अपनों से अपनी बात - इस वर्ष की आध्यात्मिक साधना

October 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रत्यक्ष कठिनाइयों का समाधान तथा प्रगतिशीलता का अभिवर्धन प्रत्यक्ष उपाय उपचार से किसी कदर सम्भव है। असाधारण परिस्थितियाँ सामने आने पर मनुष्य यथा सम्भव उनके निराकरण का प्रयत्न करता भी है। करना भी चाहिए, क्योंकि वह कर्तव्य है किन्तु इतने भर से ही गुत्थियों का सुलझाव समुचित बन पड़ते देखा नहीं जाता, क्योंकि कारणों में कई बार वे परोक्ष स्तर के भी होते हैं। कठिनाइयाँ मात्र प्रत्यक्ष अव्यवस्थाओं से ही नहीं आती। कई बार उनका कारण वातावरण की अस्त-व्यस्तता और प्रकृति की विपन्नता भी होती है। यह सूक्ष्म जगत में उत्पन्न होने वाले कारण है जिनका आधार मनुष्य समुदाय का दूषित दृष्टिकोण एवं गर्हित क्रिया कलाप होता है। सूक्ष्म जगत में असंतुलन बनने का यही कारण है और इसी आधार पर ऐसी विपत्तियां सामने आती हैं, जो उसी स्तर का उपचार किये बिना सुलझती नहीं।

प्रत्यक्ष पुरुषार्थ का अपना महत्व है। कठिनाइयों से निपटाने और समृद्धि को बढ़ाने के लिए सभी अपने अपने ढंग से काम करते हैं, पर साथ ही यह भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि सूक्ष्म जगत के परिशोधन के लिए ऐसे उपाय भी अपनाये जाने चाहिए जिससे अनास्था संकट टले, श्रद्धा संवर्धन को बल मिले और पुण्य-परमार्थ का सत्प्रवृत्तियां को परिपोषण मिले। इन्हीं के समन्वय को अध्यात्म प्रयोग करते हैं। उन्हें यदि सामूहिक, सुव्यवस्थित और भाव-संवेदनाओं से भरे-पूरे स्तर पर अपनाया जा सके, तो निश्चय यह समाधान और अभ्युदय का उभयपक्षीय पथ प्रशस्त करता है।

अध्यात्म तत्वज्ञान और साधना परिकर का अवलम्बन जितना साधक के लिए हितकर है उतना ही सामूहिक सन्तुलन के लिए प्रभावशाली सिद्ध होता है।

इन दिनों ऐसी ही परिस्थितियाँ है, जिनकी विकटता को देखते हुए प्रत्यक्ष उपायों के अतिरिक्त परोक्ष अध्यात्म स्तर के आधारों को भी अपनाया जाना चाहिए, कारण कि आपत्तियों के घटाटोप और प्रगति पथ के अवरोध में जितना व्यवधान प्रत्यक्ष भूल-चूकों से होता है, उससे कही अधिक समष्टि क्षेत्र का सूक्ष्म जगत, उसमें भरी हुई अनैतिकता बाधक बनती है।

इन दिनों व्यापक रूप से जन-जीवन को सन्त्रस्त करने वाली कुछ प्रमुख कठिनाईयाँ यह है कि 1. प्रकृति की विपन्नता, वर्षा का असन्तुलन, 2 चरम स्तर की महंगाई, 3. अनाचारी दुरात्माओं की अनैतिक आक्रामकता, 4. साम्प्रदायिक तनाव 5. राजनैतिक उथल-पुथल। इन सभी का समन्वय मिल जुल कर इतना त्रासदायक हो जाता है कि व्यक्ति का निजी जीवन और समाज का सुसंतुलन उससे बुरी तरह प्रभावित होता है, हो भी रहा है। ऐसी दशा में पुरुषार्थ परक प्रयास तो होना ही चाहिए, साथ ही आध्यात्मिक उपाय-उपचारों का भी निर्धारित होना चाहिए, ताकि सूक्ष्म जगत की विकृतियों का समुचित समाधान हो सके।

अध्यात्म उपचारों में गायत्री की मन्त्रशक्ति और यज्ञ की दिव्य ऊर्जा का आना विशिष्ट स्थान है। शास्त्रकारों ने गायत्री को भारतीय संस्कृति की माता और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा है। इन दोनों का आश्रय ग्रहण करने पर सामयिक समस्याओं को सुलझाने में अतिरिक्त सहायता मिल सकती है। साथ ही आश्रय ग्रहण करने वाले का व्यक्तिगत उत्कर्ष हितसाधन भी हो सकता है।

सभी लोगों तक अनुरोध पहुँचाना और उन्हें सहमत करना तो कठिन है, पर प्रज्ञा परिवार के परिजनों से तो ऐसा अनुरोध किया ही जा सकता है और उनसे सार्वजनीन श्रेय साधना के निमित्त अपनी भाव श्रद्धा का परिचय देने के लिए कहा ही जा सकता है।

व्यक्तिगत साधना के लिए कहा जा रहा है कि प्रातः काल सूर्योदय के समय न्यूनतम दस मिनट गायत्री महामंत्र का स्नान करने पर विधिवत और वैसा न बन पड़ने पर मानसिक जप किया जाय, साथ ही प्रभातकालीन सूर्य का नेत्र बन्द करके ध्यान करते रहा जाय। भावना की जाय कि इससे बल बुद्धि और सद्भाव की त्रिविध देव अनुकम्पा का लाभ उसे मिल रहा है।

