सिंहासन बतीसी

October 1987

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भारतीय कथा साहित्य बहूमूल्य मणिमुक्तकों से भरा पड़ा है। मात्र मनोरंजन के लिए ही उनका सृजन नहीं किया गया। कथाओं के मूल में जीवन कला के महत्वपूर्ण सूत्र छिपे रहते थे, ताकि जन साधारण बोधगम्य भाषा से इन्हें सुन-समझकर तदनुसार अपनी जीवनचर्या बना सके। फैटेसी या कल्पना लोक की दुनिया में जाने वाला चित्रण करने वाले बहुधा इस तथ्य को भूल जाते हैं। स्वयं भी उस मृगमरीचिका में उलझ जाते हैं कथा वांग्मय में से एक कथा शृंखला सिंहासन बतीसी की भी है।

कुछ किशोर गड़रियों जंगल में भेड़ें चरा रहे थे। वहाँ घास तो बहुत थी, पर कही-कही पुराने टीले खण्डहर भी थे कौतूहल में लड़के उन टीलों पर चढ़ जाते और खेतले मस्ती करते।

इन टीलों में से एक बड़ा विचित्र था। उस पर जो कोई बैठ जाता वह विद्वानों जैसी बाते कहने लगता। साथी आश्चर्य करते कि अशिक्षित होते हुए भी ऐसी वार्ता किस प्रकार सम्भव होती है। सभी लड़के बारी बारी बैठते। जो बैठता वही विद्वान की भूमिका निभाने लगता।

टीले में कोई विशेषता होनी चाहिए। यह प्रसंग राजा भोज तक पहुँचा। उन्हें स्वयं आश्चर्य हुआ। दरबारियों को साथ लेकर वे वहाँ पहुंचे। उन लोगों ने भी बैठकर देखा तो जो सुना था वह बहुत सही निकला। जो भी दरबारी वहाँ बैठता वही असाधारण विद्वता से सम्पन्न हो जाता।

टीले की खुदाई कराई गई। उसमें एक भव्य स्वर्ण सिंहासन निकला। पायों की आकृति अप्सराओं जैसी थी। सभी ने विचार किया इस बहुमूल्य सिंहासन की मरम्मत कराई जाय और उसे राजा भोज के लिए बैठने का सिंहासन बनाया जाए। ऐसा ही किया भी गया। अभिषेक की तिथि निश्चित की गई। उस दिन सम्भ्रान्त नागरिकों को बुलाया गया और उत्सव कराया गया। जैसे ही राजा ने एक पैर सिंहासन पर रखा वैसे ही पायों में लगी अप्सरा की आकृति वाली एक पुतली मनुष्य की तरह बोलने लगी। उसने कहा यह सिंहासन राजा विक्रमादित्य का है। उनके जैसे गुण हो तो ही इस पर बैठना। उतनी पात्रता ने होने पर बैठने का प्रयास करने में अनर्थ होगा।

राजा ने पूछा विक्रमादित्य में क्या क्या गुण थे। पुतली ने घटनाक्रम समेत एक विशेषता का वर्णन किया। राजा ने अपने को उस योग्य नहीं देखा और अभिषेक स्थगित कर दिया गया। दूसरे दिन भोज ने वही साहस फिर किया आज दूसरी पुतली बोलने लगी और विक्रमादित्य का दूसरा गुण बताया और वह विशेषता होने पर ही मंच बैठने की बात कही। इसी प्रकार बत्तीस दिन तक वही क्रम चलता रहा। नित्य एक पुतली विक्रमादित्य की एक विशेषता बताती। भोज आत्म निरीक्षण करते तो उस प्रकार के गुण अपने में न पाते।


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