सिद्ध क्षेत्र हिमालय

October 1987

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पदार्थों और प्राणियों के जीवकोशों- परमाणुओं में मध्यवर्ती नाभिक “न्यूक्लियस” होते हैं उन्हीं को शक्ति स्त्रोत कहा गया है। चारों और घिरे हुए परिकर को उसी उद्गम से सामर्थ्य मिलती है और अवयवों की सक्रियता गतिशील रहती है। यह घिरा हुआ परिकर गोल भी हो सकता है और चपटा अण्डाकार भी। यह संरचना और परिस्थितियों पर निर्भर है।

पृथ्वी का नाभिक उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव की परिधि में मध्य स्थान पर है। उसके दोनों सिरे अनेकानेक विचित्रताओं का परिचय देते हैं। उत्तरी ध्रुव लोक लोकान्तरों से कास्मिक ब्रह्माण्डीय किरणों को खींचता है। जितनी पृथ्वी को आवश्यकता है, उतनी अवशोषित करता है और शेष को दक्षिणी ध्रुव मार्ग से अन्तरिक्ष में निस्सृत कर देता है। इन दोनों छिद्रों का आवरण मोटी हिम परत से घिरा रहता है। इन सिरों को सुदृढ़ रक्षा कवच एवं भंडारण में प्रयुक्त होने वाली तिजोरी की उपमा दी जा सकती है प्राणियों के शरीरों और पदार्थ परमाणुओं से भी यही व्यवस्था देखी जाती है अपने सौर मण्डल का नाभिक सूर्य है। अन्य ग्रह उसी की प्रेरणा से प्रेरित होकर अपनी अपनी धुरियों और कक्षाओं में भ्रमण करते हैं।

नाभिक की सत्ता, महत्ता और स्थिति के बारे में इतना समझ लेने के उपराँत प्रकृति से आगे बढ़कर चेतना क्षेत्र पर विचार करना चाहिए। उसका भी नाभिक होता है। ब्रह्माण्डीय चेतना का ध्रुव केन्द्र कहाँ हो सकता है? इसके सम्बन्ध में वैज्ञानिकों में से अधिकाँश का प्रतिपादन ध्रुव तारे से सम्बन्ध है। वह दूर तो है ही, स्थिर भी प्रतीत होता है। उसका स्थान ब्रह्माण्ड का मध्यवर्ती भाग माना जाता रहा है, अभी भी उसमें संदेह भर किया जाता रहा है। किसी ने प्रत्यक्ष खण्डन करने का साहस नहीं किया।

पृथ्वी की पदार्थ सम्पदा का नाभिक जिस प्रकार ध्रुव केन्द्र है, उसी प्रकार चेतना प्रवाह का मध्य बिन्दु नाभिक हिमालय के उस विशेष क्षेत्र को माना गया है, जिसे हिमालय का हृदय कहते हैं। भौगोलिक दृष्टि से उसे उत्तराखण्ड से लेकर कैलाश पर्वत तक बिखरा हुआ माना जा सकता है। इसका प्रमाण यह है कि देवताओं यज्ञ गंधर्वों, सिद्ध पुरुषों का निवास इसी क्षेत्र में पाया जाता रहा है। इतिहास पुराणों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र को देवभूमि कहा और स्वर्गवत् माना जाता रहा है। सामान्य वन पर्वतों भूखण्डों की तुलना में इस क्षेत्र की चेतनात्मक महत्ता विशेष रूप में आँकी गई है। उच्चस्तरीय सचेतन प्राण प्रवाह इस क्षेत्र में बहुलता पूर्वक पाया गया है। आध्यात्मिक शोधों के लिए, साधनाओं सूक्ष्म शरीरों को विशिष्ट स्थिति में बनाये रखने के लिए वह विशेष रूप से उपयुक्त है। उस क्षेत्र में सूक्ष्म शरीर इस स्थिति में बने रह सकते हैं, जो यथा अवसर आवश्यकतानुसार अपने को स्थूल शरीर में भी परिणत कर सकें और उस स्तर के लोगों के साथ विचार विनिमय कर सकें। एक दूसरे को सहयोग देकर किसी बड़ी योजना को कार्यान्वित कर सकें।

