आनन्द कहाँ? अपनी ही मुट्ठी में

October 1987

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भगवान बुद्ध से एक बार श्रेष्ठी सुमन्तक ने पूछा- “मन्ते।” अक्षय आनन्द की प्राप्ति का क्या उपाय है? इस पर तथागत से उत्तर दिया- इच्छाओं को त्याग करना। प्रसंग को अधिक स्पष्ट कराने के लिए जिज्ञासु ने पूछा- बिना इच्छा के कोई कर्म तक नहीं हो सकता, फिर इच्छा न रहने से तो निष्क्रियता छा जायेगी और निर्वाह तक कठिन हो जायेगा।

भगवान ने विस्तार से बताया कि इच्छा त्याग से तात्पर्य बुद्धि एवं कर्म का परित्याग नहीं, वरन् व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं को छोड़कर आदर्शों के लिए काम करना है। शरीर रक्षा, परिवार पोषण एवं सामाजिक सुख-शाँति का ऊँचा उद्देश्य रखकर जो काम किये जायेंगे। उनमें स्वार्थान्धता नहीं रहेगी। न उनके लिए दुष्कर्म करने पड़ेंगे। सामर्थ्य भर प्रयत्न करने पर जितनी सफलता मिलेगी उसमें सन्तोष रखते हुए आगे का प्रयास जारी रखा जायगा। यही है इच्छाओं का त्याग। जिनमें किन्हीं आदर्शों का समावेश नहीं होता-लोभ और मोह की पूर्ति ही जिनका आधार होता है वे ही देय और त्याज्य मानी गई है।

ईमानदारी के साथ सदुद्देश्य लेकर मनोयोग पूर्वक श्रम किया जाय। वह कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य कर्म करने के उपराँत जो प्रतिफल सामने आये उससे प्रसन्न रहने का नाम सन्तोष है। सन्तोष का यह अर्थ नहीं है कि जो है उसी को पर्याप्त मान लिया, अधिक प्रगति एवं सफलता के लिए प्रयत्न ही न किया जाय। ऐसा सन्तोष तो अकर्मण्यता का पर्यायवाचक हो जायगा। इससे तो व्यक्ति दरिद्र रहेगा और समाज पर पिछड़ापन छाया रहेगा। पुरुषार्थ भरे उपार्जन में से व्यक्ति की प्रतिभा निखरती है और समाज की समृद्धि बढ़ती है।

दार्शनिक जैरोल्ड की परिभाषा के अनुसार सन्तोष निर्धनों का निजी बैंक है, जिसमें पर्याप्त धन भरा रहता है। जार्ज इलियट का मत भी इसी से मिलता जुलता है। वे कहते थे- “असंतोषी कभी अमीर नहीं हो सकता और संतोष के पास दरिद्रता फटक नहीं सकती।” उदार और दूरदर्शी मस्तिष्कों में संतोष का वैभव प्रचुर मात्रा में भरा रहता है। आनन्द की तलाश करने वालों को उसकी उपलब्धि सन्तोष के अतिरिक्त और किसी वस्तु या परिस्थिति में हो ही नहीं सकती। सुकरात ने एक बार अपने शिष्यों से कहा था- “संतोष ईश्वर प्रदत्त सम्पदा है और तृष्णा अज्ञान के अनुसार द्वारा थोपी गई निर्धनता”

परिणाम को आनंद का केन्द्र न मानकर यदि काम को उत्कृष्टता की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाय तो सदा उत्साह बना रहेगा और साथ ही आनन्द भी। कलाकार ब्राउनिंग करते थे- “हम किसी कार को छोटा न माने वरन् जो भी काम हाथ में है उसे इतने मनोयोग के साथ पूरा करें कि उसमें कर्त्ता के लिए श्रेय और सम्मान का कारण बनते हैं, भले ही वे अधिक महत्वपूर्ण न हो।” मनस्वी रस्किन की उक्ति है “काम के साथ अपने को तब तक रगड़ा जाय जब तक कि वह संतोष की सुगंध न बखेरने लगे।” वाल्टेयर ने लिखा है - “किसी काम का मूल्याँकन उसकी बाजारू कीमत के साथ नहीं, वरन् इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उसके पीछे कर्ता का क्या दृष्टिकोण और कितना मनोयोग जुड़ा रहा है। अब्राहम लिंकन का यह कथन कितना तथ्यपूर्ण है जिसमें उन्होंने कहा था - “हम जिस काम में जितना रस लेते हैं और मनोयोग लगाते हैं वह उतना ही अधिक आनन्ददायक बन जाता है।”

आनन्द के लिए किन्हीं वस्तुओं या परिस्थितियों को प्राप्त करना आवश्यक नहीं और न उसके लिए किन्हीं व्यक्तियों के अनुग्रह की आवश्यकता है। वह अपनी भीतरी उपज है। परिणाम में संतोष और कार्य में उत्कृष्टता का समावेश करके उसे कभी भी, कहीं भी और कितने ही बड़े परिमाण में पाया जा सकता है।


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