मौन साधना की सिद्धि

October 1987

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दैनिक जीवन में जिस प्रकार शौच, स्नान, भोजन, शयन आदि की नित्य कर्म के रूप में आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार मानस शरीर और भाव शरीर को नित्य स्वच्छ बनाते रहने, उसमें अभीष्ट ऊर्जा उपलब्ध कराते रहने के लिए उपासनापरक साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें यदा-कदा कर लेने से काम नहीं चल सकता। वरन् उनका नित्य नियम बनाना पड़ता है। यदा-कदा किये जाने वाले कृत्य स्वभाव का अंग नहीं बन पाते। संस्कार स्तर तक पहुँच सकने में असमर्थ नहीं हो पाते। अस्पष्ट और अस्थिर प्रयास कौतुक, कौतूहल मात्र बन कर रह जाते हैं। किसी तथ्य की अन्तराल की गहराई तक उतरने के लिए यह आवश्यक है कि उस दिशा में सतत् प्रयत्न जारी रखे जायं। पहलवान, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, अभिनेता अपनी एकाग्रता को एक केन्द्र बिन्दु पर जमाये रहते हैं और सफलता की दिशा में अग्रसर होते हैं। यदि उनका मन विक्षोभग्रस्त रहे तो अस्थिरता उत्पन्न करने वाली लहरे उठती रहेगी। चंचलता कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध न होने देगी।

वार्तालाप में मात्र जिव्हा ही गतिशील नहीं रहती। मुख के भीतरी और बाहरी अवयव भी क्रियाशील रहते हैं। मस्तिष्क क्षेत्र के अनेक घटकों को उत्तेजित, सक्रिय बनाये रहना पड़ता है। यह अस्थिरता आवश्यक होती है। वक्तृता स्नायु संस्थान को झकझोर देती है। तनाव उत्पन्न करती है और पाचन तंत्र को अस्त व्यस्त करने से लेकर रक्ताभिषरण तक को प्रभावित करती है। वाचालों को अक्सर रक्तचाप की शिकायत रहने लगती है। उत्तेजनाजन्य तनाव से दाह और अनिद्रा जैसे विकार उठ खड़े होते हैं।

“कम खाना गम खाना” यह स्वास्थ्य संतुलन की दृष्टि से उपयोगी माना गया है। इससे अनेक उद्वेगों, विग्रहों से भी छुटकारा मिलता है। इसी के साथ एक कड़ी कम बोलने की भी जुड़नी चाहिए। अनावश्यक बक-झक भ्रांतियां उत्पन्न करती है और मन मुटाव के ऐसे आधार खड़े करती है जिनकी आवश्यकता न थी।

वाचालता पर अंकुश लगाने के लिए मौन साधना का अभ्यास थोड़ा लाभ दे सकेगा यह सच है। जितना गुड डाला जाय उतना ही मीठा होता है। जितना दाम खर्चा जाय उतना ही सामान मिलता है। जितना बीच बोया जाय उसी अनुपात से फसल काटने और उतना ही कोठा भरने का अवसर मिलता है। मौन मात्र दो घण्टे रोज साधा जाय या सप्ताह में मात्र दो घण्टे का क्रम रखा जाय तो उतना प्रयास भी निरर्थक नहीं जाता है। वाणी का असंयम रुकने से जीवनी शक्ति के अपव्यय से होने वाली क्षति में कमी आती है। बचत से सम्पन्नता बढ़ती है और आड़े समय में काम आती है। मौन साधना का यत्किंचित् प्रयास भी हर किस के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। उससे जीवनी शक्ति का भण्डार बढ़ता चला जाता है, भले ही वह सीमित प्रयास के कारण स्वल्प मात्रा में ही उपलब्ध क्यों न हो?

जिन्हें अवसर और अवकाश है, उन्हें मौन की अवधि भी बढ़ानी चाहिए और उसमें गम्भीरता भी लानी चाहिए। इस आधार पर मौन मात्र संयम ही नहीं रखता वरन् तपश्चर्या स्तर तक जा पहुँचता है और साधना से सिद्धि के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष चरितार्थ कर दिखाता है।