सिद्ध पुरुषों के कई स्तर है, जिनमें यज्ञ, गंधर्व प्रमुख है। खलनायकों की भूमिका निभाने वालों को दैत्य या भैरव कहते हैं। उनकी प्रवृत्ति तोड़−फोड़ में अधिक होती है जबकि यज्ञ राजष्ज्ञि स्तर के होते हैं। गंधर्व कलाकार स्तर के। सिद्ध पुरुषों का ही बढ़ा-चढ़ा योगदान रहता है। इसलिए उनकी समीपता, सहायता के लिए ऐसी अभ्यर्थनाएं की जाती है जो उन्हें प्रभावित या आकर्षित कर सके। जिनका जिन्हें विशेष अनुग्रह प्राप्त होने लगता है वे उन्हें “देव” भी कहने लगते हैं। यों ईश्वर की अनन्त शक्तियों को अपनी अपनी विशेषताओं के कारण देव नाम से जाना जाता है। वे अदृश्य होती है। फिर भी ध्यान साधने के लिए, संपर्क सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उन्हें अलंकारिक रूप से किसी आकार की मान्यता दी जाती है।

आकार के बिना न तो ध्यान बन सकता है और न तादात्म्य स्थापित हो सकता है। इसलिए निराकार की अभ्यर्थना के लिए उनके साकार रूपों की प्रतिष्ठापना की गई है। पूजा प्रयोजनों में देवालय स्थापना में इन्हीं विकसित प्रतिमाओं का प्रयोग होता है। इनकी समर्थता में दैवी शक्ति के अतिरिक्त साधक की श्रद्धा सघनता का भारी महत्व है श्रद्धा के बिना देवी विभूतियों को आकर्षित स्थापित नहीं किया जा सकता। रामचरित मानस के प्रणेता ने तो श्रद्धा विश्वास को ‘भवानी शंकर” की उपमा दी है। वह बहुत हद तक सही भी है। झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप बन जाता है। और मान्यता के अनुरूप भयानक प्रतिफल प्रस्तुत होते हैं इसी प्रकार उच्चस्तरीय श्रद्धा भी देव दर्शन कराती है। एकलव्य के मिट्टी से बनाये गये द्रोणाचार्य, मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली के उदाहरण ऐसे ही हैं, उनमें जड़ प्रतिमाओं ने समर्थ चेतन जैसी भूमिकाएँ सम्पन्न की। फिर सचेतन को देवता या सिद्ध पुरुष स्तर तक पहुँचाने की संभावना सुनिश्चित होने में संदेह क्यों किया जाए?

यह चर्चा भावना के अनुरूप देव पुरुषों की सिद्ध पुरुषों की सत्ता विनिर्मित करने की हुई। मुख्य प्रश्न यह है कि श्रद्धा के अभाव में भी सत्ताएँ अपने क्रिया कलाप जारी रख सकती है या नहीं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वे अपनी इच्छानुरूप अभीष्ट गतिविधियां बिना किसी रोक-टोक के क्रियाशील रखे रख सकती है। आवश्यकतानुसार वे अपने सूक्ष्म शरीर की स्थूल शरीर में भी बदलती रहती है। मनुष्यों के साथ संपर्क साधने में उन्हें विशेषतया प्रकट स्वरूप बनाना पड़ता है। पर वह कुछ समय के लिए ही होता है। उनकी स्वाभाविक स्थिति सूक्ष्म शरीर में ही बने रहने की होती है। इसलिए निश्चित प्रयोजन पूरा करने के उपराँत वे पुनः अपनी स्वाभाविक स्थिति को अपना लेती है। सूक्ष्म स्थिति में चली जाती है। स्थूल शरीर का कलेवर बना कर रहना उन्हें सुविधाजनक प्रतीत होता है। कारण कि उसके लिए उन्हें ऋतु प्रभाव से बचने, आहार, जल आदि की व्यवस्था जुटाने के लिए विशेष स्तर का प्रबन्ध करना पड़ता है इस झंझट भरी व्यवस्था को वे थोड़े समय के लिए स्वीकारते हैं, और अभीष्ट की पूर्ति के उपराँत बिना झंझट वाली सूक्ष्म स्थिति चले जाते हैं।

मरने के उपराँत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीर में करना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता सहज एवं सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है। मरणोपरान्त की थकान दूर करने के उपराँत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें जन्म धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है। इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए भी व्यतीत करना पड़ता है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए भी व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएँ अपने मित्रों, शत्रुओं परिवारियों एवं परिचितों को सहज ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती है। प्रेतों की अशाँत मनः स्थिति सम्बद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं पितर वे होते हैं, जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावतः सेवा सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपने परायों को यथासंभव सहायता पहुँचाती रहती हैं। इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमंदों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएँ ऐसी सामने आती रहती है, जिनमें दैवी शक्तियों ने कठिन संकट में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।

सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि उनकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा एक हो जाती है। वे स्वेच्छा संकल्पपूर्वक कुछ काम नहीं करते। दैवी प्रेरणायें ही उनसे लोकहित के लिए विविध कार्य कराती रहती है। जिस प्रकार काया में संव्याप्त निराकार जीवात्मा अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य हाथ पैर वाणी आदि विभिन्न अवयवों के माध्यम से सम्पन्न कराती रहती है, उसी प्रकार दैवी प्रेरणा सिद्ध पुरुष को कठपुतली की तरह नचाती और सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप उनसे विविध कार्य कराती है। इस प्रकार निराकार सत्ता के साकार प्रयोजन सिद्ध पुरुषों के माध्यम से पूरे होते रहे है। ऐसे सिद्ध पुरुष को देवात्मा भी कहते हैं। वे शरीर के बंधनों में बंधे हुए नहीं होते। शरीर त्यागने के बाद उनका सूक्ष्म शरीर प्रायः उसी आकृति-प्रकृति का बना रहता है। उसकी स्थिति उनके संकल्पों के ऊपर निर्भर करती है। अस्तु समयानुसार वे उसमें परिवर्तन भी कर लेते हैं। जब उनसे दिव्य चेतना कोई महत्वपूर्ण कार्य कराता चाहती है तो नियत समय पर, नियत स्थान पर, नियत साधनों के साथ उन्हें जन्म धारणा करने के लिए निर्देश करती है। ऐसे लोग महामानव स्तर के होते हैं। बचपन में दबाव उप नर अधिक समय नहीं रहता। लम्बी अवधि तक अबोध नहीं बने रहते। किशोरावस्था से ही उनकी विशिष्ठ गति विधियाँ आरम्भ हो जाती है। दिग्भ्रांत नहीं होना पड़ता है। वातावरण के प्रभाव से वे प्रभावित नहीं होते, वरन् अपनी आत्मिक प्रखरता के आधार पर वातावरण को प्रभावित करते हैं। परिस्थितियाँ उनके मार्ग में बाधक नहीं बनती वरन् वे परिस्थितियों के प्रतिकूल होते हुए भी उन्हें अनुकूलता के ढाँचे में ढालते हैं। हवा के साथ सूखे पत्तों की तरह उड़ते नहीं फिरते वरन् पानी की धार चीरते हुए उल्टी दिशा में चल सकने वाली मछली जैसा अपने पुरुषार्थ का परिचय देते हैं। वे आदर्शवादी जीवन जीते और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय, अविस्मरणीय, अभिनंदनीय उदाहरण छोड़ते हैं।

सिद्ध पुरुष यों संसार के किसी भी भाग में पाये जा सकते हैं। पृथ्वी के हर खण्ड में स्थूल शरीर धारी महामानव और सूक्ष्म शरीर द्वारा अपनी गतिविधियाँ कार्यान्वित करने वाले सिद्ध पुरुष प्रकट होते रहे है। इस दृष्टि से कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसे ऊसर कहा जा सकें। फिर भी विशेषता की विपुलता किसी क्षेत्र विशेष के साथ जुड़ी रहती देखी जाती है। वृक्ष, वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव जन्तु हर क्षेत्र में अपनी-अपनी विशेषता, भिन्नता लिए हुए जन्मते हैं। सर्वत्र एक जैसा उत्पादन नहीं होता इसी प्रकार सिद्ध पुरुषों की उत्कृष्टता एवं बहुलता हिमालय के ध्रुव केन्द्र के इर्द-गिर्द ही पाई जाती है अनेक विशिष्ट जड़ी बूटियाँ विशेष क्षेत्र में ही उपजती और उसी परिधि में जीवित रहती है। सोमवल्ली, संजीवनी बूटी, अरुन्धती, ब्रह्मकमल जैसी वनस्पतियाँ हिमालय के एक विशेष क्षेत्र में पाई जाती है। यदि उन्हें अन्यत्र कहीं लगाया जाय तो, उनका जीवित रहना संभव नहीं। इसी प्रकार पृथ्वी के ध्रुव केन्द्र हिमालय के एक विशेष भाग में ही उच्चस्तरीय दिव्य आत्मा का बाहुल्य पाया जाता है। उन्हें अन्य भू-खण्ड रास नहीं आते। जैसा पोषण, वातावरण मिलता चाहिए, वैसा अन्यत्र से नहीं मिलता। इसलिए अपनी सुविधा तथा अपने स्तर की अन्य आत्माओं की उपस्थिति देखते हुए उनका निवास इसी क्षेत्र में रहता है। वे धरातल के समस्त क्षेत्रों से लोक-लोकान्तरों से आकर यहाँ रह कर जिस सुविधा के साथ संपर्क बनाये रहते हैं, ऐसी सुविधा उन्हें अन्यत्र नहीं मिलती। यही कारण है कि हिमालय का देवात्मा भाग एक प्रकार से सिद्ध क्षेत्र बन गया है।


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