अस्तेय अर्थात् अर्थ की पवित्रता

October 1987

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धर्म धारणा का चतुर्थ सोपान है-अस्तेय। अर्थात् चोरी न करना अर्थात् जो अपने हक एवं परिश्रम का है उसी में प्रसन्नता और संतोष के साथ निर्वाह करना।

यहाँ लक्षणों का क्रमानुसार उपयोग इस अर्थ में नहीं किया जा सकता है कि एक को पूरा करने के बाद दूसरे का आरम्भ किया जाय। वरन् यह है कि यह दसों लक्षण अपने अपने क्षेत्र में समान रूप से साथ साथ काम करते रहते हैं। जैसे दाँत में मंजन, आँख में अंजन, सिर में तेल आदि का कोई ऐसा निश्चय नहीं है कि दाँतों की सफाई के उपराँत ही सिर में तेल डाला जाय। यह सभी अपने अपने ढंग से यथावत् चलते रहते हैं। इसमें न कोई कम महत्व का है न अधिक। न किसी को प्रमुख कहा जा सकता न दूसरे को गौण। अपने अपने क्षेत्र में सुधार उपक्रम चलाते हुए यह दसों निर्धारण अपनी अपनी गति से आगे बढ़ते रहते हैं और सभी का संयुक्त प्रयत्न मिलाकर एक समग्र एवं संयुक्त इकाई बनता है, जिसे एक शब्द में कह सकते है-व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास।

चोरी करना प्रायः उसे समझा जाता है जिसमें दीवार तोड़कर, छलाँग लगाकर, ताला चटकाकर किसी का माल उठाया जाता है। गठरी, पोटली ले जाने जैसे उठाईगीरी, ठगी, जेबकटी आदि को भी चोरी परिकर की ही कहा जाता है। पर यह काम अभ्यासी और दुस्साहसी लोगों से ही बन पड़ते हैं। इन्हें हर कोई नहीं कर सकता। सर्वसाधारण में तो इतनी ताकत और हिम्मत भी नहीं होती। फिर कानून भी उन्हें पकड़ने में तत्काल सक्रिय हो जाता है। उनसे बचना और जेल पहुँच कर अपील दर अपील करते हुए किसी प्रकार छूट आना उस लाभ की तुलना में भारी पड़ता है जो चोरी करके कमाया गया है।

यहाँ गहराई में उतराना होगा और देखना होगा कि कानून की पकड़ बचते हुए निर्वाध रीति से चोरी किस वर्ग के लोग किस प्रकार करते हैं।

मनुष्य होता तो स्वतंत्र, स्वच्छंद ही है। पर वह कर्तव्यों, दायित्वों में इतना अधिक जकड़ा हुआ है कि मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारियों की उपेक्षा करते ही वह अपने महान पथ से नीचे जा गिरता है और दुष्ट या भ्रष्ट कहे जाने की स्थिति तक नीचे आ टपकता है।

मनुष्य संयुक्त परिवार का एक घटक है। उस जन्म देने से लेकर लालन, पालन, शिक्षा दीक्षा चिकित्सा परिचर्या, विवाह, व्यवसाय आदि की दृष्टि से समूचे परिवार का न्यूनाधिक योगदान लगा है। इस ऋण से उऋण होने का सही तरीका यही है कि परिवार के अन्य सदस्यों की तरह निर्वाह किया जाय और जो अपना अधिक उपार्जन है उसे समूचे परिवार के विशेषतया अधिक आवश्यकता वालों का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए प्रयोग किया जाय।

यह परम्परा आगे भी चलती रही तो नए सिरे से जो स्वावलम्बी या कमाऊ बना है, उसका भी हित है। उसके बेटे, पोते भी उसी परम्परा का निर्वाह करे जो उनके बाप दादों से चली, ताऊ द्वारा व्यवहृत होते देखी है। संयुक्त कुटुम्ब में रहने का यही औचित्य है। सम्बन्ध विच्छेद करके सर्वतन्त्र बना जाया जाय तो बात दूसरी है।

संयुक्त परिवार का अनुबंध यह छूट नहीं देता कि कमाऊ सदस्य अपने स्त्री बच्चों तक की परवाह न करते हुए मुँह छिपा कर बाजार में व्यंजन उड़ाये। कीमती कपड़े पहने और सिनेमा नाचरंग में यारबाजी में ढेरों पैसा खर्च कर दे। इस प्रकार बरता गया स्वेच्छाचार एक प्रकार से अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व का हनन करना है। नशा पीना तो अपना पैसा और स्वास्थ्य गँवाकर आश्रितों को असहाय स्थिति में छोड़ने की तैयारी है। इस प्रकार का व्यवहार न्याय दृष्टि से चोरी में ही गिना जायगा, भले ही कानून उसमें हस्तक्षेप न करता हो और परिवार द्वारा कोई प्रत्यक्ष कड़ा विरोध भी न होता हो।

