गायत्री महाशक्ति को महाराज कहा गया है इससे बढ़कर समूचे मंत्र विज्ञान में कोई ऐसा मंत्र नहीं है जिसे मुकुटमणि की उपमा दी जा सके। उसका प्रादुर्भाव परब्रह्म द्वारा निसृत आकाशवाणी से हुआ है। ब्रह्माजी जो उसके तप से वह सामर्थ्य पाई जिससे वे जड़ चेतना सृष्टि का सृजन कर सके। भौतिक प्रयोजनों से उसे सावित्री और अध्यात्म प्रगति के संदर्भ में गायत्री कहा जाता है। एक ही तत्व के यह दोनों पक्ष है। उपयोग भेद में ही उसके दो नाम पड़े है। सावित्री के कल्पना चित्रों में उसके पाँच मुख बनाये जाते हैं। यह प्रकृति के पाँच तत्व और चेतना की पाँच प्राण धाराओं का साँकेतिक उल्लेख है।
गायत्री के 24 अक्षर है। पर उसके साथ ही प्रणव और तीन व्याहृतियाँ लगी हुई है। प्रणव-ओंकार-प्रत्येक वेदमंत्र से पूर्व लगाये जाने की सनातन परम्परा है। तीन चरण वाली गायत्री का एक एक बीज तीन व्याहृतियों के रूप में संजोया गया है। ईश्वर - जीव, प्रकृति, सत्-चित-आनन्द ब्रह्मा-विष्णु-महेश, स्वर्ग भूलोक एवं पाताल लोक सत रज तम आदि का तत्वदर्शन इन व्याहृतियों से समाविष्ट है। यदि इनकी व्याख्या की जाय तो समूचा अध्यात्म दर्शन इन तीन व्याहृतियों की व्याख्या में ही निरूपित हो जाता है जिन तीन चरण से दानी बलि का समूचा साम्राज्य नाप लिया था, उन तीन को त्रिविध गायत्री के साथ जोड़ा जा सकता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का स्वरूप भी इस व्याहृति विवेचना के आधार पर समझा जा सकता है।
समस्त देवता गायत्री की उपासना करते थे। ऋषियों का भी वही अवलम्बन रहा। मनुष्यों में शिखा और यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री को अपनी काया तथा बुद्धि में समाविष्ट होने की भावना रखना और उसकी यथासम्भव नित्य नियमित उपासना करने का विधान है। इसमें सद्बुद्धि के लिए मात्र प्रार्थना ही नहीं है वरन् यह तथ्य है कि इस उपासना में बुद्धि में तीव्रता का, सत्प्रेरणाओं का अभिवर्धन है। यह बात दूसरी है कि उसका प्रयोग किस काम के लिये किया जाये। देवता श्रेष्ठ के लिए और दैत्य निष्कृष्ट के लिए भी बुद्धि की प्रतिभा का प्रयोग करते रहे है।
जिस प्रकार पुष्प में रूप भी होता है गंध भी रस भी पराग भी। उसी प्रकार गायत्री के प्रत्येक अक्षर में अनेकानेक प्रकार की विशेषताएँ भरी हुई है। मस्तिष्क देखने में एक है। पर उसके भीतर अगणित क्षमताओं के स्थान और कोश है। उनमें से कुछ ही अभ्यास में आने पर जागृत रहते हैं। शेष निरर्थक पड़े रहने के कारण मूर्छित या प्रसुप्त स्थिति में चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार गायत्री का प्रत्येक अक्षर अपने अपने परिकर में परिपूर्ण है। परमाणु प्रत्यक्ष एक होता है, पर उसके तनिक से अन्तराल में इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रोन, पाजिट्रान आदि अनेक घटक अपनी अपनी कक्षाओँ में बिना टकराये परिभ्रमण करते रहते हैं। सौर मण्डल के समस्त नियम, उपनियमों का उस छोटी सी परिधि में अपनी तन्दूप सता के रूप में विवरण वह देखा जा सकता है। इस संदर्भ में यथासम्भव जानकारी ब्रह्माजी ने अपने चार मुखों से चार वेदों का सृजन करते हुए भी है। उस जानकारी से मनीषियों के अवगत कराया है। उस कथन को और भी अधिक सुबोध बनाने के लिए ऋषियों ने उपनिषद् ब्राह्मण, आरण्यक, सूत्र आदि में अधिक खुलासा करने का प्रयत्न किया है। पुराणकारों ने उन्हीं तथ्यों को अलंकार से जोड़ते हुए कथा उपाख्यानों के रूप में गढ़ दिया है। इस प्रकार समूचे अध्यात्म, वाङ्मय पर गायत्री का ही आलोक छाया हुआ देखा जा सकता है।
