वयं राष्ट्रे जागृयामः पुरोहिताः

October 1987

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साँचा हाथ में हो तो उसके आधार पर धातुओं के पुर्जे या मिट्टी, मोम आदि के खिलौने ढाले जा सकते हैं। इस साँचे को ही लक्ष्य कहते हैं। लक्ष्य निश्चित होने पर दिशा निर्धारण होता है और उसे दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने पर मनुष्य अभीष्ट स्थिति तक पहुँचता है, हमारा लक्ष्य महानता होना चाहिए। महामानवों की मनःस्थिति कार्य पद्धति और उदार साहसिकता का किस प्रकार प्रयोग हुआ यह गंभीरतापूर्वक परखना चाहिए।

परिस्थितियाँ बदलती रहती है और उनके अनुरूप वष्ठों को अपनी गतिविधियों का निर्धारण करना पड़ता है। इस प्रकार क्रिया कलाप तो बदल जाते हैं, किन्तु आदर्श यथावत रहते हैं, उद्देश्यों में अन्तर नहीं आता। क्रिया-पद्धति समय के अनुरूप बदलती रहती है।

प्रज्ञा पुराण के खण्डों में यह विवरण प्रस्तुत किया गया है कि अपने व्यक्तित्व को महान और समय की समस्याओं का समाधान करने के लिए क्या किया? दूसरे लोगों ने दूसरी परिस्थिति में अपनी रीति-नीति को किस प्रकार बदला। महामानवों को अपने चिन्तन की उत्कृष्टता, चरित्र की आदर्शवादिता और व्यवहार की परमार्थ परायणता का समावेश करना पड़ता है। अन्न, जल और वायु बिना जिस प्रकार जीवन संभव नहीं उसी प्रकार इन तीनों के बिना महानता सधती नहीं और जिसे महानता का अवलम्बन न मिले उसे आत्म संतोष, लोक सम्मान और देवी अनुग्रह की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए उपरोक्त त्रिविध समन्वय को आधार मान कर चलना चाहिए। उत्कर्ष की आकांशा सभी को होती है। साँसारिक वैभव कमाने वालों को जिस प्रकार कृषि व्यापार आदि उद्योग अपनाने होते हैं, उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष के लिए उस प्रक्रिया को जीवन में धारण करना पड़ता है जिसे हर दृष्टि से सही पाया जा सके। जो एकाकी न हो। एकाँगी प्रचलन भी इन दिनों विस्तारपूर्वक चल पड़े है। मात्र उपासना अपनाकर लोग परम लक्ष्य की प्राप्ति होना सोचते हैं, पर यह नितांत भ्रम हैं। ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है और न मनुष्यों जैसी दुर्बलताओं से वह सना है कि जो उसकी दुहाई दे, दण्ड प्रणाम करे, भेंट उपहार प्रस्तुत करे, उसके लिए अपना मन पक्षपातपूर्ण बनाने और याचना के अनुरूप देने के लिए चल पड़े।

ईश्वर सर्वव्यापी सता है कर्म का फल उसका सुनिश्चित विधान है। यदि उसमें राग द्वेष का आरोपण किया जाय तो भी उसका कर्म के आधार पर निर्धारण होता है। प्रार्थना याचना नहीं है और न भक्त भिखारी और न ईश्वर दानी सेठ होता है। यह विडम्बनाएँ यदि ईश्वर के दरबार में भी चल पड़े तो उसमें और साधारण मनुष्य में क्या अन्तर रह जायेगा। फिर उसे भी लोकचारग्रस्त विवेक हीन कहा जायेगा? ईश्वर सामन्तों की तरह अपनी प्रशंसा सुनने के लिए चारणों को प्रोत्साहित नहीं करता और न निंदकों पर उसका कोप बरसाता है। यदि ऐसा होता तो इन ना अपने को स्पष्ट नास्तिक घोषित करने वाले आधे जन समुदाय पर उसका क्रोध नहीं बरसता? उसकी प्रगति क्रम में कोई बाधक नहीं होता। ता यह कैसे माना जाय कि वह प्रशंसा पूजा करने वालों का निहाल कर देगा।

पिछले दो महायुद्ध ईसाई राष्ट्रों के बीच ही हुए है। दोनों पक्ष गिरजों में अपने पक्ष की विजय के लिए प्रार्थना करते थे। ऐसी दशा में उसने इन प्रार्थनाओं का ही मापदण्ड माना होता तो जिस पर अनुग्रह दिखाना होता उसे निहाल कर दिया होता। जापानी भी अधिकांश ईसाई ही थे और अमेरिका वाले भी। पर भक्तों ने भक्तों पर आक्रमण किया और ईश्वर मूक दर्शक बना रहा। भारत के देवालय और मठों, महन्तों की, मध्य एशिया के आक्रमणकारियों ने कितने लम्बे समय तक कितनी दुर्गति की, यह किसी से छिपा नहीं है। अभी मुस्लिम देशों में जमकर लड़ाइयां चल रही है और दोनों पक्ष जीतने के लिए इबादत करते हैं। विचारणीय है कि हम में से यदि कोई ईश्वर रहा होता तो उसे इन जंजालों से पीछा कैसे छुड़ाना पड़ता।