व्यापार में लाभाँश की एक सीमा है। जो बेचा जाय उसके संदर्भ में वही कहा जाय, जो माल के अनुरूप है खराब चीज को अच्छी बताकर, नापतोल में चालाकी करते हुए अधिक मुनाफा लेकर बेचा गया है तो वह व्यापार कहलाते हुए भी चोरी के साथ मिला जुला है।

सरकारी टैक्स चुराना, दुहरे बही खाते रखना, मुंशी को पैसा देकर माल बिना टैक्स चुकाये निकाल लाना, बिना टिकट चलना जैसे कार्यों को भी बिना संकोच चोरी कहा जा सकता है। भले ही अभ्यस्त समाज में जब सभी किसी न किसी रूप में करते हो तो दूसरों की निन्दा न करें।

उत्तराधिकार का धन वस्तुतः उनका है जो अभी अपने पैरों पर खड़े होने योग्य समर्थ, स्वावलम्बी नहीं हुए है। जो अपना स्वयं कमाते खाते हैं, वह पूर्वजों की छोड़ी राशि पर गुलछर्रे उड़ाये तो यह हक की व मेहनत की कमाई नही है, तो उसे चोरी कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। वस्तुतः परिवार के असमर्थ सदस्यों के पोषण से बचा श्राद्ध धन है। उसे पितरों की आत्मा की शाँति और सदगमत देने के लिए ही खर्च किया जाना चाहिए।

जुआ, सट्टा, लाटरी, दहेज, भेंट, उपहार जैसे माध्यमों से मिला धन वस्तुतः अनीति की उपलब्धि है। उसमें अपना श्रम नहीं लगा तो उसका उपयोग कैसा?बिना मेहन के धन को यदि नैतिक दृष्टि से हेय और चोरी के स्तर का कहा जाय तो उसमें कुछ भी अनुचित न होगा।

परिवार घर के सदस्यों को तो कहते ही है, पर वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता भी गलत नहीं है। समुन्नतों की कमाई पर खड़े होने योग्य सहारा प्राप्त करने के लिए पिछड़े वर्ग को हक है। अधिक उपार्जन की अधिक कौशल की प्रशंसा प्राप्त करते हुए एक महा प्रशंसा यह भी प्राप्त करनी चाहिए कि जो कमाया गया वह मिल बाँट कर खाया गया। उच्च स्तरीय आदर्श प्रस्तुत करना और बदले में अनेकों श्रद्धा उपार्जित करना किसी प्रकार भी कम लाभ की बात नहीं है।

आम तौर से लोग कँटीली झाड़ियों में भटकते हैं और अपने पैरों के ऐसे निशान छोड़ जाते हैं जिन पर चलकर पीछे वाले को भी भटकना और झाड़ झंखाड़ों में उलझने का त्रास पाना पड़े। यदि कोई अपने व्यक्तिगत चिन्तन चरित्र और व्यवहारों को आदर्शों से घुला, मिला रखता है तो आत्म निर्माण से संसार का उतना नव निर्माण अनायास ही हो जाता है। परिवार व्यक्तियों का समुदाय ही तो समाज है।, जितने व्यक्ति चरित्र व निष्ठा की कसौटी पर खरे उतरते हैं, समझना चाहिए उतने अंश में इस धरती पर स्वर्ग उतरने का ठेस सफल प्रयत्न किया गया।

मन में कुछ हो और प्रकट कुछ करे तो यह भी एक प्रकार की चोरी चालाकी। हमारी इच्छा और क्रिया का समन्वय ऐसा होना चाहिए, जिसमें छल छिद्रों की भरमार नहीं हो। अपनी वास्तविकता का छिपाए रहना विशेषतया बढ़ा-चढ़ा कर बताना भले ही आर्थिक चोरी न हो पर वह दुराव तो है ही और जिस भी प्रयास से दुराव की आवश्यकता पड़ती हो उसे चोर कर्म की श्रेणी में ही गिरा जाना चाहिए।

हमारी अर्थनीति ऐसी पवित्र और परिष्कृत होनी चाहिए जिसके कारण न हम किस से अनुचित लाभ उठाये और न किसी को वैसा लाभ उठाने दे। न चोरी करे और न अपने यहाँ किसी को चोरी करने दे। रिश्वत देना और लेना दोनों ही दण्डनीय बताये गये हैं। समझना चाहिए कि चोरी करना और करने देना, होते हुए मूकदर्शक की तरह देखते रहना, यह सभी देय है।

अस्तेय एक दर्शन है।। जिसका अर्थ होता है “आर्थिक पवित्रता” आर्थिक पवित्रता अर्थात् जो अपने श्रम की कमाई नहीं है, जो सम्य प्रवृत्तियों के सहवितरण से बची हुई नहीं है जो औसत भारतीय स्तर से अधिक मात्रा में प्रयुक्त की गई है, वह सभी धन राशि चोरी की है। स्मरण रहे अर्थ पवित्रता के साथ अन्य प्रकार की सभी पवित्रताएं जुड़ी हुई है। अचौर्य एक व्रत है जिसे हर पुण्यात्मा को, धर्म प्रेमी को निबाहना ही चाहिए।


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