आग पर चलने का जादुई कौशल

October 1987

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दहकते अंगारों पर नंगे पैर चलने की परम्परा इस प्रगतिशील युग में भी विश्व के अनेक भागों में जहाँ-तहाँ देखी जाती है। विशेष पर्वों, अवसरों पर इसका आयोजन किया जाता है। भारत, स्पेन, बल्गारिया एवं फिजी के अनेक सम्प्रदायों में यह धार्मिक क्रिया कलापों का एक अंग है। आत्म-शुद्धि तथा व्याधियों के उपचार के रूप में नंगे पैर आग पर चलना, अग्नि नृत्य करना यूनान और फ्राँस में लोगों के पूजा-उपचार का एक अभिन्न भाग है। इस वे देवताओं की कृपा तथा मंत्र शक्ति का चमत्कार मानते हैं। अन्य अफ्रीकी देशों में भी इसका प्रचलन है।

एक बार भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद बिहार के दौरे पर गये हुए थे। राँची में उराँव तथा मुण्डा जाति के लोगों के उन्हें अपना एक करतब देखने को आमंत्रित किया। वे उस समय आश्चर्य में पड़ गये जब अनेकों युवक पंक्ति बद्ध होकर धधकते हुए अंगारों पर चलने लगे। उनमें से एक भी व्यक्ति के पैर में जलने का कोई चिन्ह तक नहीं था। आग पर चलने की इस विद्या को जन-जातियों ने देवी देवताओं से जोड़ रखा है।

यूनान में वीणा की स्वर लहरी पर अग्नि नृत्य आज भी देखने को मिलता है। वहाँ आइयाएलोनी नामक गाँव में प्रति वर्ष सन्त कास्टेंटाइन और सन्त हेनोन के सम्मान में कई दिन तक चलने वाले उत्सव का आयोजन होता है। इसका समापन अन्तिम दिन अँगारों पर चलने के साथ होता है। आग पर नाचने वालों को “अनास्ते नैराईडस” कहा जाता है। सूर्यास्त के पश्चात् आरम्भ हुआ यह नृत्य तब तक चलता रहता है जब तक कि अंगारे राख के ढेर में परिवर्तित नहीं हो जाते। उनका विश्वास है कि सन्त कास्टेंन्टाईन की दैवी शक्ति उनकी रक्षा करती है तथा रोगों से मुक्ति दिलाती है।

दक्षिण अफ्रीका ने नेटाल प्रान्त में भी आग पर चलने का रिवाज है यहाँ इसे एक प्रकार की धार्मिक पवित्रता के रूप में किया जाता है। इस उत्सव में जो लोग सम्मिलित होते हैं उन्हें दस दिन पूर्व से स्त्री संपर्क, माँस-मदिरा आदि का परहेज करना पड़ता है। इसका वर्णन करते हुए हाले विलियम्स नामक एक अंग्रेज विद्वान ने लिखा है कि ऐसे अवसर पर वे लोग 20 फुट लम्बे, 10 फुट चौड़े तथा दो तीन फीट गहरे गड्ढे में लकड़ियाँ जलाकर धधकते हुए कोयले की आग तैयार कर लेते हैं। सबसे आगे पुरुषों का समूह चलता है और पीछे गाती बजाती महिलाओं की टोली चलती है। आग पर सबसे पहले पुजारी के पैर पड़ते हैं जिसके नेतृत्व में यह उत्सव मनाया जाता है। और उसके पीछे उसके भक्त पंक्तिबद्ध रूप से चलते हैं। इनमें से किसी के भी पैरों के जलने के कोई चिन्ह नहीं मिले। पूछने पर पुजारी ने बताया कि-ईश्वर विश्वास एवं शारीरिक तथा मानसिक पवित्रता की शक्ति ही हम लोगों को जलने से बचाती है।

सेनफ्रांसिस्को के सुप्रसिद्ध लेखक रिचर्ड मार्टिन ने दक्षिण प्रशान्त महासागर के टाहिटी नामक टापू में स्वयं देखी हुई एक घटना का वर्णन करते हुए लिखा है कि 18 फीट लम्ब 12 फीट चौड़े और 3 फीट गहरे गड्ढे में 12 से 14 इंच व्यास के झाँवे भर दिये गए। इसके बाद उनके ऊपर कोयला और लकड़ी को जलाया गया। निर्धूम होने पर डण्डों से अंगारों को नीचे और झाँवों को ऊपर कर दिया गया जिससे झाँवे भी कोयले से समान लाल सप्त हो गये। इस पर चलने वालों ने सर्वप्रथम पत्तियों के एक गुच्छक से तप्त झाँवों को तीन बार स्पर्श किया फिर एक एक करके उप पर से आगे निकले और पुनः उसी रास्ते में वापस भी आ गये।

इस प्रकार अमेरिका के प्रोफेसर लाँग्ले ने प्रत्यक्ष देखे गये एक विवरण को प्रकाशित कराया है उन्होंने लिखा है कि ‘सोसायटी टापू’ के रेटिया नामक स्थान में भारतीय मूल के एक व्यक्ति ने पत्थर के बड़े बड़े टुकड़ों को एक गड्ढे में लकड़ी और कोयले को जलाकर खूब गरम कराया। तत्पश्चात् उन धधकते पर वह इस प्रकार चलता गया मानो सामान्य पत्थर पर चल रहा हो। तप्त पत्थरों का जब तापमान नापा गया तो वे 1200 डिग्री फारेनहाइट तक गरम थे। जापान में भी इसी प्रकार के एक प्रदर्शन का वर्णन लेखक परसीवल लावेल की पुस्तक में किया है।