ईश्वर भक्ति का उद्देश्य इतना ही है कि हम सर्वव्यापी सता का अस्तित्व मान, उसके नियम, विधान को समझे और इस तरह जिएँ जैसे कि ईश्वर के ज्येष्ठ पुत्र को शानदार जीवन जीना चाहिए। उसके विश्व उद्यान को ईमानदारी माली की तरह सुरम्य बनाने के परमार्थ, प्रयत्नों में लगे रहना चाहिए। मात्र माला जपने या नाम रटने, ध्यान लगाने से जीवन लक्ष्य की पूर्ति हो सकेगी यह सोचना व्यर्थ है। जो लोग उस तप मात्र में स्वर्ग मुक्ति के सपने दिखाते हैं वै यथार्थता से दूर है। नाम जपने में दर्ज, नहीं पर उसे खुशामद या याचना स्तर पर नहीं, अपने कर्त्तव्यों का स्मरण रखने के लिए नियामक सत्ता बोध रखने के रूप में ही करना चाहिए।

गीता में भगवान ने आदि से अन्त तक कर्म का उपदेश दिया है ओर भक्ति का प्रतीक भी सत्कर्म को ही बताया है। अपनी निज की नाम रटन का जो दबाव डाले या अपेक्षा करे उसे हेय स्तर का ही कहा जायेगा। भले ही वह भगवान ही क्यों न हो?

उपासना का मर्म अधिक अच्छी तरह समझना हो तो वेदान्त दर्शन की विचारणा का मनन, चिन्तन करना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि मनुष्य को परमात्मा में आत्म सता को समर्पित करके अपनी स्थिति अद्वैतवत् बनानी चाहिए। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में से दोष दुर्गुणों का पूरी तरह निष्कासन करना चाहिएं परमेश्वर श्रेष्ठताओं का समुच्चय है। हमें वैसा ही बनना चाहिए। भीतर से भी और बाहर से भी।

उपासना तभी बन पड़ती है जब उसके साथ जीवन साधना जुड़ी हुई हो। सुखा ईंधन ही प्रज्वलित होता है, अन्यथा गीलापन रहने से धुँआ ही आता रहता है। जीवन साधना के लिए उपासना का आश्रय लिया जाय या उपासना को सही तरीके से कर सकने के लिए जीवन क्रम में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समन्वय किया जाये। ईश्वर भजन से पाप नाश होते हैं। इसका तात्पर्य इतना ही है कि ईश्वर की सता को दृष्टि से रखने वाला दुष्कर्म नहीं कर सकता। यह नहीं है कि जीभ से नाम रटंत चलती रहे और क्रिया पद्धति में छल, पाखण्ड अहंकार एवं अनाचार भरा रहे। पवित्रता और प्रखरता का अभ्यास, अनुशासन अपने में भरे लेने का अर्थ ही ईश्वर भक्ति है। भक्त न स्वार्थी हो सकता है न अनाचारी। जिस पर अधिकार और प्रकार साथ साथ नहीं रह सकते उसी प्रकार ईश्वर भक्ति और संकीर्ण स्वार्थपरता को दुर्बुद्धि और दुष्कर्मों का यह अस्तित्व सम्भव नहीं।

ईश्वर का दृश्य रूप विराट विश्व है। अदृश्य रूप अनुशासन। आत्मानुशासन का तात्पर्य है। अदृश्य रूप अनुशासन। आत्मानुशासन का तात्पर्य है - चिन्तन और कार्य के घिनौनेपन का समावेश होने दो। आत्माओं के समूह का ही परमात्मा-कहते हैं। भजन का अर्थ-सेवा है। पूजा अर्चा भी सेवा को ही कहते हैं और आराधना भी वही है समष्टि की सेवा में संलग्न रहना ही ईश्वर भक्ति का परमात्मा की आराधन का वास्तविक स्वरूप है। यहाँ यह और भी समझ लेना चाहिए कि सुख साधन की वृद्धि ही वैभव, को अनाचार से भी कमाया जा सकता है और उससे कुटुम्बियों मित्रों के सुख साधन भी बढ़ाये जा सकते हैं। यह सेवा कहां हुई? जो 60 लाख के करीब हट्टे-कट्टे निठल्लों का निर्वाह भार वहन करते हैं वे उनकी सेवा कहाँ करते हैं, वरन् उन्हें ऋण भार से दबाने और भक्ति का पाखण्ड रचने में सहायता भर करते हैं। मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना संसार में अनाचार को बढ़ाना है। वेश्या को धन देना, कसाई के व्यापार में साझीदार होना, प्रत्यक्ष उनकी सुख सम्पदा बढ़ाने के रूप में देखा जा सकता है। पर यह सेवा कहाँ हुई। इसके विपरीत भले ही कष्ट सहने पड़े पर लोकमंगल में, सत्प्रवृत्ति संवर्धन में, लगना या लगाना पुण्य परमार्थ है। गाँधी जी ने सत्याग्रहियों को, बुद्ध ने परिव्राजकों को जिस सेवा साधना में लगाया उससे उन्हें प्रत्यक्षतः कष्ट ही सहना पड़ा पर सत्प्रवृत्तियां विकसित मिलीं असंख्यों को प्रकाश एवं सन्मार्ग मिला। अतएव उन प्रयासों को परमार्थ ही माना गया। जो उसे परमार्थ मान कर सेवा, धर्म अपनाने में प्रवृत्त हुए उनका भी आत्मकल्याण ही हुआ। अत एवं सुविधा बढ़ाने के नहीं, सद्भावना एवं सद्मार्ग का अवलम्बन करने का जिसे अवसर मिला, वह हर दृष्टि से लाभ में ही रहा, यह माना जायेगा, क्योंकि उनका उद्देश्य लोकहित एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन था।

