भगवान बुद्ध एक बार आनन्द के साथ सघन वन से होकर गुजर रहे थे। रास्ते में बातचीत भी चल रही थी। आनन्द ने पूछा- देव। आप तो ज्ञान के भण्डार है। आपने जो जाना, क्या उसे हमें बता दिया।
बुद्ध ने उल्टे पूछा- इस जंगल में भूमि पर कितने सूखे पत्ते पड़े होगे? फिर हम जिस वृक्ष के नीचे खड़े है उस पर चिपके सूखे पत्तों की संख्या कितनी होगी? इसके बाद अपने पैरों तले जो अभी पड़े है। वे कितने हो सकती है?
आनन्द इन प्रश्नों का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थे। मौन तोड़ते हुए तथागत ने स्वयं ही कहा- ज्ञान का विस्तार इतना है, जितना इस वन प्रदेश में बिछे हुए सुखे पत्तों की संख्या मैंने उतना जाना अपने पैरों के नीचे कुछेक पत्तों का समूह पड़ा है।
ज्ञान की अनन्तता को समझते हुए उसे निरन्तर खोजते और जितना मिल सके उतना समेटते रहने में ही बुद्धिमत्ता है।