या उपासना कभी भी की जा सकती है किन्तु एक निर्धारित समय में असंख्यों की संयुक्त शक्ति का समन्वय हो जाने पर उसका चमत्कारी प्रतिफल होता है। जिन्हें संयुक्त शक्ति की चमत्कारी प्रक्रिया का ज्ञान है, उन्हें यह समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि सूर्योदय के समय की उपासना को क्यों महत्व दिया गया है? एक समय में असंख्यों की एक क्रिया का सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है इस सिद्धांत के अनुसार पुल पर सेना को कदम मिला कर नहीं चलने दिया जा सकता, क्योंकि पैरों की संयुक्त शब्द शक्ति पुल को गिरा देने का खतरा उत्पन्न कर सकती है, वातावरण का संशोधन करने वाली दिव्य शक्ति भी उत्पन्न रूप से लाभ मिलने की अतिरिक्त सम्भावना है।

दूसरा आधार है - यज्ञ पिछले वर्ष यज्ञ। पिछले वर्ष यज्ञ आयोजन और राष्ट्रीय-एकता सम्मेलनों की धूम रही भी है ओर उससे विपत्ति के बादल किसी हद तक छँटे भी है।

इस वर्ष पिछले साल की अपेक्षा उन आयोजनों के लिए और भी अधिक उत्साह था। तैयारी भी चल रही थी। इस हेतु प्रान्तों के सम्मेलन जुलाई, अगस्त में बुलाये गये थे पर परिस्थितियों ओर सम्भावनाओं ने जिस प्रकार पलटा खाया है उसे देखते हुए हिमालय से नया संदेश आया कि आयोजनों को समाप्त तो न किया जाय, पर छोटा अवश्य कर दिया जाय। आपत्तिकाल में ऐसे परिवर्तनों की पूर्व परम्परा भी है।

जनक ने याज्ञवल्क्य से पूछा यदि विषम बेला हो तो अनिवार्य कहे जाने वाले यज्ञों की व्यवस्था कैसे बने? याज्ञवल्क्य ने कहा-”घृत न मिले, तो मात्र वनस्पतियों से काम चलाया जाय। वे भी उपलब्ध न हो, तो मात्र समिधाओं से ही हवन कर लिया जाये। वह भी न हो, तो श्रद्धा रूपी समिधा प्रयुक्त कर मात्र दीप जला कर यज्ञ की भावना कर लेनी चाहिए। “ इसी नीति के अनुसार इस वर्ष पिछले साल की अपेक्षा सौ गुने अधिक स्थानों पर यज्ञ तो होगे, पर वे सभी दीप यज्ञ होगे जिनकी लागत एक वेदी पीछे एक रुपये के लगभग आती है। आमतौर से 100 दीप वाले यह यज्ञ सामूहिक होगे। उनमें 100 की अगरबत्ती और घी पर्याप्त होगा। इसके अतिरिक्त अन्य व्यवस्थाओं में भी 100 और खर्च हो जाये तो 200 मात्र का बजट बनाना होगा, जिसकी पूर्ति कही भी हो सकती है और किसी भी गाँव मुहल्ले में उसे सरलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार उनकी संख्या गत वर्ष की तुलना में सौ गुनी हो सकती है।

इन यज्ञों का संक्षिप्त स्वरूप यह है कि एक थाली में स्वस्तिक बना कर उसमें पाँच पाँच अगरबत्तियों के पांच स्टेण्ड लगाये जायं। पाँच दीपक जलाये जाये। हवन पद्धति के स्विष्टकृत वसोधरा, पूर्णाहुति जैसे मंत्रों को छोड़ कर सारा विधान उसी आधार पर चलेगा। यह कृत्य प्रायः एक घण्टे में पूरा हो जायेगा। इसके बाद देव दक्षिण सम्बन्धी एक घण्टे का प्रवचन हो, जिसमें याजक अपनी दुष्प्रवृत्तियां छोड़ने और सत्प्रवृत्तियां बढ़ाने का संकल्प ले। यह प्रातः काल का कार्यक्रम हुआ, जो सूर्योदय से लेकर दो घण्टे दिन चढ़े तक पूरा हो जायेगा। रात्रि को कीर्तन कार्यक्रम रहेगा यह स्थानीय कार्यक्रम होगे, जो कि कम्पाउण्ड में हाल में या कनात लगाकर पूरे किये जा सकते हैं।

आश्विन की शरद पूर्णिमा इन शतकुण्डी यज्ञों का शुभारम्भ दिन है। इसकी पूर्णाहुति के रूप में चैत्र सुदी पूर्णिमा को समाप्ति होगी। इन मध्यवर्ती छह महीनों में हर घर में एक थाली को एक कुण्ड मान कर यही प्रक्रिया चलती रहेगी। प्रातः हवन, साँय कीर्तन। इसे पारिवारिक धर्मानुष्ठान भी सकते हैं। इसमें भी जो सम्मिलित होगे, वे अपनी कोई न कोई बुराई छोड़ने और एक नई सत्प्रवृत्ति आरम्भ करेंगे, संक्षिप्त में यही है-यज्ञानुष्ठान आयोजन जो पूरे छः महीने चलेगा, घर-घर तक पहुँचेगा और सुधार-परिष्कार का कार्यक्रम व्यापक रूप से सम्पन्न करेगा।

जिस सुधार प्रक्रिया को इन आयोजनों के साथ जोड़ा गया है, उनमें से चार प्रमुख है - 1. प्रौढ़ शिक्षा, 2. दहेज उन्मूलन, 3. नशा निवारण, 4. हरीतिमा संवर्धन-इस वर्ष इन चार को चुना गया है। अगले वर्षों में इसी प्रकार चार-चार कार्यक्रम हाथ में लिए और कार्यान्वित किये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118