यह बात वहाँ नहीं बनती जहाँ अपने निजी स्वार्थ, मुक्ति सिद्धि आदि लाभों के लिए पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्यों के लिए पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया जाता है। अपने देश में ऐसे लाखों व्यक्ति है जो सोचते हैं कि साँसारिक पारिवारिक कर्तव्यों का परित्याग करने में वैराग्य है वैराग्य रागद्वेष को छोड़ने में है। जहाँ कर्त्तव्यों से आँख चुराई जाय और भजन के बहाने आलस्य प्रमाद में समय लगाया जाय, वहाँ न भक्ति बन पड़ती है न पूजा आराधना। उसके लिए तो शबरी की तरह दिन भर लोक सेवा के कामों में निरत रहकर अवकाश के समय थोड़ा भगवन्नाम इस निमित्त लेना कही अच्छा, जिसमें भगवान से कर्म पक्ष से विचलित न होने वाले साहस की याचना की गई हो।

कभी अपने इस देश के साधु ब्राह्मणों का बाहुल्य था। ब्राह्मण, गृहस्थ रहकर विद्यालय चिकित्सालय, आदि स्थानीय क्षेत्रीय सेवा करते थे और साधु गृहस्थ का दायित्व अपने सिर पर न बाँध कर ब्रह्मचारी या वानप्रस्थों की तरह गिरों को उठाने और पिछड़ों को बढ़ाने के लिए प्रवृत्त रहते थे। बिना कठोर श्रम के उनका एक क्षण भी नहीं बीतता था। बिना कठोर श्रम के उनका एक क्षण भी नहीं बीतता था। जो करते थे उसमें संकीर्ण स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं बीतता था। जो करते थे उसमें संकीर्ण स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता था। समाजहित एवं सत्प्रयोजनों का परिपोषण ही उनके श्रम का लक्ष्य रहता था निज के लिए तो न शारीरिक श्रम का लक्ष्य रहता था। निज के लिए तो न शारीरिक सुविधाओं को तलाश करते थे न परलोक का स्वर्ग मुक्ति आदि का मनोरथ रहता था।

नत्वहं कामये राज्यं. न सौख्यं न पुनर्भवाम् कामये दुःख तप्तानाँ प्राणि नामार्त्ततनाशनम्।

गृहत्यागी तो कैदी भी होते हैं और उचक्के निठल्ले एवं आवेशग्रस्त भी। पारिवारिक उत्तर दायित्व हल्के रखे जायं यह दूसरी बात है ताकि परमार्थ प्रयोजन अधिक मात्रा में बन पड़े। किन्तु जो है उन्हें बिलखते छोड़कर जहाँ तहाँ जैसे तैसे समय गुजारना सर्वथा दूसरी बात।

जनता का सत्प्रयोजनों के लिए मनोबल बढ़ाये रहना उत्थान कार्यों में स्वयं लगना, और दूसरों को लगाये रहना, यह सन्तजनों का पुनीत कर्त्तव्य था। वह कार्य निष्ठा आज एक प्रकार से तिरोहित हो हो गई है। यही कारण है कि पतन पराभव की दुष्प्रवृत्तियां दिन-दिन बढ़ती जा रही हैं जिम्मेदारी जिनके कंधों पर थी वे प्रहरी जिस तिस बहाने जितना दोष पथ भ्रष्टों का है उतना ही उन मील के पत्थरों का भी है जिनने गलत दिशा और गलत फासला अपने ऊपर लिखकर पथिकों का भ्रमित किया है चोर की तरह वह प्रहरी भी दण्डनीय होते हैं, जिनने रखवाली का जिम्मा उठाकर, चैन से सोया और मौज में रात बिताई। पुरोहितों का उद्घोष है कि ‘वयं राष्ट्रे जागृयामः पुरोहिता अर्थात् हम पुरोहित राष्ट्र को जागृत और जीवन्त रखेंगे। यह आश्वासन देने के उपरान्त जो कर्तव्य से अपना मुख मोड़ लेते हैं ओर स्वर्ग सिद्धि के निजी लालच में चित्र विचित्र विडम्बना रचते हैं उन्हें क्षम्य नहीं कहा जा सकता। आज कर्तव्यनिष्ठा जन मानस के संरक्षकों की सब ओर से माँग है।


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