दक्षिण भारत के चिंगलपेट जिले में एक उत्सव के समय अनेक अँग्रेजों ने सैकड़ों भारतीयों को कोपीन पहनकर मंत्रोच्चार करते हुए पंक्तिबद्ध होकर धधकते अंगारों पर चलते देखा था। पैरों में कोई रसाईयन लेप कर चलने जैसी शंकाओं का निराकरण भी परीक्षण करके कर लिया गया था फिर भी किसी के पैर में जलने के कोई निशान तक नहीं देखे गये। इससे प्रभावित होकर लन्दन विश्वविद्यालय के कुछ मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने आग पर चलने की घटनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दृष्टि से एक समिति का गठन किया। परीक्षण के लिए उन्होंने खुदा बक्श नामक एक भारतीय जादूगर को तैयार किया। 25 फुट लम्बे, 3 फुट चौड़े और एक फुट गहरे गड्ढे को तप्त अंगारों से भर दिया गया। खुदाबक्श कुरान की कुछ आयतें पढ़ने के बाद उस पर चलकर पर निकल गया। उसका कहना था कि अंगारों की तह कम से कम 9 इंच अवश्य होनी चाहिए। अन्यथा पतली तह में जलने का भय रहता है। एक सप्ताह बाद भी उसने इस प्रक्रिया को दोबारा करके दिखाया, किन्तु तीसरी बार उसने यह कह कर आग पर चलने से इन्कार कर दिया कि अब मेरा विश्वास डिग गया है यदि अब चला तो जल जाऊँगा। दोनों प्रयोगों के पूर्व और पश्चात् खुदा बक्श के पैरों की पूरी जाँच कर ली गई थी जिसमें न तो किसी प्रकार रसायन और न ही पैरा में कड़ापन पाया गया।

कुछ वर्ष पश्चात् इसी प्रकार का प्रदर्शन एक दूसरे भारतीय अहमद हुसैन ने वैज्ञानिकों के समक्ष किया था। हुसैन न केवल अकेले अंगारों पर चला था वरन् अनेक अंग्रेजों को भी अपने साथ 1292 डिग्री ताप वाले अग्नि पिण्डों पर चलाने में समर्थ हुआ था।

इंडोनेशिया (सुमात्रा) में जिन लोगों पर देवता आते हैं वे अपने मुँह में दहकते कोयले भर लेते हैं। मिस्र और अल्जीरिया के कई दरवेश लाल सुर्ख अंगारों को अंगूर जैसे निगल जाते हैं अल्जीरिया के फकीर तो अपना शरीर लोहे की तपती शलाखों से दगवाते हैं।

इन चमत्कारिक घटनाओं का रहस्योद्घाटन करते हुए मूर्धन्य वैज्ञानिक एवं अनुसंधानकर्ता स्टीवन ने नृवंश मनोविज्ञान की प्रमुख पत्रिका ‘इथोज’ में बताया है कि यह पदार्थ पर दिमाग के हावी हो होने की प्रक्रिया है। इस कृत्य के समय ‘फायर वाकर - अर्थात् आग पर चलने वाले लोग तन्द्रा जैसी स्थिति में रहते हैं। इस सम्बन्ध में अनुसंधानरत वैज्ञानिक कैने ने अपने शोध निष्कर्ष में कहा है कि सम्मोहन की स्थिति में व्यक्ति को आग के संसर्ग से जलन महसूस नहीं होती।

अमरीका के सुप्रसिद्ध शल्य चिकित्सक डा0जी0 एम॰ फेठन ने सातवें दशक में आविष्कारक एवं दार्शनिक आर॰ बाकमिस्टर के साथ दक्षिण समुद्र के बोरा बोरा द्वीत में आग पर चलने का एक आयोजन देखा तथा उसमें स्वयं सम्मिलित हुए। वहाँ अग्निकुण्ड देखा तथा उसमें स्वयं सम्मिलित हुए। वहाँ अग्निकुण्ड में प्रवेश करने पर उन्होंने जो अनुभव किया उसे “सैटरडे रिव्यू” नामक पत्रिका में प्रकाशित कराया। उसमें उन्होंने कहा है “अग्नि में पैर डालने पर अंगारे सैण्डपेपर जैसे लग रहे थे। पैरों पर तीव्र किन्तु सहन करने योग्य गरमी महसूस हुई। तत्पश्चात् पैरों में झुनझुनी-सी होने लगी और मस्तिष्क शून्य सा पड़ गया था। अग्नि कुण्ड के बाहर निकलने पर लगा सोते से जगा हूँ।”

वैज्ञानिकों का कथन है कि आग पर चलना एक शारीरिक एवं मानसिक कौशल है। इस पर देवी-देवताओं से कोई संबंध नहीं है क्योंकि घोर नास्तिक एवं जादूगर तक यह कौशल दिखा देते हैं। भारत में बीसियों जगह जलती होली में से निकलने का रिवाज है। यह कृत्य पण्डे पुरोहित के यहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी होता चला आता है। उनके आचरण भी सामान्य लोगों जैसे औसत दर्जे के होते हैं। उनमें से कोई सत्यवादी या योगी, तपस्वी नहीं होता। इसके विपरीत ऐसा भी हो सकता है कि उस कौशल को न जानने वाला व्यक्ति सच्च, ईमानदार या भला होते हुए भी आग से जल जाय।

आग पर चलने का केवल जादुई कौशल कहा जा सकता है। इसके साथ अध्यात्म या साधना की कोई सिद्धि के जुड़े होने का कोई आधार नहीं है।


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