगों का कहना था कि इस बीच वहाँ का सूक्ष्म वातावरण कुछ ऐसा बना, जो लोगों की धर्म- भावना को झकझोर रहा था। लोगों ने अपने भीतर उत्कृष्ट विचारणाएँ और विलक्षण परिवर्तन अनुभव किये। इस घटना को अविस्मरणीय बनाने के लिए उस स्थान का “फातिमा उद्यान” नाम दे दिया गया, जो अब एक तीर्थ स्थल है।

जब तब ऐसे संदेश मूर्त माध्यमों से भी मिल जाते हैं। इन अवसरों पर अचानक कुछ ऐसे दृश्य आँखों के सामने उपस्थित होते हैं, जिन पर सहसा विश्वास नहीं होता और मतिभ्रम-सा प्रतीत होता है, पर वस्तुतः होते ये वास्तविक ही है। बवेरिया के हैरोल्ड बैंक गाँव में ऐसी ही एक घटना 1959 को घटी। ग्राम में एक धार्मिक आयोजन हो रहा था, जिसमें बड़ी तादाद में ग्रामवासी उपस्थित थे। कार्यक्रम के मध्य अकस्मात् एक श्वेत वस्त्रधारी प्रतिमा लोगों के समक्ष प्रकट हुई और कुछ क्षण रुक कर अन्तर्ध्यान हो गई। वहाँ एक चित्र अधिकाँश लोगों ने इसे आँखों का विभ्रम माना, पर कुछ धर्मप्राण सतोगुणा सन्तों का कहना था कि उनने एक विशेष प्रकार की प्रेरणा अनुभव की, मानों मूर्ति कर रही हो कि शासन तंत्र पर धर्मतंत्र का अंकुश होना चाहिए तभी राज्य में सुव्यवस्था और शाँति बनी रह सकती है। ज्ञातव्य है, तब वहाँ चारों ओर अराजकता और अव्यवस्था फैली हुई थी। अशान्ति के दम घोंटू वातावरण से लोग परेशान थे। अमन-चैन का कही नामों निशान नहीं था। लोग शांति की तलाश में मृत-तृष्णा की तरह भटक रहे थे।

इसी प्रकार की एक घटना विवेकानन्द के बचपन की है। एक दिन वे अपने कमरे में ध्यानस्थ थे, तभी अचानक उनका ध्यान उचट गया। आंखें खोली तो देखा कि एक चीवरधारी विग्रह हाथ में कमण्डलु लिए कक्ष की दीवार को तोड़ते हुए प्रकट हो रहा है। मूर्ति उनके सम्मुख आकर खड़ी हो गयी। यह सब देख वे भयभीत हो उठे किन्तु थोड़ी देर पश्चात् जब भय कुछ घट, तो उन्होंने प्रतिमा गायब हो गयी। उन्होंने दीवारों का निरीक्षण किया, तो सभी सुरक्षित थी, किसी प्रकार का कोई सुराख नहीं था। बाद में जब उनसे लोगों ने इस अद्भुत घटना की जानकारी चाही, तो उनने कहा कि वे साक्षात् भगवान बुद्ध थे, जो ज्ञान क्राँति का एक विशेष संदेश देने के लिए प्रकट हुए थे।

चौदहवीं शताब्दी में इटली में राजनैतिक कमजोरियों के कारण अराजकता का विष पुरे देश में चलता चला गया। पड़ोसी राष्ट्र भी इटली वासियों की इस कमजोरी का लाभ उठाने की कोशिश करने लगे। इन्हीं परिस्थितियों में सन् 1947 में इटली में “साइना” ग्राम में कैथरीन नामक एक कन्या का जन्म हुआ। जब वह 17 वर्ष की हुई, तभी उसके जीवन में एक आकस्मिक मोड़ आया। एक दिन रात में वह सोने का उपक्रम कर रही थी कि उसके कर्ण-कुहरों से कुछ सट शब्द टकराये। कोई कह रहा था कि “तुम लोगों में धार्मिक चेतना जगाओ तभी देश इस दलदल से निकल सकता है।” उसने अविलम्ब उठकर कमरे में तथा कमरे के बाहर चारों ओर काफी खोजबीन की, पर कोई व्यक्ति नहीं दीखा। तब उसने इसे कानों का भ्रम मान लिया और सो गयी, किन्तु उस दिन के बाद से यह दैनंदिन घटना बन गयी। उसे बराबर इस प्रकार के सूक्ष्म संदेश प्राप्त होने लगे। अन्ततः कैथरीन ने उन्हीं संदेशों को अपना आदर्श और आधार मानकर कार्यक्रम शुरू किया और लोगों का चिन्तन-तंत्र और जीवन क्रम बदलने का अभियान आरम्भ किया, जिसमें उसे काफी सफलता मिली तथा देश की स्थिति में भी उत्तरोत्तर सुधार होता चला गया।

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों महर्षि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे, तो उन्हें भी ऐसे ही दिव्य व सूक्ष्म संदेश नियमित रूप से मिलते रहते थे, जिसमें भावी कार्यक्रमों की रूप रेखा और इनसे सम्बन्धित निर्देश होते थे। इन्हीं संदेशों के आधार पर महर्षि अपनी योजना बनाते और क्रियान्वित करते थे। ब्राह्मी चेतना के संकेत पर ही वे स्वाधीनता-संग्राम के सक्रिय जीवन से संन्यास लेकर पाण्डिचेरी चले गये और समष्टि साधना में निरत हुए।

इन घटनाओं के सम्बन्ध में श्री अरविंद कहते थे कि इस दृश्य जगत की तरह ही एक परोक्ष जगत् भी है, जो विशुद्धतः चेतनात्मक है। सूक्ष्म स्तर के संदेश उसी चेतनात्मक संसार से उतरते हैं। कई बार ऐसा होता है कि चिन्तन के दौरान कई ऐसे नये विचार और तथ्य अपने आप सूझ पड़ते हैं, जिनकी आशा भी नहीं की थी, पर अनायास मस्तिष्क में कौंध जाते हैं। वस्तुतः यह विचार तरंगें सूक्ष्म जगत से ही अवतरित होती है, स्थूल विश्व से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता, ऐसी सूक्ष्म तरंगें अदृश्य लोक में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। आवश्यकता उन्हें प्रकरण करने की है। पर यह उन्हीं की पकड़ में आती है जो अपने जीवनक्रम को शुद्ध, सात्विक बनाकर अपने चरित्र चिन्तन व्यवहार को परिष्कृत कर लेते हैं। ऐसे ही लोग इनका स्वयं लाभ उठाते और दूसरों को भी लाभान्वित करते देखे जाते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118