राजा परीक्षित को एक सप्ताह में सर्प दंश से मृत्यु होने का शाप लगा। मरण निश्चित समझकर उनने अपना शेष समय सत्कर्मों में लगा देने का निश्चय किया। इन दिनों में दैनिक सत्संग का भी आयोजन रखा गया।
प्रश्न उपस्थित था कि सत्संग का संचालन कौन करे? किसी ने नाम सुझाया व्यास का। किसी ने शुकदेव का। परीक्षित ने शुकदेव का समर्थन किया। इस पर सभासदों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि वयोवृद्ध पिता के रहते कम आयु के पुत्र का चयन क्या किया गया?
शंका का समाधान करते हुए परीक्षित ने एक आँखों देखी घटना सुनाई।
वे एक बार वन बिहार को गये थे। अकेले भटक गये। चलते चलते वे एक सरोवर के निकट जा पहुँचे। प्यास लगी थी। स्वयं भी पानी पीना था। घोड़े को भी पिलाना था। पर सरोवर का दृश्य देखकर वे ठिठक गये। जलाशय में देव कन्याएं निर्वस्त्र स्नान कर रही थी। राजा ने उचित समझा इनके काम में विघ्न डालने की अपेक्षा यह अच्छा है कि निकटवर्ती पेड़ की छाया में खड़े होकर स्नान समाप्त होने की प्रतीक्षा की जाय।
देखा कि बाल योगी शुकदेव उधर से निकले उन्हें पानी भी पीना था और स्नान भी करना था। सो उनने दोनों ही कार्य किये। शुकदेव भी निर्वस्त्र थे। युवा थे। पर देव कन्याओं ने उनकी मन स्थित परखकर किसी प्रकार का संकोच नहीं किया और निश्चिन्त भाव से वे सभी जल क्रीडा करती रही।
जब शुकदेव चले गये तो कुछ समय उपराँत वयोवृद्ध उधर से निकले। उन्हें भी पानी पीना था। देखते ही देव कन्याएँ चौकन्नी हो गई। भागकर झाड़ी में छिप गई और कपड़े पहन लिये।
प्रसंग समाप्त हुआ तो परीक्षित वृक्ष की छाया में से निकल, उनने पानी तो पिया पर कुछ ही दूर पर खड़ी देव कन्याओं से नम्रतापूर्वक एक प्रश्न किया कि निर्वस्त्र युवक के समीप आने पर आप लोग निःसंकोच स्नान करती रही और वयोवृद्ध को देखकर इतनी हैरान हुई और छिप गई, इसका क्या कारण था?
देव कन्याओं ने कहा हम व्यक्ति की मनोदशा और पिछली जीवनचर्या को देख लेते हैं। शुकदेव का मन बालक जैसा था। पर व्यास जी संन्यास में रहते हुए भी संतानोत्पादन करते रहे हैं। इस अन्तर के कारण ही हमें अपने व्यवहार में अन्तर करना पड़ा।
सत्संग के लिए वाचालता और बहुज्ञता ही सब कुछ नहीं होती। उसकी सार्थकता तभी है जब उपदेशकर्त्ता का जीवन क्रम भी उच्चस्तरीय हो। आज उपदेशक तो बहुत है पर कथनी-करनी एक हो ऐसे बिरले नहीं हैं। समाज को आवश्यकता धर्मोपदेशकों, प्रीचर्स की नहीं पवित्र उच्चस्तरीय आत्माओं की है।