मनुष्य जन्म सोद्देश्य है!

October 1987

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प्रकृति के अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य की संरचना बिलकुल अनोखे ढंग की है। सृष्टा ने उसे सभी प्रमुख विशेषताओं, विशिष्ट सामर्थ्यों से अलंकृत कर इस दुनिया में भेजा हैं। वह अपने विकास के लिए परिस्थितियों पर निर्भर है न बाह्य साधनों पर अवलम्बित। उसमें अस्तित्वपूर्ण जीवन, अनुभूति ज्ञान और स्वतंत्र इच्छा शक्ति का समन्वय है। उसके अंतराल में ऊंचा उठने और श्रेष्ठ सिद्ध होने के लिए सत्कर्म करने की ललक पाई जाती है। परोक्ष के लिए प्रत्यक्ष की हानि सहने की उमंगें उठना मानवी अंतरात्मा की अपनी विशेषता है। जबकि मनुष्येत्तर प्राणी प्रकृति प्रदत्त सहज प्रेरणा से प्रेरित होकर अपना पेट भरते, वंशवृद्धि करते एवं आत्मरक्षा करते हुए समाप्त हो जाते हैं।

मनुष्य चेतना के सुविकसित स्तर पर प्रतिष्ठित है, साथ ही उसकी कायिक संरचना में भी अनेक विलक्षणताएँ विद्यमान हैं। वैज्ञानिकों ने इसके अनेकों प्रमाण खोज निकाले हैं।

इटली के सुप्रसिद्ध एंब्रियोलॉजिस्ट फैब्रीसियस एवं एक्वेपेंडेन्ट ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि मनुष्य की कायिक संरचना अन्य जीवधारियों की तुलना में विशिष्ट है। उसमें दिव्य तत्त्वों की बहुलता है। शरीर विज्ञानी हैलर का तो यहाँ तक कहना है कि मनुष्य की उत्पत्ति सीधे ईश्वरीय इच्छा से हुई है। आज से 6000 वर्ष पूर्व ईश्वर ने दो खरब लोगों को जन्म दिया जिन्हें ‘ईव की सुसंतति’ के नाम से जाना जाने लगा। यह माँयता खीस्ट समुदाय में अभी भी प्रचलित है। शरीर विज्ञानियों का कहना है कि प्लेसेण्टा की संरचना को देखकर मनुष्य की जन्म-जात विलक्षण विशेषताओं का पता लगाया जा सकता है। एक दशक पूर्व भ्रूण विज्ञानियों के एक समुदाय ने अपने गहन अनुसंधान के फलस्वरूप प्लेसेण्टा की एक और गहरी परत - “डेसीडुआ रिफ्लैक्सा” का पता लगाया है। प्रयोग परीक्षण करने पर जिन तथ्यों का रहस्योद्घाटन हुआ है, उन्हें देखते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है कि मनुष्य एक ऐसा विशिष्ट प्राणी है जिसका बनावट किसी अन्यान्य प्राणी से कदाचित मेल नहीं खाती।

विगत बीत वर्षों से शरीर विज्ञान की एक और नवीन धारा ‘साइकोफिजिक्स’ प्रकाश में आई हैं प्रख्यात शरीर विज्ञानी थियोडर फेचनर और अर्नस्ट हैनरिक वैवर को इस विधा का जन्मदाता माना जाता है। मानव की इस अप्रत्याशित क्षमताओं का अवलोकन करते हुए ही उन्होंने चिकित्सा जगत में कई नये आयामों को जन्म दिया है। उनका कहना है कि मनुष्य एक चेतन प्राणी है, अतः उसके शरीर की सभी निर्धारणाएं पदार्थपरक नहीं हो सकती है। चेतना की क्षमता भौतिक शक्तियों से कई गुना बढ़-चढ़ कर है। साथ ही वह उन सभी वाह्य शक्तियों पर नियंत्रण कर सकने में समर्थ है।

जीवन विज्ञानियों के अनुसार शरीर में जीवन की सम्भावना को व्यक्त करने वाले पदार्थ को ‘प्रोटोप्लाज्मा के ना से जाना समझा जाता रहा है। इसी प्रकार का तत्त्व परामनोविज्ञान वेत्ताओं ने अब मनः स्थिति स्तर पर सक्रिय पाया है और उसे ‘साइकोप्लाज्मा’ के नाम से सम्बोधित किया है। तंत्रिका तंत्र में काम करने वाला तत्त्व ‘न्यूरोप्लाज्मा’ कहलाता है। इन सब संरचनाओं को देखते हुए मनुष्य को चैतन्य आत्मगत विशेषताओं वाला कहा जाय तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी।

मानव की सबसे बड़ी विशेषता हैं- उसकी आदर्शवादिता, साथ ही आत्म-गरिमा का बोध। वह बड़े से बड़े स्वार्थों को ठुकरा सकता है जबकि अन्य प्राणी मात्र पेट-प्रजनन तक ही, सुविधाओं तक ही सीमित रहते हैं। मादा की बच्चों के प्रति प्रकृति प्रदत्त प्रेरणा के अतिरिक्त उनमें कुछ ऐसा नहीं होता जिसे आत्मीयता-स्वावलम्बन या उत्तरदायित्व जैसे गुणों के आधार पर मनुष्य जैसा आँका जा सके। क्या यह सब विशेषताएं मानव के अंदर एक विशिष्ट गौरव का भाव नहीं जगाती कि उसका धरती पर अवतरण विशेष प्रयोजन हेतु है, सोद्देश्य है।


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