मनुष्य का शरीर तो सामान्य है और उसकी क्षमता भी सीमित है। वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के सहारे जो कुछ बन पड़ता है, वही करता है। कर्मेन्द्रियों हाथ, पैर आदि क्रियारत रहती है और ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जो समीपवर्ती है, वह देखा सुना सूँघ-चखा जाता है। उस आधार पर जानकारियाँ बढ़ती है और बुद्धिमत्ता का विकास होता है। शरीर के यह दो कर्म और ज्ञान पक्ष है। शेष संचालन तंत्र है, जो रेलगाड़ी में कोयला पानी जलाकर भाप बनाने की शक्ति चमड़े के आवरण में ढके हुए, अपना अपना काम करते रहते हैं। मोटी दृष्टि से शरीर यही है। इसको दुर्बलता और रुग्णता से बचाना पड़ता है। तभी वह अपना भीतरी और बाहरी काम ठीक प्रकार कर सकता है।
साधना विज्ञान का प्रथम पक्ष यही से आरम्भ होता है कि शरीर को निरोग और सक्षम रखा जाय। इस निमित्त शारीरिक और मानसिक संयम की आवश्यकता पड़ती है। यदि उस ओर उपेक्षा बरती जाय तो कष्ट पीड़ित शरीर अपने आप तक को स्थिर नहीं रख पाता फिर उससे योगाभ्यास जैसे उच्च प्रयोजनों की साधना कैसे सम्भव हो?
इसलिए साधक को यह पाठ पढ़ाया जाता है कि वह उस शरीर उपकरण को सही बना ले, जिससे कि साधन समर लड़ा जाने वाला है। तलवार जंग लगी और बिना धार की हो तो उससे युद्ध मोर्चे पर विजय पाना कठिन है। जो लोग छलाँग मार कर सबसे पहले कुण्डलिनी जगाना चाहते हैं, वे क्रमिक विकास के सिद्धान्त को भूल जाते हैं विद्यार्थी को एक एक कक्षा पास करते हुए स्नातक बनाना पड़ता है। छत पर चढ़ने के लिए एक एक सीढ़ी चढ़नी पड़ती होती है। बीज से अंकुर, अंकुर से पौधा, पौधे से वृक्ष बनाता है यह सब क्रमिक योजना है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ही अष्टाँग योग में आसन, प्राणायाम का विधान बताया गया है। और यम नियम के परिपालन की आवश्यकता पर सर्वप्रथम जोर दिया है। वर्णमाला और गणित ही सर्व प्रथम पढ़ने पड़ते हैं आगे की पढ़ाई इसके बाद चलती है। इसलिए स्वास्थ्य संपादन को भी योगाभ्यास का प्रथम और प्रमुख अंग माना गया है। जिसकी नींव ही कमजोर रहेगी उस पर सुदृढ़ मकान कैसे बन सकेगा? जड़ें खोखली होने पर पेड़ कितने दिन खड़ा रहेगा। व्यक्तित्व की सक्षमता और प्रखरता के लिए स्वास्थ्य संपादन सर्वप्रथम आवश्यक है। उसकी उपेक्षा करके योगाभ्यास करने वालों को सफलता नहीं मिलती। न उनको मन योग में एकाग्र हो पाता है और न शरीर में तप साधना करने के लिए उपयुक्त साह और संकल्प बन ही संचित हो पाता है। ऐसी दशा में साधना परक सफलता कैसे मिल?
