मनुष्य के भीतर भगवान का भी निवास है और शैतान का भी। उसके भीतर देवता भी रहते हैं और दैत्य भी। यह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि वह चाहे उभारे और चाहे जिस दबोच दे।
दया, करुणा, प्रेम सेवा के लिए अपने आपको उत्सर्ग करने वाले महामानवों, संतों, सुधारकों की भी कमी नहीं रही, पर ऐसे कुकर्मी और निष्ठुर भी इस संसार में कम नहीं हुए, जिनने मानवता को उठा कर ताक में रख दिया और वे कृत्य किये, जिनकी चर्चा सुनकर भी किसी सहृदय का सिर नीचा हो जाता है और संदेह होता है कि क्या ऐसी नृशंसता भी मनुष्य के कलेवर में छिपी हो सकती है?
सिंह, व्याघ्र, सर्प, बिच्छू, बाज, गिद्ध आदि में आक्रमण की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरे जानवरों पर प्राणघातक हमला कर उन्हें मार डालते अथवा गम्भीर रूप से घायल कर देते हैं। उनमें नर-मादा के बीच बिना माता, पुत्री बहिन आदि का अन्तर किये यौन स्वेच्छाचार चलता है। यह उनकी स्वाभाविक वृत्ति है पर मनुष्य भी नर-पशु और नर-पिशाच के रूप में प्रकट हो सकता है, इसके उदाहरण भी कम नहीं है।
ट्राँसिलवानिया के शासक ड्रैक्युला के बारे में कहा जाता है कि वह निरीह लोगों का कत्ल करवा कर शहर के चारों ओर खूँटो से लटका देता था। यह दृश्य देख कर उसे काफी आनन्द आता था।
क्रूरता में रोम का शासक नीरो भी कोई कम खूँखार नहीं था। 14वीं शताब्दी में वह नौ वर्ष तक सिंहासनारूढ़ रहा। इस दौरान उसने हजारों लोगों की नृशंस हत्याएँ करवाये जिनमें उसके सगे- सम्बन्धी भी सम्मिलित थे। उसने अपनी पत्नी का सिर कटवा डाला, जिन अफसरों से मनमुटाव था, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। यहाँ तक कि अपनी माँ को भी नहीं बख्शा। उसे भी मरवा डाला। एक बार सनसनी चढ़ी तो पूरा शहर ही जलवा कर राख कर दिया और स्वयं एक ऊँची पहाड़ी पर तड़पते-मरते लोगों को देखकर प्रसन्न होता रहा। उस विनाशलीला का आनन्द वह बाँसुरी बजा कर लेता रहा।
वर्तमान रूस से काला सागर तटवर्ती क्षेत्र में यूराल, दोन तथा रुमानिया, हंगरी, बल्गेरिया, साईबेरिया, जैसे देशों में ऐसी अनेक कब्र मिली है, जिनकी खुदाई में न केवल स्वर्ण जड़ित रत्न, आभूषण मिल है, वरन् मनुष्यों एवं पशुओं के असंख्य कंकाल भी पाये गये हैं। समझा जाता है कि सत्ताधिपतियों, शासकों को परलोक में ऐश-आराम पहुँचाने की दृष्टि से ही इतने बड़े परिमाण में विलास वैभव व नौकर -चाकर दफनाये गये थे। ऐसी ही कब्रें मिश्र के पिरामिडों में भी पायी गई है। दोनों में अन्तर सिर्फ इतना है कि मिश्र के दिवंगत सत्ताधीश सुख-सुविधा, धन दौलत, दास-दासी की दृष्टि से अधिक सम्पन्न होते थे। उनकी कब्रें वैभव का विशाल भाण्डागार होती थी।
प्रसिद्ध यूनानी कवि होमर ने अपने महाकाव्य “इलियड” में रत्न राशियों युक्त ऐसी अनेक समाधियों का उल्लेख किया है। इस रचना को आधार मानते हुए जर्मनी के एक व्यक्ति हेनरी स्कलाईमेन ने इन कब्रों की खोज आरम्भ की। लम्बे प्रयास के बाद अन्ततः वह दक्षिण यूनान में मायसीनिया में एगामेन्नाने एवं उनके साथियों की समाधि ढूंढ़ने सफल हो गया, इनसे इतनी सम्पदा मिली कि हेनरी धनकुबेर बन गया। समाधियों में सेनापतियों के साथ उनके कई कई सेवक भी दफनाये गये थे।
