राजा दिलीप गुरु वशिष्ठ के आश्रम में पत्नी समेत पहुँचे। उनका अभिप्राय सन्तान के लिए वरदान प्राप्त करने का था। बड़ी आयु को जाने पर भी उनकी कोई सन्तान न हुई थी।
गुरु समर्थ तो थे, पर मुफ्त में वरदान देकर किसी पर ऐसा कर्ज नहीं लादना चाहते थे, जिसका प्रतिदान उसे आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़े और उसे चुकाने में अब से भी अधिक त्रास सहना पड़े।
राजा दिलीप के सम्बन्ध में तो सन्तान का प्रश्न भी जुड़ा था। वरदान ऐसी सन्तान का होना चाहिए, जो बड़ा होने पर महामानवों में गिना जा सकें। आदर्शवादी ही महामानव हो सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि पिता-माता भी पुण्य परमार्थ की सम्पदा से सुसज्जित हों, अन्यथा ऐसी ही सन्तानों को जन्म दिया जा सकता है, जो अपयश बटोरे और कुकर्म में निरत रहकर अपने पूर्वजों की भी प्रतिष्ठा नष्ट करें।
इन सब बातों पर विचार करते हुए आवश्यक प्रतीत हुआ कि राजा द्वारा ऐसी सेवा भावना और आदर्शवादिता को बढ़ाने वाला कोई काम सीखा जाय।
वशिष्ठ जी ने एक वर्ष तक उनको अपने आश्रम में रहकर गौएँ चराने का काम सौंपा। आश्रम की अधिकाँश आवश्यकतायें गौ-पालन से ही पूरी होती थीं। इसलिए गौ-सेवा को प्रकारान्तर से आश्रम की सेवा, गुरु-सेवा के समतुल्य ही समझा जाता था।
दिलीप ने आदेश शिरोधार्य किया और आश्रम में निवास करने लगे। प्रातः रानी समेत आश्रम की गौएँ चराने जंगल में निकल जाते, शाम को वापस लौटते।
बहुत दिन यह क्रम साधारण रीति से चलता रहा। एक दिन एक विशेष घटना हुई। एक सिंह ने आश्रम की एक गाय को दबोच लिया। राजा ने सिंह को मारने के लिए धनुष-बाण संधान किया, पर आश्चर्य यह कि वह चल ही न सका। राजन दौड़ कर सिंह के पास गये और उसे अन्य उपायों से भगाने का प्रयत्न करने लगे।
सिंह ने मनुष्य की बोली में कहा मैं शिव दरबार का सिंह हूँ। मुझे भी तो भोजन चाहिए। वन पशु ही मेरा भोजन है। मैं इस गाय को नहीं छोड़ सकता। यदि इसे छुड़ाना है तो बदले में अपना माँस दो। दिलीप ने इसे स्वीकार कर लिया और सिंह के सामने जाकर बैठ गये। आश्रम की गाय को क्षति पहुँचाना उन्हें अपना शरीर देने से भी अधिक मारी पड़ रहा था।”
सिंह वशिष्ठ के संकेत पर शिवजी द्वारा राजा की परीक्षा लेने के लिए भेजा गया था, राजा उसमें उत्तीर्ण हो गये। सिंह वापस चला गया। राजा और गौएँ आश्रम सकुशल आ गये। एक वर्ष की अवधि भी पूरी होने जा रही थी।
वशिष्ठ जी ने दिलीप को सुसन्तति का आशीर्वाद देकर विदा किया। दिलीप ने अनेक पीढ़ियों तक एक से एक बढ़कर प्रतापी और आदर्शवादी बालक उत्पन्न होते रहे।