गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

प्राणमय कोश

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प्राण, शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रतीक है। मानव शरीरों के बीच जो अन्तर पाया जाता है वह बहुत साधारण है। एक मनुष्य जितना आहार करता है, जितना श्रम करता है, जितना लम्बा, मोटा भारी है, दूसरा भी उससे थोड़ा बहुत ही न्यूनाधिक होगा परन्तु मनुष्यों के बीच जो जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है उसका कारण उनकी आन्तरिक शक्ति है।

विद्या, चतुराई, अनुभव, दूरदर्शिता, साहस, लगन, शौर्य, जीवन शक्ति, ओज, पुष्टि, पराक्रम, पुरुषार्थ, महानता आदि नामों से इस आन्तरिक शक्ति का परिचय मिलता है, आध्यात्मिक भाषा में इसे प्राण शक्ति कहते हैं।

प्राण नेत्रों में होकर चमकता है, चेहरे पर बिखरा फिरता है, हाव भाव में उसकी तरंगें बहती हैं। प्राण की गंध में एक ऐसी विलक्षण मादकता होती है जो दूसरों को विभोर कर देती है। प्राणवान स्त्री पुरुष मन को ऐसे भाते हैं उन्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता।

प्राण वाणी में घुला होता है उसे सुन कर सुनने वाले की मानसिक दीवारें हिल जाती हैं। मौत के दांत उखाड़ने के लिए जान हथेली पर रखकर जब मनुष्य चलता है तो उसके पास प्राण शक्ति की ही ढाल तलवार होती है। चारों ओर निराशा जनक घनघोर अन्धकार छाया होने पर भी प्राण शक्ति आशा की प्रकाश रेखा बनकर चमकती है। बालू में तेल निकालने की मरुभूमि में उपवन लगाने की, असंभव को संभव बनाने की राई को पर्वत करने की सामर्थ्य केवल प्राणवान में ही होती है। जिसमें स्वल्प प्राण हैं उसे जीवित मृतक कहा जाता है शरीर से हाथी के समान स्थूल होने पर भी उसे पराधीन पर मुखापेक्षी ही रहना पड़ता है। अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों पर थोपकर किसी प्रकार मन को सन्तोष देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा के लिए वह अपनी सामर्थ्य पर विश्वास नहीं करता। किसी सबल व्यक्ति की, नेता की, अफसर की, धनी की, सिद्ध पुरुष की, देवी देवता की सहायता ही उसकी आशाओं का केन्द्र होती है। ऐसे लोग सदा ही अपने दुर्भाग्य का रोना रोते रहते हैं।

प्राण द्वारा ही वह श्रद्धा, निष्ठा, दृढ़ता, एकाग्रता और भावना प्राप्त होती है जो भव बन्धनों को काटकर आत्मा को परमात्मा से मिलाती है, ‘मुक्ति’  को परम पुरुषार्थ माना गया है। संसार के अन्य सुख साधनों को प्राप्त करने के लिए जितने विवेक, प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है, मुक्ति के लिए उससे कम की नहीं वरन् अधिक की ही आवश्यकता होती है।

मुक्ति विजय का उपहार है जिसे साहसी शूर वीर ही प्राप्त करते हैं। भगवान अपनी ओर से न किसी को बन्धन देते हैं न मुक्ति, दूसरा न कोई स्वर्ग में ले जा सकता है न नरक में। हम स्वयं ही अपनी आन्तरिक स्थिति के आधार पर जिस दिशा में चलते हों उसकी लक्ष्य पर जा पहुंचते हैं।

उपनिषद का वचन है कि ‘‘नायमात्मा वल हीनेन लभ्यः’’  यह आत्मा बल हीनों को प्राप्त नहीं होती। निस्तेज व्यक्ति जब अपने घरवालों, पड़ौसियों, रिश्तेदारों, मित्रों को प्रभावित नहीं कर सकते तो भरा परम आत्मा, परमात्मा पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? तेजस्वी व्यक्ति ही आत्मलाभ भी कर सकते हैं। इसलिए प्राणसंचय के लिए योग शास्त्रों में अत्यधिक बल दिया गया है। प्राणायाम का महिमा से सारा अध्यात्म शास्त्र भरा पड़ा है।