एशिया में ऐसे सामूहिक नर संहार का जीता-जागता नमूना ‘चीन की दीवार’ है। कहा जाता है कि वहाँ के शासक ने इसके निर्माण काल के दौरान हजारों निरीह लोगों की चिनाई करके इसकी नींव खड़ी की थी, जिससे यत्र-तत्र झाँकते इनके कंकाल आज भी अपने निर्दयी मौत का पैगाम संसार को दे रहे है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य हिटलर और उसके सहयोगी मार्शल गोरिंग ने जो कत्लेआम मचाया था, वह भुलाये नहीं भूलता। इन दोनों ने मिल कर शत्रु सेना का जितना संहार किया, उससे कई गुना अधिक अपने ही देशवासियों को मौत के घाट उतार डाला। कारण सिर्फ इतना था कि हिटलर स्वयं को एवं जर्मन को शुद्ध आर्य मानता था। यहूदियों को अनार्य कहता था। वह चाहता था कि जर्मनी में सिर्फ शुद्ध आर्य जति ही रहे। इसी कारण उसने अपने देश में यहूदियों का सफाया आरम्भ किया था।
मध्यकाल में नादिरशाह ने भी ऐसी ही नृशंसता अपनायी थी, इसी “नादिरशाही’ उसके क्रूर-कृत्य का पर्याय बन गया। सर्वविदित है कि वह एक जर्मन गड़रिया था। भेड़ चराते-चराते डाकेजनी करने लगा और फिर वह एक गिरोह का सरदार बन बैठा। अपने प्रभाव और प्रभुत्व का विस्तार करते करते वह ईरान तक जा पहुँचा और वहाँ का शासक बन गया। शासनसत्ता को हाथ में लेने के बाद यदि वह चाहता, तो इतिहास पुरुष बन सकता था और अपनी प्रतिभा का उपयोग जनहित में कर देश-वन्द्य हो सकता था, पर उसके अन्दर के दैत्य ने उसे ऐसा नहीं करने दिया और जीवन पर्यन्त वह लूट पाट, मार-काट ही मचाता रहा। उसकी इस हविश की संतुष्टि एक ही देश से नहीं हुई उसने कई-कई देशों में इस प्रकार की विनाश लीलाएँ रचीं दिल्ली को भी उसके कहर झेलने पड़े। यहाँ एक ही दिन में डेढ़ लाख व्यक्तियों का कत्ल करवा दिया और बड़ी संख्या में लोगों को कैद कर अपने साथ ले गया।
रोडेशिया में जब सीथियस सभ्यता थी, तब राजा की अन्त्येष्टि विलक्षण प्रकार से सम्पन्न की जाती थी। उसकी लाश गाँव-गाँव, नगर नगर प्रजाजनों के दर्शन के लिए घुमाई जाती। शोक प्रकट करने के लिए लोगों को अपने कान का एक भाग भेंट करना तथा सिर मुड़ाना पड़ता था। इतना ही नहीं, अन्तिम संस्कार का समय जब आता, तो मृत राजा के साथ हरम की कम से कम एक रानी अवश्य दफनायी जाती। साथ में अनेकानेक घोड़े तथा नौकर होते। इसका विशद विवरण तत्कालीन इतिहासकार हेकोडोटस ने बड़े ही रोमाँचकारी ढंग से किया है।
तुक्र और तातार सरदारों की अन्तिम क्रिया भी कोई कम लोभ हर्षक नहीं होती थी। शव-यात्रा के दौरान रास्ते में जो कोई मिल जाता, उसका सिर यह कह कर कलम कर दिया जाता कि “जाओ, स्वर्ग में अपने स्वामी के साथ रहकर उसकी सेवा-सुश्रूषा करना।”
लिपजिंग (जर्मनी) के सैशन कोर्ट को मुख्य न्यायाधीश वेनेडिक्ट कार्पजे इतना क्रूर और हत्यारा प्रकृति का था कि जो कोई उसका नाम सुन लेता, उसे पसीना छूट जाता और रात में कई-कई दिन तक नींद हराम हो जाती। वह छोटे-से-छोटे अपराध के लिए भी मृत्यु दण्ड से कम की सजा नहीं देता। औसतन पाँच व्यक्तियों को प्रतिदिन फाँसी के फन्दे पर लटकाया जाता। इस प्रकार 46 वर्ष के लम्बे कार्य काल में उसने 50 हजार व्यक्तियों को मौत के मुँह में धकेला था।
वस्तुतः यह मनुष्य का दानव पक्ष है। जब उसके भीतर का दैत्य जागता है, तो उसे नर पिशाच बना देता है। और उसी स्तर के कृत्य करवाता है, पर मनुष्य की विशिष्टता इसमें नहीं है। ऐसे आचरण तो जंगली जानवर भी नहीं करते पाये जाते। मनुष्य अपने ऐसे नृशंस कृत्यों से भले ही प्रसिद्धि पा ले, मगर वह इनसे महान नहीं बन सकता। उसकी महानता तो उसकी देववृत्ति में छिपी है। अन्तः के देव पक्ष को जगाकर ही वह सही अर्थों में मानव देवमानव महामानव बन सकता है। अतः हमारा प्रयास-पुरुषार्थ इस दिशा में होना चाहिए। हमें इनके इतिहास से प्रेरणा नहीं सबक लेना चाहिए।