सामान्यतया मौन व्रत लेने वाले कुछ घण्टे जीभ को विराम देते हैं पर उनकी कल्पनाएँ इच्छाएँ उछलती ही रहती है। इसे उनकी भावभंगिमा को देखकर सहज जाना जा सकता है। मन की चंचलता शरीरगत चेष्टाओं से परिलक्षित होती है। अपना अभिप्राय संकेतों के माध्यम से प्रकट करते हुए उन्हें देखा जा सकता है। आंखें चारों ओर घूमती है। जिस-तिस वस्तु को देखने में अभिरुचि का होना स्पष्ट प्रकट होता है। शंका समाधान चलता रहता है। पूछने बताने का काम जीभ से तो नहीं होता। पर कागज कलम स्लेट, पेन्सिल के माध्यम से वार्तालाप प्रायः वैसा ही चलता रहता है जैसा कि बिना मौन वाले अपना कथन श्रवण चालू रखते हैं। मात्र जिव्हा को विराम मिलना भी किसी हद तक अच्छा तो है, पर उतने भर से वह लाभ नहीं मिलता जो मौन से तपश्चर्या के रूप में साधने पर हस्तगत होता है। इस अनुबंध में कल्पनाओं, कामनाओं, इच्छाओं और चेष्टाओं पर भी अंकुश लगाना पड़ता है। यह न किया जा सके तो मात्र जिव्हा को विराम देकर उसे थकने से बचाने का उपाय किया जाय। मन की चंचलता, इच्छा कामना, चेष्टा यथावत् बनी रहे तो वह मौन नहीं सधता उसे तपश्चर्या कहते हैं और उसके सहारे दिव्य वाणियाँ उभरती और अपने-अपने चमत्कार दिखाती है।

जिव्हा से उच्चरित होने वाली वाणी को “वैखरी” कहते हैं। इसमें मुँह बोलता है और कान सुनते हैं। मस्तिष्क उसका निष्कर्ष निकालता है। इसके उपराँत तीन वाणियाँ और है। मध्यमा, परा और पश्यन्ती। मध्यमान में मन बोलता है उसका परिचय चेहरे की भावभंगिमा से अंग संचालन पर आधारित संकेतों से समझा जा सकता है पराअन्तःकरण से भव संवेदनाओं के रूप में प्रकट होती है। उसे प्रसन्नता, खिन्नता, उदासी के रूप में क्रियान्वित होते देखा जाता है। इसका प्रभाव एक व्यक्ति से उठ कर दूसरे में प्रवेश करता है। इसके सहारे एक के विचार दूसरे के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं और उसका सम्प्रेषण की प्रतिक्रिया बटोर कर प्रेषक के पास वापस लौटते हैं। इसे मौन वार्तालाप भी कह सकते हैं इसमें चेहरे को देखकर अन्तराल को समझने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता।

पश्यन्ती विशुद्धतः आध्यात्मिक है। इसे देव वाणी भी कह सकते हैं। इसे आकाश वाणी, ब्रह्म वाणी भी कह सकते हैं। यह परा, चेतना के साथ टकराती है और वापस लौट कर उन समाचारों को देती है जो अदृश्य जगत के विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में सक्रिय रहते हैं। इसे अदृश्य दर्शन भी कह सकते हैं। इसी के माध्यम से देवतत्वों की पूरा चेतना के साथ सम्भाषण एवं आदान-प्रदान होता है।

ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती है। उनमें देखने, सूँघने, सुनने, चखने स्पर्श की सरसता अनुभव होती है। यह भौतिक रसास्वादन हैं पर यदि इन पंच देवों को साधना द्वारा सिद्ध कर लिया जाय तो वे अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में विकसित होती और अलौकिक अनुभूतियाँ प्रस्तुत करती है। दूरश्रवण दूरदर्शन, भविष्य ज्ञान, जन्मांतर बोध आदि का धनी बना जा सकता है। जिव्हा है तो एक पर वह दुहरा काम करती है वह देखने के लिए रसना रूप में और बोलने के लिए वाणी रूप में प्रयुक्त होती है इसे यदि मौन एवं अस्वाद के आधार पर दोनों रूपों में सिद्ध कर लिया जाय तो अन्तरंग और बहिरंग स्तर की दुहरी विभूतियों का रसास्वादन किया जा सकता है।

खेंचरी मुद्रा में जिव्हा को तालु से सटाकर ब्रह्मरंध्र सहस्र-दल-कमल में से टपकता सोमरस अमृत पान जैसी अनुभूति के साथ उपलब्ध किया जा सकता है” यह ओजस, तेजस और वर्चस् की त्रिधा उपलब्धि है। इसे देव अनुकम्पा की वर्षा के समतुल्य माना जाता है।

जिव्हा की दूसरी सिद्धि है- शाप और वरदान देने की क्षमता। साधारण वाणी जानकारियाँ देने भर के लिये काम आती है, पर तपः भूत जिव्हा सत्पात्रों पर सत्परिणामोँ की वरदान रूप में वर्षा करती है। यदा-कदा ऐसा भी आवश्यक हो जाता है कि बढ़ते हुए अनाचार को रोकने थामने के लिए उनके मार्ग में अवरोध खड़ा किया जाय। अभिशाप इसी को कहते हैं। मौन साधना द्वारा साधित की हुई जिव्हा उपरोक्त सभी प्रयोजनों की पूर्ति करती है।


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