जैसे सर्वत्र ईश्वर को महामहिमामयी गायत्री शक्ति व्याप्त है वैसे ही निखिल विश्व में प्राण का चैतन्य समुद्र भी भरा पड़ा है। जैसे श्रद्धा और साधना से गायत्री शक्ति को खींचकर अपने में धारण किया जाता है वैसे ही अपने प्राणमय कोश को सतेज और चेतन करके विश्व व्यापी प्राण में से यथेष्ट मात्रा में प्राण तत्व खींचा जा सकता है। यह भण्डार जितना अधिक होगा उतने ही हम प्राणवान बनेंगे और उसी अनुपात से सांसारिक एवं आध्यात्मिक सम्पत्तियां प्राप्त करने के अधिकारी हो जायेंगे।

दीर्घ जीवन उत्तम स्वास्थ्य, चैतन्यता स्फूर्ति, उत्साह, क्रियाशीलता, कष्ट सहिष्णुता, बुद्धि की सूक्ष्मता, सुन्दरता, मन मोहकता आदि विशेषताएं प्राण शक्ति रूपी फुलझड़ी की छोटी छोटी चिनगारियां हैं।

प्राणायाम— सांस को खींचने, उसे अन्दर रोक रखने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रिया पद्धति है। इस विधान के अनुसार प्राण को उसी प्रकार अन्दर भरा जाता है जैसे साइकिल की पम्प से ट्यूब में हवा भरी जाती है। यह पम्प इस प्रकार का बना होता है कि हवा को भरता तो है पर वापिस नहीं खींचता। प्राणायाम की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है। साधारण श्वांस प्रश्वांस क्रिया में वायु के साथ वह प्राण इसी प्रकार आता जाता रहता है जैसे सड़क पर मुसाफिर चलते रहते हैं किन्तु प्राणायाम विधि के अनुसार जब श्वांस प्रश्वांस क्रिया होती है तो वायु में से प्राण को खींच कर खास तौर से उसे शरीर में स्थापित किया जाता है जैसे कि धर्मशाला में यात्री को व्यवस्था पूर्वक टिकाया जाता है।

भारतीय योग शास्त्र षट्चक्रों में सूर्य चक्र को बहुत अधिक महत्व देता है। अब पाश्चात्य विज्ञान ने भी सूर्य ग्रन्थि का सूक्ष्म तंतुओं को केन्द्र स्वीकार किया है। और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है।

कुछ वैज्ञानिकों ने इसे ‘पेट का मस्तिष्क’ नाम दिया है। यह सूर्य चक्र या ‘सोलर प्लैक्सस’ आमाशय के ऊपर हृदय की धुकधुकी के ठीक पीछे मेरुदंड के दोनों ओर स्थित है, यह एक प्रकार की सफेद और भूरी गुद्दी से बना हुआ है। पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आन्तरिक क्रिया विधि पर इसका अधिकार मानते हैं और कहते हैं कि भीतरी अंगों की उन्नति अवनति का आधार यही केन्द्र है। किन्तु सच बात यह है कि यह खोज अभी अपूर्ण है, सूर्य चक्र का कार्य और महत्व उससे अनेक गुना अधिक है जितना कि वे लोग मानते हैं। ऐसा देखा गया है कि इस केन्द्र पर यदि जरा कड़ी चोट लग जाय तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है।

योग शास्त्र इस केन्द्र को प्राण कोश मानता है और कहता है कि यहीं से निकल कर एक प्रकार का मानवी विद्युत प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियों में प्रवाहित होता है। ओजस् शक्ति इसी संस्थान में रहती है।

प्राणायाम द्वारा इस सूर्य चक्र की एक प्रकार से हलकी हलकी मालिश होती है जिससे उसमें गर्मी, तेजी और उत्तेजना का संचार होता है और उसकी क्रिया शीलता बढ़ती है। प्राणायाम से फुफ्फुसों में वायु भरती है और वे फूलते हैं, यह फुलाव सूर्य चक्र की परिधि को स्पर्श करता है।

