निष्काम कर्मयोग एक दार्शनिक विश्लेषण

October 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कर्म ही वह केन्द्रीय धुरी है, जिस पर इस दृष्टि का गतिचक्र अविराम घूम रहा है। संसार में जो कुछ दृश्यमान है, उसका आधार यही प्रक्रिया है। जड़ कहे जाने वाले परमाणु में भी इलेक्ट्रान एक निश्चित परिकर में गति करते हुए अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखते हैं। चेतन-जीव जगत-भी भिन्न प्रकार की गतिविधियों-क्रिया-कलापों से अपने को नियोजित रखते हैं। कर्म में तत्पर हुए बिना यहाँ अपना अस्तित्व बनाए रह सकना असम्भव प्रायः है। जीवित रह सकें, इसके लिए कर्म आवश्यक ही नहीं-अनिवार्य भी है। मनुष्येत्तर निम्न श्रेणी के प्राणियों में यह प्रकृति प्रेरणा से परिचालित है। उदरपूर्ति, वंशवृद्धि एवं निज की रक्षा तक ही सीमित है। इन सीमित प्रयोजनों की परिधि में ही उनका सम्पूर्ण जीवन परिभ्रमण करता है और एक दिन-काल-अवलित हो जाता है। अतएव उनके लिए सुख, दुःख की उच्चस्तरीय वैचारिक चेतना के परिष्कार समष्टि से एकाकार होने की आत्मिक अनुभूतियाँ निरर्थक एवं परे है।

परम सत्ता के इस विश्व उद्यान में सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं वरिष्ठ मानव मानसिक और बौद्धिक दृष्टि से परिपूर्ण विकसित होने के कारण एन्द्रिक सुखों की लघु परिधि में सीमित नहीं रह सकता। उसे उच्चस्तरीय इन्द्रियातीत परम आनन्द की तलाश है, जिसके लिए अल्पज्ञतावश इस साँसारिक मृग मरीचिका में भटकता है। इस भटकाव से मुक्ति पाने, निज के स्वरूप को पहचानने के लिए ऋषि मनीषियों ने ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का मार्ग अपनाने हेतु निर्देशित किया है। इसमें कर्मयोग राजमार्ग की तरह सुप्रशस्त है। क्योंकि यह हर मनोभूमि के व्यक्तियों एवं वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल है। इसमें न तो भूलभुलैयों की दुरुहता है, न ही भटकाव की कोई गुँजाइश। यह इसलिए सभी के लिए उपयुक्त है क्योंकि मनुष्य आजीवन किसी न किसी रूप में कर्म करता ही रहता है। कर्मों से पूर्णतया विरत हो जाना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। अतएव यदि कर्मयोग जीवन जी सकना सम्भव हो सके तो इसी जीवन में स्वर्ग एवं मोक्ष जैसी स्थिति का आनन्द पा सकना सबके लिए सम्भव है।

कर्म जीव और ब्रह्म को एकीकृत कर देने वाला योग तब बन जाता है, जब वह निष्काम हो। क्योंकि कामनाओं से जकड़े रहना ही भव-बंधन है और इनसे छूटना ही मुक्ति। कर्मों से विरति तो सम्भव नहीं है फिर इस संसार में कैसे रहा जाय? इसके लिए ईशावस्य उपनिषद् का ऋषि भी उपरोक्त उद्घोष करता हुआ कहता है- तेन त्यक्तेन भुज्जीथा- अर्थात् इस विश्व उद्यान में बिहा तो करें, इसका उपयोग करे, पर निर्लिप्त होकर निष्काम भाव से।

निष्काम कर्मयोग के सुविस्तीर्ण राजपथ पर चलने वाला पथिक, निज की इच्छाओं, वासनाओं को परमसत्ता के प्रति समर्पित कर देता है। उसका जीवन संकीर्ण स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु भगवती चेतना के इस विश्व-उद्यान को अधिकाधिक पुष्पित, पल्लवित करने तथा इसे सुन्दर से सुन्दरतम बनाने में होता है। वह अपने कर्त्तव्यों के प्रति सतत् जागरुक एवं तत्पर रहता है। उनको भली प्रकार निर्वाह में उसे अनिर्वचनीय परमसुख की अनुभूमि होती है। इस प्रकार वह निरन्तर कर्म में निरत रहता हुआ दिखाई देने पर भी अंतर्मन से पूर्णतया अनासक्त होता है।

