त्वचा में निहित दिव्य शक्ति सामर्थ्य

October 1987

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त्वचा में सर्वत्र बहुत बारीक-बारीक छिद्र होते हैं। उनमें से धीमे धीमे पसीना निकलता रहता है। इस पसीने के साथ भाप भी उठती है जो पहने हुए कपड़ों द्वारा सोखी जाती रहती है। पहने कपड़ों में जो मैल जमता है गीलापन आता है।, गंध बसती है, यह इस भाप के कारण ही होता है। त्वचा का पसीना कुछ तो हवा में उड़ जाता है पर उसके साथ घुले रहने वाले पदार्थ भारी रहने के कारण उड़ नहीं पाते और परत जमा कर त्वचा के ऊपर सट जाते हैं। यदि उन्हें कड़े तौलिये से रगड़ कर अच्छी तरह साफ नहीं किया जाय तो वह हल्के किन्तु मजबूत परत बना लेते हैं। चमड़ी के ऊपर एक दूसरी परत की तरह लिपट जाती है। आमतौर से इसे स्नान द्वारा छुड़ाया जाता रहता है। पर कइयों का स्नान चिन्ह पूजा मात्र का होता है। नदी, तालाब में डुबकी लगा लेने या सिर पर चार छह लोटे पानी उड़ेल लेने पर भी मन को संतोष भी दिया जा सकता है, कि स्नान कर लिया पर इससे वह लाभ नहीं मिलता जो आवश्यक है। कड़े रगड़ाई के बिना मैल की चिपकन भरी परत हटती नहीं। चिपके रहने पर खाज, खुजली जुएँ, दाद, छाजन जैसे त्वचा रोग तो उठते ही है, साथ ही शरीर से अप्रिय गंध भी उठने लगती है। इसे दबाने के लिए शौकीन लोग प्रायः इत्र आदि सुगन्धियों का उपयोग करते रहते हैं। साबुन से भी यह प्रयोजन पूरा नहीं होता क्योंकि वह जहाँ मेल की परत हटाता है, वही अपनी एक परत त्वचा पर चढ़ा देता है। उसमें रहने वाले क्षार चमड़ी को खुरदरा करते हैं। छिद्रों में घुस बैठ करते हैं। इसी प्रकार इत्र भी एक प्रकार का तेजाब स्तर का होता है, उसे जहाँ भी लगाया जाता है वहां अपना हानिकारक प्रभाव छोड़ता है।

उपरोक्त सभी कारणों पर दृष्टिपात करने से यह नतीजा निकलता है कि पसीने की भाप की, साबुन की, तेल की, धूल की परत त्वचा पर जमती रहती है। उसके दबाव से चमड़ी से ऊपर निकलने वाला विद्युत प्रवाह रुक जाता है। जिससे दूसरों पर प्रभाव डालने की, उन से प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता कुंठित हो जाती है। यह क्रम चिरकाल तक चलते रहने का परिणाम यह होता है कि त्वचा की अति महत्वपूर्ण शक्तियाँ मूर्छित हो जाती है। मात्र एक कपड़ा जैसा आवरण शरीर पर जमा रह जाता है। इस स्थिति को सुधारा जाना आवश्यक है। अन्यथा वह उस दायित्व को न निभा सकेगी जो उसे वशिष्ठ ज्ञानेन्द्रिय के रूप में प्रकृति ने प्रदान किया है। जिसके उपयोग से उसकी ज्ञान सम्पदा में अनेक गुनी अभिवृद्धि हो सकती है।