बार बार स्पर्श करने से जिस प्रकार काम सेवन—अंगों में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा फुफ्फुस के सूर्य चक्र का स्पर्श होना वहां एक सनसनी, उत्तेजना और हलचल पैदा करता है। यह उत्तेजना व्यर्थ नहीं जाती वरन् सम्बन्धित सारे अंग प्रत्यंगों को जीवन और बल प्रदान करती है जिससे शारीरिक और मानसिक उन्नतियों का द्वार खुल जाता है।

मेरु दण्ड का दाहिने बायें दोनों और नाड़ी गुच्छकों की दो श्रृंखलाएं चलती हैं यह गुच्छक आपस में सम्बन्धित हैं और इन्हीं में सिर, गले, छाती, पेट आदि के गुच्छक भी आकर शामिल हो गये हैं। अन्य अनेक नाड़ी तन्तुओं का भी यहां जमघट है। इनका प्रथम विभाग जिसे ‘मस्तिष्क मेरु विभाग’ कहते हैं शरीर के ज्ञान तंतुओं से घनी भूत हो रहा है। इसी संस्थान से असंख्य ‘बहुत ही बारीक’ भूरे तन्तु निकल कर रुधिर नाड़ियों में फैल गये हैं और अपने अन्दर बहने वाली विद्युत शक्ति से भीतरी शारीरिक अवयवों को संचालित किये रहते हैं।

ऊपर बताया जा चुका है कि मेरुदण्ड के दायें बायें नाड़ी गुच्छकों की दो प्रधान श्रृंखलाएं चलती हैं इन्हीं को योग में इड़ा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वांस क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यों को सुसंचारित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाड़ी गुच्छकों के ऊपर प्रधान रूप से है। प्राणायाम साधना में इन इड़ा पिंगला नाड़ियों को नियत विधि के अनुसार बलवान बनाया जाता है। जिससे उनसे संबंधित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आनन्ददायी स्वस्थता प्राप्त हो सके।

अत्यन्त प्राचीन काल से आध्यात्म वेत्ता पुरुष प्राणायाम के महत्व और उसके लाभों को अनुभव करते रहे हैं। तदनुसार समस्त भूमण्डल में योगी लोग अपनी-अपनी विधि से इन क्रियाओं को करते रहते हैं। महाप्रभु ईसामसीह अपने शिष्यों सहित एक पर्वत पर चढ़ कर ईश्वर प्रार्थना किया करते थे। कहा जाता है इस ऊंची चढ़ाई में आध्यात्मिक श्वांस क्रियाओं का रहस्य छिपा हुआ था।

बौद्ध धर्म में ‘जजन’ नामक प्राणायाम बहुत काल से चला आता है। प्रसिद्ध जापानी पुरोहित हकुइन जेशी ने प्राणायाम का खूब विस्तार किया था। यूनान से प्लेरन से भी बहुत पहले इस विज्ञान की जानकारी का पता चलता है। अन्यान्य देशों में भी किसी न किसी रूप में इस विद्या के अस्तित्व के प्रभाव मिलते हैं।

योगदर्शन सावन पाद के सूत्र 52, 54 में बताया गया है कि प्राणायाम से अविद्या का अन्धकार दूर होकर ज्ञान की ज्योति प्रगट होती है और मन एकाग्र होने लगता है। ऐसी गाथाएं भी सुनी जाती हैं कि प्राण को वश में करके योगी लोग मृत्यु को जीत लेते हैं और जब तक चाहें तब तक जीवित रह सकते हैं। प्राण शक्ति से अपने और दूसरों के रोगों को दूर करने का एक अलग विज्ञान है जिसे हम अपनी प्राण चिकित्सा विज्ञान पुस्तक में प्रकट कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त अनेक अन्यान्य प्रकार के प्राणायामों से होने वाले लाभ सुने और देखे जाते हैं। यह लाभ कभी कभी इतने विचित्र होते हैं कि उन पर आश्चर्य करना पड़ता है।