साधनाओं में इन्द्रिय साधना प्रमुख है। इन्द्रिय साधनाओं में भी दो की प्रधानता है- एक जिव्हा दूसरी ज्ञानेन्द्रिय। यही दो ऐसी है जो स्वास्थ्य पर दुहरी कुल्हाड़ी चलाती है। यदि इन दो पर अंकुश रखा तो समझना चाहिए कि आधी में से आधी मंजिल पूरी हो गई। नींव गहरी और मजबूत जम गई, अब इस पर भवन उठाने का कार्य धीरे-धीरे होता रहे तो भी हर्ज नहीं। नींव का कच्चा रहना ही वह जोखिम है, जिसके कारण भव्य और बहुमूल्य भवन भी गहरा कर नीचे गिर सकता है।
जिव्हा पर काबू करने के लिए सर्वप्रथम मनोबल उसी से जूझने की प्रक्रिया द्वारा परिपक्व करना पड़ता है जब से दूध छोड़, अन्नप्राशन आरम्भ किया जाता है तभी से जिव्हा को दुर्व्यसनी बनने की आदत डाली गई है। तरह तरह के जायकों का नशेबाजी जैसा चस्का लगाया गया है। नमक, शक्कर, मसाले और चिकनाई इन चोरों में से कइयों का सम्मिश्रण हमारे भोजन में होता है। आरम्भ में तो बच्चा मिर्च जैसी वस्तुएँ लेने में कष्ट अनुभव करता है। शक्कर खाने पर भी उसके मुँह से लार स्रवित होने लगती है। किन्तु वही चौके में बनता है, वही पूरे परिवार द्वारा खाया और खिलाया जाता है उपहार में भी इसी प्रकार की वस्तुएँ दी दी जाती है, तीज त्यौहारों पर और मेहमानों के लिए ही वही अगड़म बगड़म बनता है, तो बच्चों को भी वही खाना पड़ता है। इसके उपराँत ढर्रा चल पढ़ता है और नशे बाजी जैसी आदत पड़ जाती है जो छुड़ाए नहीं छूटती। फिर मनाही की बात की जाय तो यही एक उत्तर दिया जाता है कि यह वस्तुएं तो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। इनका तो संतुलित भोजन के नाम पर डाक्टर भी समर्थन करते हैं, फिर इन्हें छोड़कर क्यों मन मारा जाय। और क्यों स्वजनों का आग्रह टाला जाय?
इतने पर भी तथ्य यथास्थान ही रहते हैं। स्वाद के नाम पर अभक्ष्य खाया जाता है और वह भी जायके जायके में पेट में अधिक मात्रा में पहुंच जाता है। पाचक रस उतने स्रवित नहीं होते। फलतः वह पेट में पड़ा सड़ने लगता है। अपच की व्यथा लग जाती है और सड़ा हुआ हार विष बन कर दूषित रक्त बनाता है। उसी को विजातीय द्रव्य कहते हैं, उसे जहाँ कही जगह मिलती है वही रुक जाता है और चित्र विचित्र लक्षणों वाले नामों से इसका निदान एवं उपचार चल पड़ता है। वस्तुतः रोग का कारण और स्वरूप एक ही है और उसका सबसे बड़ा कारण अपच है जो स्वाद के कारण अधिक मात्रा में अन्न को पेट में ठूँस लेने से उत्पन्न होता है। उपचार यही से होना चाहिए और भोजन को सात्विक बनाया जाना चाहिए।
आध्यात्मिक साधनाओं में सब से अधिक प्रचलित व्रत उपवास है। एकादशी, रविवार, पर्व त्यौहार, देवताओं का जन्म-जयन्ती आदि में उपवासों का विधान है। कितने ही उपवास महिलाएँ सुहाग के लिए रहती है कुछ किसी कामना से, कुछ किसी प्रतिबन्ध से। कन्यादान के दिन माता पिता के उपवास रखना पड़ता है। इसका तात्पर्य आध्यात्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के अतिरिक्त यह भी है कि पेट को बीच बची में छुट्टी देते रहा जाय। उसे निरन्तर न जोते रखा जाय। इससे अपच को घटाने में सहायता मिलती है, उस दिन जो खाया जाता है उसे फलाहार कहते हैं। भले ही वह मावा, मिठाई, या चाट पकौड़ी के रूप में ही क्यों न हो? वस्तुतः उस दिन जल पर रहा जाय। काम न चले तो दूध, छाछ, रस, जैसी पतली वस्तुएँ ली जा कसती है। ऐसी उपवास साधना वस्तुतः योगाभ्यास का प्रथम चरण है। चान्द्रायण-कृच्छ चान्द्रायण आदि व्रत इसी निमित्त कराये जाते हैं। अनुष्ठानों में उपवास करने फलाहार पर रहने का ही विधान है।