साधना विधान में स्नान को अति महत्व दिया गया है। साधना, उपासना से पूर्व स्नान कर लेने का विधि विधान आवश्यक माना गया है। उसका तात्पर्य जिस तिस प्रकार नहाने की चिह्न पूजा कर लेना नहीं है वरन् यह है कि त्वचा को रगड़ कर लाल कर लिया जाय, ताकि उसके ऊपर किसी कारण जमी हुई परत का भली प्रकार समापन हो जाय। इस व्यवधान के हट जाने पर प्रकृति की अनेक महत्वपूर्ण शक्तियों का शरीर के साथ आदान प्रदान सम्भव हो जाता है। बदलते मौसम अपना प्रभाव त्वचा पर डालते हैं। उनके दबाव ऐसे होते हैं कि तापमान के अनुरूप कपड़े पहने बिना काम नहीं चलता। इससे सर्दी गर्मी का प्रभाव तो बच जाता है, पर एक बड़ी कमी यह रह जाती है कि त्वचा की प्राकृतिक संवेदना घटने या नष्ट होने लगती है। मुँह खुला रहता है। नाक होंठ, गाल मस्तक आदि पर कोई कपड़ा नहीं पहना जाता। हाथ भी आमतौर से खुले ही रहते हैं। उनकी प्राकृतिक क्षमता बनी रहती है। चेहरा इसलिए सुन्दर लगता है कि वह खुला रखा जाता है यदि सीना पेट आदि की तरह उसे भी ढक कर रखा जाय तो सौंदर्य निश्चय ही घटता चला जायेगा। जो महिलाएं चेहरा ढके रहती है उनकी त्वचा न कोमल रहती है न चमकदार। इसी प्रकार सहारा के निकटवर्ती टम्बकटू क्षेत्र में पुरुष घूँघट मार कर रहते हैं उनके चेहरे भी कुरूप हो जाते हैं। ऋतु प्रभाव अपने अपने ढंग के दबाव तो डालते हैं, पर यदि उन्हें सहन करते रहा जाय तो त्वचा की संवेदन शीलता बना रहेगा और वह अपनी मौलिक विशेषता की रक्षा किये रहेगी। ऐसी दशा में वह अन्तरिक्ष में चलते रहने वाले प्राण प्रवाह को पकड़ने, समझने में समर्थ रह सकती है। ऋषि योगी इसीलिए नग्न रहते थे, वे आवश्यकतानुसार जन संपर्क में आने पर कटिवस्त्र मात्र धारण करके लोक लाज का निर्वाण करते थे। त्वचा को दोनों आधार प्रदान करते थे। एक तो घर्षण स्नान करके चमड़ी पर मैल की कोई परत जमा न होने देने थे। दूसरे शरीर को खुला रखकर वैसा ही संवेदनशील बनाये रहते थे, जैसे कि होंठ, गाल, आंखें आदि रहते हैं। शरीर की अस्वच्छता व आवरणों की अधिकता दोनों ही कारणों से त्वचा की प्राकृतिक क्षमता घटती है और क्रम निरन्तर चलते रहने से वह विद्युतीय क्षमता की दृष्टि से अक्षम बनती चली जाती है। वह मात्र लिफाफा बन कर रह जाती है। इस स्थिति में एक आवरण मात्र बनकर रहने वाली त्वचा एक प्रकार से विसर्जन भर का काम करती रहती है। भीतरी अवयवों को बिखरने से बचाये रहने वाले खोल जैसी स्थिती भी बनी रहती है।

त्वचा के इर्द गिर्द फैलने वाला आभा मण्डल भी धुँधला पड़ जाता है यह एक रक्षा कवच है। जो बाहरी वातावरण के अनुपयुक्त प्रभाव भी रोकता है और विषाणुओं के आक्रमण को भी निरस्त करता है किन्तु जब यह आभामण्डल दुर्बल, एवं संकुचित हो जाने के कारण वातावरण के दुष्प्रभावों से अपनी रक्षा करने में असफल रहने लगता है। इस स्थिति का दूसरा परिणाम यह होता है कि व्यक्ति की दूसरों पर प्रभाव डालने की क्षमता घट जाती है। वातावरण में कोई उपयोगी हलचल पैदा कर सकना तो और भी अधिक कठिन हो जाता है। तेजस्विता खो बैठने पर व्यक्ति मात्र अपनी जीवनचर्या को ही किसी प्रकार धकेलते रहने भर में समर्थ रह पाता है।

संव्याप्त तरंगों को पकड़ सकने और उनके साथ छिपे हुए रहस्यों को जानने में त्वचा तभी समर्थ होती है, जब उसकी प्राण परक तेजस्विता बढ़ी बढ़ी हो। ऐसा होने पर वह उन कीट, पतंगों से प्रतिस्पर्धा कर सकती है, उनसे आगे भी बढ़ सकती है, जिनके लिए क्षुद्र जीव अपनी आश्चर्यजनक विलक्षणता का परिचय देते रहते हैं।

अन्य सभी ज्ञानेन्द्रियाँ छोटे आकार की है। उनकी परिधि से टकराने वाले शब्द, रूप, रस आदि के प्रभाव ही अनुभव में आते हैं। मस्तिष्क तक पहुँचते हैं। किन्तु त्वचा का विस्तार समूचे शरीर परिकर तक है। वह दसों दिशाओं में विद्यमान है। इसलिए उसके लिए यह सम्भव है कि जिस भी दिशा से चाहे सूक्ष्म तरंगों के प्रवाह को पकड़ सके अनुभव कर सके और उनके साथ छिपे हुए रहस्यों से अवगत हो सके। यह सामान्य उपलब्धि नहीं है। तपस्वियों, सिद्ध पुरुषों में इसी स्तर की विशेषताएँ होती है,उनकी काया से शक्ति प्रवाह निकलते रहते हैं। इन्हें एकत्रित करके किसी दिशा विशेष में नियोजित किया जा सकता है। किसी विशेष प्रयोजन की पूर्ति में उसे लगाया जा सकता है। संपर्क में आने वाले पदार्थ और प्राणियों को आज्ञानुवर्ती, इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है। कोई महान प्रयोजन सामने हो तो उसकी पूर्ति के लिए इस बढ़ी हुई क्षमता का ब्रह्म शक्ति के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