इन पंक्तियों में उन अद्भुत और आश्चर्य जनक घटनाओं की चर्चा न करके इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्राणायाम से शरीर की सूक्ष्म क्रिया पद्धति के ऊपर अदृश्य रूप से ऐसे विज्ञान समस्त प्रभाव पड़ते हैं जिनके कारण रक्त संचार, नाड़ी संचालन, पाचन क्रिया, स्नायविक दृढ़ता, गाढ़ निद्रा, स्फूर्ति एवं मानसिक विकास के चिह्न स्पष्ट रूप दृष्टि गोचर होते हैं एवं स्वस्थता, बलशीलता, प्रसन्नता उत्साह तथा परिश्रम की योग्यता बढ़ती है।

आत्मोन्नति, चित्त की एकाग्रता, स्थिरता, दृढ़ता आदि मानसिक गुणों की मात्रा में प्राण साधना के साथ साथ ही वृद्धि होती जाती है। इन लाभों पर विचार किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्राणायाम आत्मोन्नति की एक महत्वपूर्ण साधना है।

प्राण तत्व का वायु से विशेष सम्बन्ध है। पाश्चात्य वैज्ञानिक तो प्राण को वायु का ही एक सूक्ष्म भेद मानते हैं। सांस को ठीक तरह लेने न लेने पर प्राण की मात्रा का घटना बढ़ना निर्भर रहता है। इसलिए कम से कम सांस लेने के सही तरीके से प्रत्येक बाल वृद्ध को परिचित होना ही चाहिए।

हमें गहरी और पूरी सांस लेनी चाहिए जिससे वायु फेफड़े के हर भाग में जाकर सम्पूर्ण वायु मन्दिरों में से रक्त की सफाई कर सके, अधूरी और उथली सांस लेने से कुछ थोड़े से वायु मन्दिरों की सफाई हो पाती है क्योंकि उथली सांस का दबाव इतना नहीं होता कि वह हर एक कोठे तक पहुंच सके, जब हवा वहां तक पहुंचेगी ही नहीं तो सफाई, किस प्रकार होगी? सांस का संपर्क होने पर रक्त की अशुद्धता— कार्बोनिक एसिड गैस बाहर निकल जाती है और सांस का प्राण-ऑक्सीजन रक्त में घुल जाता है।

यह प्राण शक्ति उस शुद्ध हुए रक्त के दूसरे दौरे के साथ शरीर के अंग प्रत्यंगों में पहुंच कर उन्हें ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती है। शुद्ध रुधिर में एक चौथाई भाग ऑक्सीजन का होता है। यदि इस में न्यूनता हो जाय तो उसका प्रभाव पाचन क्रिया पर अनिवार्य रूप से पड़ता है ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मन्द होने लगती है।

इन सब प्रक्रियाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें पूरी गहरी सांस लेने की आवश्यकता है। जिससे रक्त की सफाई अच्छी तरह होकर अशुद्धता शेष न रहने पावे और शुद्ध हुए रक्त में पर्याप्त ऑक्सीजन मिल जाय जिससे अंग प्रत्यंगों में ताजगी एवं स्फूर्ति पहुंचती रहे और पाचन शक्ति में निर्बलता न आने पावे।

जठराग्नि मन्द होने से अन्य अंगों में शिथिलता आने लगती है और वे अपने काम को अधूरा एवं दोष पूर्ण छोड़ते हैं यह क्रम यदि कुछ समय जारी रहे तो जीवन यात्रा में नाना प्रकार की विघ्न बाधायें उपस्थित हो सकती हैं और विविध भांति के रोगों का सामना करना पड़ता है।

अधूरी सांस लेने वालों के फेफड़े का बहुत सा भाग निकम्मा पड़ा रहता है। जिन मकानों की सफाई नहीं होती उनमें गन्दगी, मकड़ी-मच्छर, छिपकली, कीड़े-मकोड़े आदि का जमघट होने लगता है इसी प्रकार फेफड़ों के जिन वायु कोष्ठों में सांस की वायु नहीं पहुंचती उनमें क्षय, खांसी, जुकाम, उरक्षत, कफ, दमा आदि के रोग कीट जड़ जमा लेते हैं धीरे धीरे वहां वे निर्वाध रीति से पलते रहते हैं और भीतर ही भीतर अपना इतना आधिपत्य जमा लेते हैं कि फिर उनका निकाल बाहर करना कठिन या असम्भव हो जाता है।