गीताकार ने इसी को समत्व भी कहा है और सभी प्रकार के योगों में इसे उत्कृष्ट बताया है। समत्व का तात्पर्य है समान भाव, चित्तवृत्तियों की चंचलता का सहज निरोध। जिसे योगदर्शन के प्रणेता पातंजलि ने योगश्चिन्तवृत्ति निरोध” कहकर समझाया है। गीता ने इसे ही समत्व कहा है। चित्त का चंचल होना कर्मों में बाधा, व्यतिरेक पैदा करता है। हानि लाभ, यश-अपयश, सुख-दुःख की उलझनों में जिसका मन सदा ही उलझता रहता है। जय होने पर जिसका अभिमान अस्सी गुना बढ़ जाता है, पराजय से जिसका मनोबल चूर-चूर हो जाता है। उससे सही ढंग से कर्म नहीं हो सकते हैं। जो हर परिस्थितियों, उद्विग्नताओं से रहित होकर दृढ़ मनोबल से परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से कर्म करता है, वह ही इस समत्व भाव की निष्काम कर्मयोग की सच्ची आराधना करता है।

ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म, निष्काम कर्मयोग की प्रथम अनिवार्यता है। सामान्यतया मनुष्य जो कर्म करता है, उसका कारण शुद्र स्वार्थपरता ही है, उस समय वैश्व सत्ता की इस अनुपम कलाकृति को सजाने, सँवारने का विचार नहीं रहता है। स्वार्थ हेतु कर्म से संलग्न व्यक्ति अपने को प्रधान और परमात्मा को गौण मानता है। भला यदि किरण को प्रधान तथा सूर्य को नगण्य माना जाय तो यह अज्ञान के सिवा और है क्या? अतएव इस अज्ञानता के निवारण एवं ब्रह्मापर्ण बुद्धि से कार्य करने के सद्ज्ञान की प्राप्ति कराने वाले इस निष्काम कर्मयोग को ही “समत्वयोग” और बुद्धियोग भी कहा गया है, आस्था संकट एवं सारे अभावों की जड़ यह अज्ञान ही है, यदि इस भावना का समूलनाथ हो जाय तो संकीर्ण स्वार्थपरता के गहन, गम्भीर अंधकार में डूबा मानव निकले और विश्वात्मा के शाश्वत आलोक में आकर कुछ परमार्थ की भी सोचे। पर इसका प्रारम्भ संग त्यक्त्वा अर्थात् निष्कामता से ही होता है।

कर्म के परिणाम के प्रति अनासक्त होना इस दृष्टि से भी आवश्यक है कि मनुष्य का अधिकार क्षेत्र मात्र कर्म करने तक ही सीमित है। फल इस सीमा से बाहर है। यह तो सही है कि प्रत्येक कर्म का फल भी है और निश्चित समय पर उसकी प्राप्ति भी सुनिश्चित है, पर यह भी यथार्थ है कि इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया का संचालन सूत्र किन्हीं अदृश्य हाथों में ही है। कई बार इस कर्मफल प्रक्रिया में व्यतिरेक होने जैसा आभास भी लगता है। एक निश्चित प्रकार के कर्म करने पर भी उसका सम्भावित परिणाम न देखकर कर्मफल व्यवस्था पर मन आशंकित हो उठता है। पर ऐसा होने का कारण यही है कि कर्मफल के सिद्धान्त को सही ढंग से समझाया नहीं गया। वर्तमान जीवन एवं इससे सम्बद्ध भली-बुरी उपलब्धियाँ मात्र इसी जीवन की नहीं अपितु पूर्व संचित कर्मों का भी परिणाम है। कई बार ऐसा होता है, अच्छे कर्म करने पर भी परिणाम अनुकूल नहीं होते, बीच में ऐसे विघ्न, व्यतिरेक आ जाते हैं, जिसका निवारण मानवी सामर्थ्य से परे है। पर यह है वस्तुतः अदृश्य कर्मों के फल जो पूर्व जन्मों में सम्पादित किए गए है। जो कर्मफल की शाश्वत व्यवस्था के अनुसार कालान्तर में विविध रूपों में प्रकट होते हैं। अतएव कर्म फल की प्राप्ति पूर्णतया सत्य होते हुए भी उसे आसक्ति का सर्वथा त्याग ही श्रेयस्कर है। इसके प्रति आसक्ति होने एवं मनोनुकूल परिणाम न मिलने पर मनुष्य हताशा और निराशा के गहरे गर्त में समा जाता है।

