तन्मेमनः शिवंसकल्पमस्तु

October 1987

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रेडियो प्रसारण में एक स्थान से बोले हुए शब्द आकाशीय तरंगों के माध्यम से सभी दिशाओं में दूर-दूर तक फैलते हैं। जहाँ भी उनको सुने जाने वाले यंत्र रखे होते हैं, वहाँ उन्हें आसानी से सुन लिया जाता है। दूरदर्शन में भी यही होता है। एक स्थान में दृश्यों को विद्युत शक्ति के सहारे आकाश में फेंका जाता है, वे दृश्य प्रकाश तरंगों के रूप में अन्तरिक्ष में बिखरते हैं। उन्हें जहाँ भी देखे जाने वाले उपकरण लगे होते हैं वही वे बटन दबाते ही दिखाई देने शुरू हो जाते हैं। मस्तिष्क भी इसी प्रकार का एक शक्ति उत्पादक केन्द्र है। यहाँ से विचार उठते हैं और वे समस्त आकाश में फैल जाते हैं, किन्तु वे पकड़ में वही आते हैं।, जहाँ उन्हें ग्रहण किये जाने हेतु अनुकूल स्थिति होती है।

अनुकूल स्थिति से तात्पर्य है- पकड़ने वाले मस्तिष्क की स्थिति लगभग वैसी होने चाहिए जैसी कि भेजने वाले की थी। दोनों के बीच समस्वरता होने पर भी आदान प्रदान का सिलसिला ठीक से चल पड़ता है। हर मस्तिष्क में भेजने और ग्रहण करने की क्षमता है। अन्तर इतना ही होता है कि किन्हीं मस्तिष्कों में विचार संचालन के उपयुक्त विद्युत शक्ति कम होती है और किन्हीं में बढ़ी चढ़ी। जिनमें सशक्तता होती है वे विचार संचालन ठीक प्रकार कर पाते हैं। पर यदि वह धीमी हो तो भी उठने वाले विचार फैलते तो है, पर उनकी सामर्थ्य इतनी नहीं होती कि उन्हें सुनने के इच्छुक आसानी से सुन सकें। कभी कभी मनुष्य की स्थिति उत्तेजना भरी होती है तब वह विचार संप्रेषण भी तीव्र हो जाता है और उसे झटके के साथ अप्रत्याशित रूप से सुना जा सकता है। ऐसे झटके शोक, दुर्घटना, उत्पीड़न, आपत्ति जैसी स्थिति में होते हैं। देखा गया है कि मरण के समय या किसी दुर्घटना में फँस जाने पर व्यक्ति चीत्कार जैसी मनः स्थिति में अपने घनिष्ठ सम्बन्धियों तक अपने विचार पहुँचाना चाहता है। उस समय उसकी ऊर्जा बढ़ी-चढ़ी होती है, अस्तु वे विचार भी विशिष्ट स्थान तक पहुँचने में बिना किसी अड़चन के सफल हो जाते हैं। ऐसी कितनी ही घटनाएँ सुनी गई है कि मरने वाले या दुर्घटनाग्रस्त किसी व्यक्ति ने अपने प्रियजन को याद किया और सुदूर बैठे उस व्यक्ति को अचानक वैसी ही अनुभूति हुई।

प्रिय पात्रों के बीच में विचारों का आदान-प्रदान चला रहता है। दूर-दूर तक रहने वाले प्रेमीजन अपनी भावनाओं को एक दूसरे तक पहुँचाते रहते हैं और वे अधिकतर सही अनुभूतियाँ होती है। मित्रता की तरह शत्रुता में भी यह गुण होता है। कारण यह कि शत्रु का व्यक्तित्व भी मित्र की तरह ही मस्तिष्क पर छाया रहता है। पारस्परिक तादात्म्य किसी प्रकार बन जाए तो दो व्यक्तियों के बीच विचार- संचालन का क्रम चल पड़ेगा। इस परिकर में दोनों के स्थान पर और भी कई व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं। संसार के अगणित स्थानों पर रेडियो, टेलीविजन प्रसारण यंत्र लगे है। वे अपनी कुछ न कुछ बात लगातार करते रहते हैं। इन्हें सुनने के लिए तनिक अधिक सशक्त ग्रहण यंत्र या ट्राँजिस्टर क्रिस्टल चाहिए। रेडियो-टेलीविजन में यह विशेषता है कि प्रसार के लिए बहुमूल्य यंत्र और अधिक बड़ी शक्ति की बिजली चाहिए। निकटवर्ती होने पर प्रसारण शक्ति न्यून होती है। विचारों के संप्रेषण में भी यह बात है। किसी के भेजे हुए विचार तो आकस्मिक स्मृति के रूप के अलावा स्वप्न में तन्द्रित स्थिति में भी अपनी झलक दिखा जाते हैं, किन्तु लम्बा संप्रेषण तभी सम्भव है जब प्रेरक का मनः क्षेत्र और अधिक सामर्थ्यवान हो जाए और जिसे कुछ बताना है, उसका ध्यान अन्यत्र लगा होने पर उसे रोक कर अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए सहयोगी बना लिया जाए।