गायत्री के 24 अक्षर है। उनमें से प्रत्येक में अनेकानेक रहस्य भरी विभूतियों के भाण्डागार भरे पड़े है। अवतार 24 हुए हैं देवताओं में प्रमुख 24 है। देवियाँ भी महाशक्ति के रूप में 24 ही गिनाई जाती है। ऋषियों में 24 की प्रमुखता है। यह आध्यात्मिक प्रकरण हुआ। इसे देव पक्ष भी कह सकते हैं। संख्या में 24 होने के कारण इन सब को गायत्री की चूड़ामणि का ही एक एक मणि मुक्तक कह सकते हैं। तंत्र पक्ष बीजाक्षरों से आरम्भ होता है उससे शक्ति विशेष का उद्भव होता है और उसके प्रतिफल आध्यात्मिक ऋद्धि और भौतिक सिद्धियों के रूप में परिलक्षित होते है। इस पक्ष का भी प्रत्येक घटक 24 की संख्या में ही है। इससे प्रकट है कि तंत्र परिकर का विज्ञान ओर विधान भी गायत्री का ही स्वरूप विस्तार है। तंत्र में यों शाबर मंत्रों का भी हल्का फुलका प्रयोग होता है, परन्तु मूलतः वह है गायत्री विज्ञान का विस्तार ही। जब उस क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना पड़ता है तो सुदृढ़ और सुनिश्चित अवलम्बन के रूप में गायत्री ही दृष्टिगोचर होती है। देवी देवता आदि के सम्बन्ध में किसी भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है वे ईश्वर से पृथक या प्रतिद्वंद्वी नहीं उनकी अलग सता भी नहीं है। परब्रह्म इस विश्व ब्रह्माण्ड की अनेकानेक गतिविधियों का सूत्र संचालन करता है। वे कार्य जिस रूप में क्रियान्वित होते हैं, तब उनको देखत हुए पृथक नाम दे दिया जाता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति वकील, चिकित्सक, गायक, लेखक व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार भगवान को अनेक कार्य करते हुए देखकर समयानुसार अनेक अलग अलग सम्बोधन प्रयुक्त किये जा सकते हैं। वकालत करते समय वकील साहब और कुश्ती लड़ते समय पहलवान जी कहा जा सकता है। वही बात ईश्वर की देव संज्ञाओं के सम्बन्ध में भी है।
परिस्थितियों मनुष्य बिगाड़ तो आसानी से लेता है, पर उन्हें सम्भालना नहीं बन पड़ता। ऐसे आड़े समय में भगवान अवतार लेते हैं। कोई तूफानी आन्दोलन खड़ा करते हैं। उसके प्रवाह में कितने ही पुराने पेड़ उखड़ जाते हैं। कितने ही तिनके और पते आसमान चूमने लगते हैं। चक्रवात बनते और कौतूहल भरी घटनाएं, परिस्थितियाँ प्रस्तुत करते हैं। यह अवतार सता का स्वरूप हुआ। ब्रह्म एक जगह एकत्रित नहीं हो सकता। यदि उसकी समग्रता एक स्थान पर एकत्रित हो जावे ता फिर अन्यत्र जो कुछ हो रहा है, वह किस प्रकार हो सकेगा, योगी, तपस्वियों और प्रतिभावान मनीषियों में उसका आवेश ही अधिक मात्रा में भर जाता है। उनके माध्यम से विचित्र क्रिया कलापों की शृंखला चल पड़ती है। दृश्यमान अवतार उसकी को समझा जाता है। भारतीय मान्यता के अनुसार अब तक 24 अवतार हुए है। इनमें से प्रत्येक गायत्री के एक एक अक्षर के फलित होने के रूप में समझा जा सकता है।
देवताओं और देवियों के युग्म को इसी प्रकार समझा जाता है जैसे समुद्री ज्वार भाटा एवं नदी की लहरे। जल का एक भाग ऊँचा उठने पर दूसरा नीचा रह जाता है। इन दोनों के आधार पर ही प्रवाह में गतिशीलता दृष्टिगोचर होती है। बिजली में ऋण और धन दो वर्ग साथ साथ चलते हैं। देवी और देवता परस्पर अति निकट है। एक दूसरे के साथ शक्ति का आदान प्रदान चलते रहे है। प्रकृति की इसी विविध विलक्षणता को देवी देवताओं के नाम से पुकारा जा सकता है। इन दोनों वर्गों में 24-24 की प्रधानता है। उतने ही गायत्री के अक्षर भी है।