कर्मयोग के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- निरन्तर कर्म करना पर उसमें पूर्ण अनासक्ति यही है जीवन का केन्द्रीय भाव। चाहे परिस्थितियाँ कितनी ही दुरूह व कंटकाकीर्ण क्यों न हों, यहाँ तक कि मौत के मुँह में जाकर भी बिना तर्क वितर्क किए मानव एवं मानवता की सेवा और सहायता के लिए तत्पर रहो। क्षुद्र स्वार्थों की बेड़ियाँ तोड़ दो, भले ही वे सोने की ही क्यों न हों? सम्पूर्ण विश्व शिव का स्वरूप ही है। आसक्ति को त्याग कर आत्मबल का अवलम्बन लेकर इसकी सेवा करना, इसे उत्कृष्ट बनाना ही कर्मयोग का सही स्वरूप है। “शिव भावे जीव सेवा” इस महामंत्र को हृदयंगम करने पर ही कर्मयोग की व्याख्या समझ में आ सकती है।

निष्काम कर्मयोग के संदर्भ में कुछ लोग भ्रान्त धारणाएँ बना बैठे है। ये लोग विवेक को ताक पर रख कर रहते हैं कि जो भी कर्म हम करते हैं उनका कराने वाला तो परमात्मा है। यह काम अच्छा है या बुरा इससे हमें क्या चिन्ता? इस भ्रान्त धारणा के पोषण करने से मनुष्य कर्म और अकर्म के बीच विभेद नहीं कर पाता। होता यह है कि मन की निम्नगामी प्रवृत्तियाँ पूरी तरह स्वतंत्र हो जाती है। फलतः उत्थान की जगह पतन का पथ ही प्रशस्त होता है।

परमात्मा जो सृष्टि का नियामक और समूची सृष्टि का संचालक है, उसने मानव को विवेक बुद्धि प्रदान कर कर्मों का अधिष्ठाता बनाया है। उसे कर्म करने की पूरी स्वतंत्रता है। चाहे तो वह सत्कर्मों का सत्पथ अपना कर आत्मिक प्रगति के आलोकमय पथ पर चले अथवा दुष्कर्मों के कुमार्ग पर चलकर अवनति और पतन के गहरे अंधेरे गर्त में समा जाय। भले-बुरे कर्मों का उत्तरदायी मनुष्य ही है न कि परमात्मा। ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ से युक्त परमसत्ता भला दुष्कर्मों की प्रेरणाएँ दे भी कैसे सकती है? ऐसी प्रेरणाएँ तो मनुष्य के अपवित्र एवं कलुषित मन की उपज है। उस दिव्य सत्ता का प्रतीक प्रतिनिधि आत्मा तो हर एक के अन्दर विराजमान है जो नित्य-निरन्तर उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ सम्प्रेषित करता है। जो मन की उपेक्षा-अवहेलना के कारण व्यवहार जगत में नहीं आ पाती है। अतएव कर्माकर्म का दायित्व अपने ऊपर न मानना निष्काम कर्मयोग के अर्थ का अनर्थ करना ही है।

अनासक्त कर्मयोग- यह शब्द ही अपना वास्तविक अर्थ सुस्पष्ट करता है। अनासक्ति का तात्पर्य है-राग, द्वेष से विरति। कोई भी कर्म चाहे वह छोटा हो या बड़ा किया जाय तो उसमें कर्तव्य का शुद्र अभिमान न जोड़ा जाय। यह अभिमान ही पापों का मूल है और उसकी उत्पत्ति का एक मात्र कारण है-आसक्ति। दूसरा शब्द है कर्मयोग। गीताकार ने इसकी व्याख्या “योग कर्मसु कौशलम्” अर्थात् कर्मों में कुशलता ही योग है- कहर कर की है और कार्य कुशल वहीं हो सकता है जिसे अनुचित और उचित कर्मों के अन्तर का परिपूर्ण ज्ञान हो। इस कुशल शब्द में वस्तुतः सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की त्रिवेणी प्रवाहित है। अतएव कार्य कुशलता में किसी भी तरह अशुभ-अशिव की गुंजाइश ही नहीं है। अनासक्त कर्मयोग का सही माने में तात्पर्य यही है कि काम को पूरी कुशलता के साथ शुद्र अहंकार का त्याग कर किया जाय और उसके फल में स्पृहा न हो। इस निष्काम कर्म योग के तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करके इस सुप्रशस्त, भागवती चेतना के दिव्य आलोक से अलोकित राजमार्ग पर चलकर कोई भी इस संसार में रहते हुए आत्मिक उत्कर्ष के चरम शिखर पर आरुढ़ हो सकता है और जीवन मुक्ति का, परमानंद का रसास्वादन कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118