आरम्भ में यह वैयक्तिक विचार संचरण समग्र एवं निर्दोष नहीं होता। उससे कुछ बाते प्रेषित तो होती है, पर कुछ ग्रहीता की निज की कल्पनाएँ भी मिल जाती है। इस प्रकार बात आधी-अधूरा रह जाती है, पर यह अभ्यास जारी रखा जाए। संप्रेषण का समय नियत रखा जाए। दोनों पक्ष उसकी तैयारी में संकल्पपूर्वक बैठे, तो उस प्रक्रिया में रहने वाली त्रुटियाँ घटती जायेगी और समग्रता बढ़ती आएगी।

यह व्यक्तिगत विचार संप्रेषण की बात हुई। इससे रेडियो, टेलीविजन का काम बिना किसी यंत्र की सहायता के हो सकता है। व्यक्तिगत विचार विनिमय में प्रायः निजी बाते रहती है, किन्तु पारमार्थिक विचारणाओं का घेरा विशेष रूप से बनाया जा सकता है। जिस एक प्रकार से एक विचारों का प्रभामण्डल या आयनोस्फियर कहा जा सकता है। जिस प्रकार सत्संग, गोष्ठी या सभी इत्यादि में एक वक्ता उस परिकर में उपस्थित अनेक लोगों को अपनी बात सुना सकता है, वैसा ही प्रयोग आदर्शवादी परामर्श के लिए नियमित व्यवस्था बनाकर उस प्रकार का प्रयोग किया जा सकता है। समर्थ आत्म विज्ञानी नियत समय पर नियमित रूप से अपने शिष्यों को परामर्श देते रहे है। अरुणाचल में महर्षि रमण जिन दिनों मौन रहते थे उन दिनों भी उनका मौन सत्संग चलता था। वे मौन स्थिति में ही अपनी परा-पश्यन्ति वाणी द्वारा प्रवचन करते थी। उपस्थित जन उस सूक्ष्म कथन की प्रतिध्वनि अपनी अपनी अन्तः चेतना में श्रवण किया करते थे। परस्पर पूछने पर बात एक ही मिलती थी। कि सबने क्या सुना, किस क्रम से किन किन प्रमाणों को उद्धरण सहित सुना। इस प्रकार का लाभ पहुंचाने में अन्य साधक भी निष्णात् हो सकते हैं।

कुविचारों का क्षेत्र बहुत बड़ा और अपेक्षाकृत अधिक सशक्त है। वह अनायास ही दुर्बल मन वालों को अपने चंगुल में फँसा लेते हैं। अपनी इच्छा के अनुरूप ढाल लेते हैं। गुरुत्वाकर्षण की शक्ति सहज ही अपना काम करती रहती है। ऊपर से गिरने वाले को लपक कर नीचे खींच लेती है। पानी ढलान की दिशा में अनायास ही बहने लगता है। इसी प्रकार कुविचार दुर्बल मस्तिष्क वालों पर अपना शासन सहज ही स्थापित कर लेते हैं।

सत्संग और कुसंग के बारे में उनका प्रभाव वर्णित करते हुए मनीषियों ने बहुत कुछ कहा है। उन्हें जिस प्रकार के वातावरण में रहना पड़ता है वे अनायास ही उस माहौल में ढले लगते हैं। ऋषियों के आश्रम में समीपवर्ती क्षेत्र में सिंह और गाय एक घाट पानी पीते थे। कारण इतना भर था कि प्राणवान तपस्वियों की आत्मप्रेरणा उस क्षेत्र के पशु पक्षियों तक को प्रभावित करती थी और वे अपना स्वाभाविक बैर भाव भूल जाते थे। स्वभाव के विपरीत स्नेह सौजन्य के साथ रहने लगते थे। यह प्रयोग मनुष्यों पर भी हो सकता है। कोई सामर्थ्यवान अध्यात्मवेत्ता विपरीत विचार वालों को अपने प्रभाव से प्रभावित करके अपने ढाँचे में ढाल सकते हैं। आसुरी प्रवृत्ति वालों का प्रभाव और भी अधिक बढ़ा चढ़ा रहता है। दुर्गुणी दुर्व्यसनी, अनाचारी अपने समीपवर्ती लोगों में से अनेक को अपनी कुटेव लगा देते हैं। इसके लिए उन्हें कुछ विशेष कहना समझाना नहीं पड़ता। बुरे लोग बुरे प्रयोजनों के लिए ढुलमुल मन वालों को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं परन्तु कुटेवें छुटाने के लिए आदर्शों में प्रवृत्त करने के लिए अधिक बढ़ी चढ़ी सामर्थ्य चाहिए। वही उन्हीं में उत्पन्न होती है, जिनका चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ऊँचे दर्जे का होता है। जिनकी प्राण-विद्युत साधना प्रयोगों द्वारा बढ़ाकर ऊँची स्थिति में पहुँचायी गयी होती है।


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