प्राणायाम विज्ञान का सबसे पहला और आरंभिक पाठ यह है कि हमें पूरी और गहरी सांस लेनी चाहिए। यह आदत डालने का प्रयत्न करना चाहिए सदैव इस प्रकार सांस ली जाय कि वायु से पूरे फेफड़े भर जायं। यह कार्य झटके से या उतावली में नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे इस प्रकार पूरी सांस खींचनी चाहिए कि छाती भरपूर चौड़ी हो जाय और फिर उसी धीरे क्रम से वायु को बाहर निकाल देना चाहिए।

यह रीति, फेफड़ों को स्वस्थ रखने वाली, रक्त को शुद्ध रखने वाली, शरीर के अंग प्रत्यंगों में चैतन्यता देने वाली, पाचन शक्ति ठीक बनाये रहने वाली है इसलिए आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाली भी है।

पूरी सांस लेने का अभ्यास डालने से छाती की चौड़ाई बढ़ती है, फेफड़ों की मजबूती और वजन में वृद्धि होती है हृदय की कमजोरी में सुधार होकर रक्त संचार की क्रिया में एक चैतन्यता दिखाई देने लगती है। पाठकों को श्वांस विज्ञान के इस तथ्य को गम्भीरता पूर्वक विचारना चाहिए और अविलम्ब पूरी एवं गहरी सांस लेने की आदत डालने का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिए। कुछ दिन सांस क्रिया पर ध्यान रखने से और भूल सुधारते रहने से यह आदत भली प्रकार पड़ जाती है।

प्राणायाम विज्ञान की दूसरी शिक्षा ‘नाक का सांस लेना’ है। यद्यपि मुंह से भी सांस ली जा सकती है पर वह उतनी उपयोगी कदापि नहीं हो सकती जितनी कि नाक से लेने पर होती है। एक बार एक जंगी जहाज के यात्रियों में चेचक बड़े उग्र रूप से फैली, डाक्टरों ने इनकी विशेष सावधानी से जांच करते रहने का प्रयत्न किया। मृतकों के बारे में उनकी रिपोर्ट थी कि यह लोग मुंह से सांस लेते थे। उस जहाज में एक भी मनुष्य ऐसा न मरा जिसे नाक से श्वांस लेने की आदत थी। जुकाम और सर्दी के रोगों के बारे में भी डाक्टरी जांच का यही निष्कर्ष है कि मुंह खोलकर सांस लेने से इनका प्रकोप विशेष रूप से होता है और भी अनेक छोटे बड़े रोग इसी बुरी आदत के कारण होते देखे गये हैं।

नाक से फेफड़ों तक जो हवा पहुंचाने वाली नली गई है उसकी रचना इस प्रकार हुई है कि वायु का उचित रूप से संशोधन, परिमार्जन करके भीतर पहुंचावे। नासिका के छिद्रों में छोटे-छोटे बाल होते हैं यह एक प्रकार की चलनी है जिसमें धूलि व गन्दगी के अणु अटके रह जाते हैं और छनी हुई वायु भीतर जाती है। जब आप नासिकों के छिद्रों में अंगुली डाल कर उनकी सफाई करते हैं तो उनमें से कुछ मैल निकलता है। यह मैल वह कचरा है जो वायु के छानने से जमा हुआ है।

नासिका में एक प्रकार का तरह पदार्थ स्रवित होता रहता है, बालों में अटकाने के सिवाय जो कचरा बच रहता है वह इस स्राव में चिपक जाता है वायु का इतना संशोधन नासिका के छिद्रों में हो जाने के उपरान्त वह आगे चलती है। श्वांस नली जो फेफड़ों तक मस्तिष्क में होती हुई गई है, काफी लम्बी है। इतनी लम्बाई में यात्रा करते हुए वायु का तापमान सह्य हो जाता है। यदि वह गरम हुई तो श्वांस नली के ताप के अनुसार ठण्डी हो जाती है यदि ठण्डी हुई तो गरम हो जाती है। इस प्रकार फेफड़ों तक पहुंचते-पहुंचते वह सब प्रकार सह्य और संशोधित हो जाती है। किन्तु यदि मुंह से सांस लें तो परिणाम बिलकुल दूसरी ही प्रकार का हो जाता है।