सर्वविदित है कि मनुष्य मुख के द्वारा आहार ग्रहण करता है। भोजन और पानी इसी मार्ग से शरीर के अन्दर जाते हैं। पर यह तथ्य उपेक्षित ही बना रहता है कि नासिका द्वारा जो साँस ली जाती है व कितनी अधिक पोषक है उसका एकाकी महत्व अन्न, जल प्राण भी खींच सकती है। उस संचय से अपने को प्राणवान बनाया जा सकता है गंध शक्ति का विकास किया जा सके तो नासिका भी अतीन्द्रिय क्षमताओं की संवाहक बन सकती है वह कृमि कीटकों से लेकर सिद्ध पुरुषों तक में पाई जाने वाली विशेषता की अपेक्षा अपना वर्चस्व और भी अधिक बढ़ा चढ़ा प्रकट कर सकती है। जिस प्रकार पुलिस के खोजी कुत्ते अपराधियों को पकड़ने में असमर्थ हो सकते हैं उसी प्रकार वरन् उससे भी बढ़ चढ़कर गंध सिद्ध व्यक्ति संपर्क में आने वाले का चरित्र, उद्देश्य, वर्तमान, भूत तथा भविष्य का सुविस्तृत इतिहास जान सकता है। इतना ही नहीं अवांछनीय को घेर धकेल देना और खींच कर समीप बुला लेना संभव हो जाता है। यह क्रिया शरीर के ऊपर भी प्रयुक्त हो सकती है और मन के ऊपर भी। इस आधार पर विचार और स्वभाव का परिवर्तन भी संभव है। आदतें छुड़ाई जा सकती है और नई सत्प्रवृत्तियों की स्थापना की जो सकती है। प्राणवान अपनी स्व वरिष्ठता की बीज की तरह दूसरों के व्यक्तित्व में खेत की तरह बो सकता है। उन्हें खाद, पानी देकर आगे, बढ़ा और फूलती फलती स्थिति तक पहुँचा सकता है। ऋषियों के आश्रम में पलने वाले मृग शावक पालतू कुत्ते की तरह निर्भय विचरते थे। सिंह, गाय एक घाट पानी पीते थे। इस क्षेत्र के अन्यान्य प्राणी भी अपनी मूल प्रकृति भूलकर सज्जनोचित शालीनता से भरा -पूरा व्यवहार करते थे। यह उसी मानवी विद्युत का चमत्कार है जो साधनारत व्यक्तियों के शरीर से निकलती है और अपनी एक प्रभाव परिधि का निर्माण करती है। ऐसी शक्ति का प्रकटीकरण त्वचा परिकर से होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते ही यह व्यवस्था बनी है कि किसके साथ घनिष्ठता स्थापित करनी चाहिए और किससे बचते रहना चाहिए?

त्वचा को समर्थ बनाने के लिए वायु, जल और सूर्य का बाहरी उपयोग किया जाता है। मैल की परत ने जमने दी जाय। घर्षण स्नान से त्वचा के छिद्रों को खुला रखने की व्यवस्था बनाये रखी जाय, ताकि नासिका की भाँति रोम कूपों से भी साँस लेने और स्वेद विसर्जन का समुचित आधार बनता रहे। इसके अतिरिक्त प्रातः काल के सूर्य सेवन का प्रबन्ध किया जाय। ठंडक के दिनों में शीत से बचने के लिए किसी ऐसे स्थान का चयन किया जा सकता है जहाँ हवा के झोंके तो न पहुँचते हो, पर धूप चमकती हो। शरीर का जितना भाग खुला रखा जा सके उतना ही उत्तम है। फल, शाक, अन्न आदि के ऊपरी भाग सूर्य किरणों के संपर्क में रहते हैं। उस भाग में पोषक तत्वों की मात्रा अपेक्षाकृत कही अधिक पाई जाती है। त्वचा को प्रातः काल धूप में आधा घंटे से लेकर एक घंटे तक सेंका जा सकता है। इससे ऊपरी परत की तेजस्विता तो बढ़ती है साथ ही उसका तेजोमंडल भी उत्तेजित एवं विस्तृत होता है। कड़ी धूम में बहुत देर बैठना उचित नहीं। अति की सर्वत्र वर्जना की गई है। मध्याह्न को कड़ी धूप का विशेषतः सिर भाग पर पड़ना अहितकर है।

इस संदर्भ में ध्यान-धारणा का उपयोग भी हो सकता है। आंखें बन्द और चित्त को एकाग्र करके ध्यान करना चाहिए कि त्वचा सामान्य चर्म वर्ण से बदलकर स्वर्णिम बन रही है। कलेवर प्रातः काल के सूर्य जैसा स्वर्णिम बन रहा है। इसके साथ ही उसमें से चन्दन जैसी दिव्य गंध भी उत्पन्न हो रही है। उत्पन्न होने के उपरान्त वातावरण में फैल रही है।

काया के आचरण को स्वर्णिम और सुगन्धित अनुभव करने को ध्यान-धारणा किसी भी समय की जा सकती है। पर रात्रि की अपेक्षा दिन का समय अधिक उत्तम और उत्साहवर्धक है। इसी के साथ तेजोवलय-आभामंडल का आवरण सभी दिशाओं में अधिक विस्तार और अधिक तेजस्विता से भरने की भावना भी करते रहनी चाहिए। त्वचा को समर्थ ज्ञानेन्द्रिय बनाने का यह सरल एवं प्रभावी अभ्यास है।


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