गाँधी जी ने अपनी सत्य महाव्रत पुस्तक में “‘अस्वाद’ को प्रथम व्रत बताया है और कहा है कि यदि स्वादों पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो अन्य इन्द्रियों का संयम सरल हो जाता है। अस्वाद का तात्पर्य नमक छोड़ना ही नहीं, शक्कर, चिकनाई और मसाले छोड़ना भी है, क्योंकि यह सभी मानवी संरचना की दृष्टि से अखाद्य है। इन सब में उस विकृत स्वाद का समावेश है जो प्रकारान्तर के जिम्मेदार है। इन्हें छोड़कर जो भी पेय स्तर पर भोजन लिया जाय वह उपवास में फलाहार के विधान की पूर्ति करता है। जल्दी हजम होने वाले फल या शाक भी सीमित मात्रा में उपवास जल पर न चल सकने की स्थित में लिये जा सकते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञों ने इस संदर्भ में एनीमा की आवश्यकता को और सम्मिलित किया है। उनका कहना है कि आहार की छुट्टी करने की तरह से पेट में संचित मल का निष्कासन आवश्यक है। जिन्हें एनीमा में झंझट मालूम पड़े वे हरड, सनाय, ईसबगोल की भूसी आदि रचक वस्तुएं लेकर पेट साफ कर सकते हैं।
यह तो सामयिक बाते हुई। वस्तुतः हमारे दैनिक आहार में से हानिकारक स्वादों का एक प्रकार से विसर्जन ही कर दिया जाना चाहिए। सस्ते फलों और शाकों में आम, अमरूद, बेर शहतूत, जामुन, खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, टमाटर, गाजर, भिण्डी आदि ऐसी है जिन्हें बिना उबाले ही खाया जा सकता है। कन्दो को तथा तोरी, लौकी जैसे शाकों को उबाला जा सकता है। अन्न और दालें भी उबाल कर खाई जा सकती है। इन सब में शरीर में घुलने लायक नमक और शक्कर पर्याप्त मात्रा में है। दूध, दही, की चिकनाई,घी, तेल की तुलना में सुपाच्य है। चिकनाई की आवश्यकता का तिल, मूँगफली, खोपरा, आदि को पानी में पीसकर काम चल सकता है। इस प्रकार योगाभ्यासी को जब तब उपवास और सामान्य समय में हल्के सात्विक आहार को भूख से कुछ कम मात्रा में लेते रहने का नियम बनाना चाहिए। रस एवं रसा को प्रधानता देनी चाहिए। यह उपवास क्रम साधारण जीवन निर्वाह का अंग बना लेने पर स्वास्थ्य सुधरेगा अनावश्यक वजन घट सकता है। पर जीवनी शक्ति का अनुपात निश्चित रूप से बढ़ेगा। योगाभ्यास के प्रथम चरण में इन्द्रिय निग्रह को अनिवार्य रूप से अपनाना पड़ता है क्योंकि जैसा खाये अन्न वैसा बने मन वाली उक्ति अक्षरशः सत्य है। तामसिक और राजसिक भोजन करने से न केवल शारीरिक स्वास्थ्य की जड़ खोली होती है वरन् उनका प्रभाव मानसिक स्तर पर भी पड़ता है। आहार के अनुरूप ही मानसिक स्तर पर भी पड़ता है। आहार के अनुरूप ही मानसिक स्थिति में तमोगुण छाया रहती है। चिन्ता, उद्विग्नता और आवेश का दौर चढ़ा रहता है। ऐसी स्थिति में न तो एकाग्रता सधती है और न ध्यान धारणा बन पड़ती है। इस विघ्न को जड़ से काटने के लिए आहार की सात्विकता पर सर्वप्रथम ध्यान देने की आवश्यकता है।
जो खाया गया, वह किस प्रकार कमाया गया। यह भी ध्यान देने योग्य है। बेईमान, बदमाशी, हरामखोरी, चोरी ठगी आदि के आधार पर जो कमाया गया है, वह भी कुधान्य है। आहार को हल्का सुपाच्य ही नहीं होना चाहिए। वरन् उसका उपार्जन भी नीतिपूर्वक किया हुआ होना चाहिए।
पकाने परोसने वाले के संस्कारों का भी आहार पर असत होता है। दुष्ट दुराचारी भी उसी प्रकार हेय है, जिस प्रकार खाज, दाद, कोढ़, क्षय आदि के रोगियों के हाथ का बना या परोसा हुआ भोजन अग्राह्य समझा जाता है।
सभी जानते हैं कि गंदगी की छूत लगती है। संक्रामक रोग एक से दूसरे पर धावा बोलते हैं इसी प्रकार कुसंस्कारी, कुकर्मी लोग संपर्क में आने वालों को अपनी छूत लगाते हैं। उसी प्रकार चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में जिन लोगों ने अनैतिकता भर रखी है, उनका प्रभाव भोजन पकाने और परोसने के माध्यम से भी ग्रहण करने वालों को प्रभावित कर सकता है। जिन होटलों में एक का प्रभाव दूसरे तक न पहुंचने देने के लिए उपयुक्त सावधानी नहीं बरती जाती, समुचित स्वच्छता नहीं रखी जाती, वहाँ का आहार भी साधना मार्ग पर चलने वालों के लिए विघ्न ही सिद्ध होता है। इसलिए आत्मिक प्रगति के लिए आहार ही सिद्ध होता है। इसलिए आत्मिक प्रगति के लिए आहार शुद्धि के सम्बन्ध में सर्वप्रथम ध्यान दिया जाना चाहिए।