योगी तपस्वी तो साधारण शरीरधारी होते हैं और समयानुसार जन्मते मरते रहते हैं, किन्तु ऋषि जरा-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर अपनी सूक्ष्म सता यथावत् बनाये रहते हैं। प्रत्यक्ष दीखते नहीं तो भी इतना कर्त्तृत्व सम्पन्न करते हैं, जितने अनेकों स्थूल शरीर मिलकर भी नहीं कर सकते वे अदृश्य जगत पर छाये रहते हैं और ऐसी सम्भावनाएँ परिस्थितियों विनिर्मित करते हैं और ऐसी सम्भावनाएँ, परिस्थितियाँ विनिर्मित करते रहते हैं, जिन्हें समर्थ देह धारियों के अनेक शरीर मिलकर भी नहीं कर सकते। सप्त ऋषियों के शरीरों को मरे युगों बीत गये पर उनके शक्ति केन्द्र अभी भी रात्रि के समय आकाश में चमकते हैं। इतना ही नहीं वे व्यक्ति को उठाने और समाज के वातावरण के बदलने का भी परोक्ष माहौल बनाते रहते हैं। इन ऋषिगणों की सता भी सूक्ष्म शरीरधारी देव मानवों में गिनी जाती है। ऋषियों में से कितने ही किन्हीं सामान्य लोगों की व्यवस्था सम्भालने भेजे गये होगे पर पृथ्वी पर इन दिनों जिनका प्रभाव और दायित्व है उनकी संख्या 24 में गिनी गई है। गायत्री के ऋषि गुच्छक 24 - 24 के ही है। उन्हें अदृश्य आदि मानव भी कह सकते हैं। जीवन मुक्त भी और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर्ता भी। यह भी गायत्री के 24 अक्षर ही है। ब्राह्मी क्षेत्र के चार ही घटक है। अवतार, देवता देवियाँ और ऋषि। भौतिक पक्ष प्रत्यक्ष भी है और पुरुषार्थ परायण भी। इन्हें दूसरे शब्दों में सामर्थ्य के धनी शक्तिपुंज या दैत्य कह सकते हैं। दैत्य का अर्थ है “जाइण्ट “। विशाल सशक्त। दैत्यों में से सभी बुरे नहीं होते। बलि, विभीषण, प्रहलाद आदि दैत्य कुल में ही उत्पन्न हुए थे। दैत्य वर्ग की साधना के भी चार चरण है बीजाक्षर, शक्ति संचय की तप साधना, भौतिक क्षेत्र की चमत्कारी सिद्धियां तथा अंतिम है ऋद्धियां।
बीजाक्षरों में स्वरों के साथ अनुस्वार जोड़ देने से वह मकारान्त हो जाता है जैस क ख ग, घ, को बीज मंत्र के रूप में प्रयुक्त करना हो तो उन्हें क, ख, ग, घ इस रूप में कहा जायेगा। एक बार में एक ही अक्षर प्रयुक्त होगा। उन्हें, नकारान्त मकारान्त बोला जायेगा। अक्षरों का समन्वय न करने, समुच्चय गुच्छक न बनने से एकाकी रहने पर वह बीज मंत्र बन जाता है उसका उच्चारण इस प्रकार होता है कि मुख जिव्हा आदि में हलचल तो होती रहे पर उच्चारण दूसरों को सुनाई न पड़े इस प्रकार के उच्चारण की प्रतिक्रिया समस्त जीवकोशों में एक विशेष प्रकार का कम्पन प्रवाह उत्पन्न करती है। यह कम्पन एक विशेष प्रकार का कम्पन प्रवाह उत्पन्न करती है। यह कम्पन एक विशेष प्रकार की ऊर्जा का सृजन करता है। जिसके आधार पर अपने तथा दूसरों के अनेकानेक कार्य सिद्ध किये जा सकते हैं।
“शक्ति” शब्द का संक्षिप्त उल्लेख करने का समग्र तात्पर्य है-शक्ति संचय और आत्मशक्ति संचय के दो ही संयम साधना की भट्टी में तपा कर खरे सोने की तरह बनाया जाता है। योग में ब्रह्मांडीय चेतना की अजस्रता के साथ अपने आप कार्य करने लगते हैं, सामर्थ्य से भर जाते हैं। टंकी के साथ जुड़े जाने पर नल में तब तक पानी बहता रहता है जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती। ब्रह्मचेतना, शिव चेतना आत्मिक और भौतिक शक्तियों का भंडारण निवास है। योग द्वारा उसी के साथ जुड़ा जाता है। तप के द्वारा धातु को गलाया जाता है और योग के द्वारा उसे उपयुक्त ढाँचे में ढाला जाता है। दक्षिणमार्गी और वाममार्गी साधक अपने अपने ढंग से अपना अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए यह योग तप की समन्वित शक्ति साधनाएँ करते हैं। दोनों पक्षों के लिए 24-24 साधना निर्धारित है। उन्हें गायत्री हिमगिरि में से निःसृत गंगा यमुना के रूप में समझा जा सकता है।