मुंह में नासिका की तरह बाल नहीं हैं जो वायु को छानें। दूसरे मुंह का छिद्र इतना बड़ा है कि उसमें वायु का गर्द गुवार बिना रुकावट के चला जा सकता है। तीसरे मुंह से फेफड़ों की दूरी बहुत कम है, इसलिए वायु की सर्दी गर्मी में भी विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता। इस प्रकार बिना छनी, गर्द-गुवार युक्त सर्द-गर्म हवा मुंह के द्वारा जब फेफड़ों में पहुंचती है तो उन्हें हानि पहुंचाती है और बीमारियों की उत्पत्ति करती है। देखा गया है कि जो लोग रात में मुंह से सांस लेते हैं सवेरे उनका मुंह सूखा हुआ, दाय युक्त कड़ुवा और बदबूदार होता है। रोगियों को यह लत हो तो उनके स्वस्थ होने में अनावश्यक देरी लग जाती है।

योगियों की प्राणायाम के अभ्यासियों को यह कड़ी ताकीद होती है कि वे सदा नाक से सांस लिया करें। यदि नासिका मार्ग में कुछ रुकावट हो जिसके कारण मुंह से सांस लेने के लिए बाध्य होना पड़ता हो तो नासिका रंध्रों की सफाई कर लेनी चाहिए।

संगीत से फेफड़े बहुत मजबूत होते हैं। गायन में जिन्हें रुचि होती है उन्हें छाती सम्बन्धी रोग कम होते देखे गये हैं। अत्यधिक गाने से या अनुचित अवस्था में अविधि पूर्वक गाने से बीमारियां हो सकती हैं परन्तु साधारणतः संगीत की गणना फेफड़े को मजबूत बनने वाले अभ्यासों में है।

कण्ठ, हृदय, पसली, आमाशय, आंत, यकृत आदि सभी धड़ के अन्तर्गत रहने वाले अंगों पर संगीत से अच्छा व्यायाम होता है। यदि अच्छे बाजे के साथ ध्वनि पूर्वक गाया बजाया जाय तो एक प्रकार की विद्युत तरंगें उत्पन्न होकर स्नायु-तन्तुओं को तरंगित करती रहती है, जिससे श्वांस संचालन क्रिया में विशेष रूप से सहायता मिलती है और मंद एवं शिथिल गति से कार्य करने वाले अंगों में गतिशीलता का आविर्भाव होता है। जिन्हें गाना बजाना आता है उन्हें भोजन के पश्चात कम से कम दो तीन घण्टे बचाकर सुविधानुसार अपना अभ्यास करना चाहिए। जो बजा न सकते हों उन्हें केवल गाना ही चाहिए। सुविधानुसार यदि वाद्य गायन सुनाने का अवसर मिले तो उसे भी लाभ उठाना चाहिए। क्योंकि संगीत से उत्पन्न होने वाली विद्युत लहरें सुनने वाले को भी प्रभावित करती हैं।

प्रातः सायं गायन वाद्य तथा नृत्य के साथ संकीर्तन करने की धार्मिक प्रथा का स्वास्थ्य से बड़ा घना सम्बन्ध है। संकीर्तन में सम्मिलित होने वालों के गले का एवं फेफड़ों का व्यायाम हो जाता है। जोर जोर से धार्मिक भजन गाने या शंख बजाने से भी फेफड़े का व्यायाम होता है और बहुत अंशों में प्राणायाम का लाभ मिलता है।

सर्व साधारण के लिए एक सर्व सुलभ प्राणाकर्षण क्रिया नीचे लिखी जाती है। यह स्त्री-पुरुष, बाल, वृद्ध सभी के लिए उपयोगी है। इससे साधक में धीरे-धीरे प्राणतत्व की मात्रा निरन्तर बढ़ती रहती है। गायत्री की ब्रह्म सन्ध्या में बताये हुए प्राणायाम की तरह निम्नलिखित प्राणाकर्षण क्रिया भी सबके लिए लाभ दायक एवं सरल है।





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