गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

ग्रन्थि भेद

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विज्ञानमय कोश की चतुर्थ भूमिका में पहुंचने पर जीवन को प्रतीत होता है कि तीन सूक्ष्म बन्धन भी मुझे बांधे हुए हैं। पंच तत्वों से शरीर बना है उनके शरीरों में पांच कोश हैं। गायत्री के यह पांच कोश ही पांच मुख हैं। इन पांच बन्धनों को खोलने के लिए कोशों की अलग अलग साधनाएं बताई गई हैं, विज्ञानमय कोश के अन्तर्गत तीन बन्धन हैं जो पंच भौतिक शरीर न रहने पर भी देव, गंधर्व, यक्ष, भूत, पिशाच आदि की योनियों में भी वैसा ही बन्धन बांधे रहते हैं जैसा कि शरीरधारी को होता है।

यह तीन बन्धन-ग्रन्थियां, रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, ब्रह्म ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें तीन गुण भी कह सकते हैं रुद्र-ग्रंथि-अर्थात् तम, विष्णु ग्रन्थि अर्थात् रज, ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात्। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर, ऊंचा उठ जाने पर आत्मा शान्ति और आनन्द का अधिकारी होता है।

इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्वपूर्ण कार्य को ध्यान में रखने के लिए कन्धे पर तीन तार का यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि तम, रज, सत के तीन गुणों द्वारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण, शरीर बने हुए हैं। यज्ञोपवीत के अन्तिम भाग में तीन ग्रन्थियां लगाई जाती है इसका तात्पर्य है कि रुद्र ग्रंथि विष्णु ग्रंथि तथा ब्रह्म ग्रंथि से जीव बंधा पड़ा है। इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ ऋण, ऋषि ऋण देव ऋण है। तम को प्रकृति, रज को जीव, सत को आत्मा कहते हैं।

व्यवहारिक जगत में तम को-सांसारिक जीवन, रज को, व्यक्तिगत जीवन, सत को-आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं। जैसे हमारे पूर्ववर्ती लोगों ने, पूर्वजों ने, अनेक प्रकार के उपकारों, सहयोगों द्वारा निर्बल दशा से ऊंचा उठाकर हमें बल, विद्या, बुद्धि, सम्पत्ति आदि से सम्पन्न किया है वैसे ही हमारा भी कर्तव्य है कि संसार में अपनी अपेक्षा किसी भी दृष्टि से जो लोग पिछड़े हुए हैं उन्हें सहयोग देकर ऊंचा उठावें। सामाजिक जीवन को मधुर बनावें। देश जाति और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें यही पितृ ऋण से, पूर्ववर्ती लोगों के उपकारों से उऋण होने का मार्ग है। व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से सुसम्पन्न बनाना, अपनी को मनुष्य जाति का एक सदस्य बनाना ऋषि ऋण से छूटना है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन निदिध्यासन आदि आत्मिक साधनाओं द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अपवित्रताओं का हटाकर आत्मा को परम निर्मल-देव तुल्य बनाना यह देव ऋण से उऋण होना है।

दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर तम का अर्थ होता है—शक्तिरज का अर्थ होता है—साधनसत् का अर्थ होता है—ज्ञान । इन तीनों की न्यूनता एवं विकृत अवस्था-बन्धन कारक, अनेक उलझनों कठिनाइयों और बुराइयों को उत्पन्न करने वाली हो जाती है। इसलिए जब इन तीनों की स्थिति संतोश जनक होती है तब त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त होती है।

आध्यात्मिक क्षेत्र में सूक्ष्म अन्वेषण करने वाले ऋषियों ने यह पाया है कि तीन गुणों, तीन शरीरों, तीन क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना अदृश्य केन्द्रों पर निर्भर रहता है सभी दिशाओं को उत्तम बनाने से यह केन्द्र उन्नत अवस्था में पहुंच सकते हैं। दूसरा उपाय यह भी है कि अदृश्य केन्द्रों को आत्मिक साधना विधि से उन्नत अवस्था में ले जाया जाय तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों को ऐसी स्थिति पर पहुंचाया जा सकता है कि जहां उनके लिए कोई बन्धन या उलझन शेष न रहे।

साधक की जब विज्ञानमय कोश में स्थिति होती है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार, हलचल करती हुई, हलकी, गांठें हैं। इनमें से एक गांठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में विदित होती है। यह तीनों ही पीठ के मध्य भाग में मेरुदंड के समीप होती हैं। इन गांठ में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को रुद्र ग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रंथि और सिर वाली को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीन को दूसरे शब्दों में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं।

इन तीन महाग्रंथियों की दो दो सहायक ग्रंथियां भी होती हैं। जो मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने वाली ब्रह्मनाड़ी के भीतर रहती है इन्हें ही चक्र भी कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि की शाखा ग्रन्थियां मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र कहलाती हैं। विष्णु ग्रन्थि की दो शाखाएं मणिपूर चक्र और अनहद चक्र हैं। मस्तिष्क में निवास करने वाली ब्रह्म ग्रन्थि के सहायक ग्रन्थि चक्रों को विशुद्ध चक्र और आज्ञा चक्र कहा जाता है। हठयोग की विधि से षट् चक्रों का वेधन किया जाता है। इस षट् चक्र वेधन विधि के संबंध में गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में हम काफी प्रकाश डाल चुके हैं। उसकी पुनरावृत्ति करने की आवश्यकता नहीं। जिन्हें हठयोग की अपेक्षा गायत्री की पंच मुखी साधना के अन्तर्गत विज्ञानमय कोश में ग्रन्थि भेद करना है उन्हीं के लिए आवश्यक जानकारी देने का यहां प्रयत्न किया जायगा।

रुद्र ग्रन्थि का आकार बेर के समान ऊपर को नुकीला नीचे को भारी, पेंदे में गड्ढा लिए हुए होता है, इसका वर्ण कालापन मिला हुआ लाल होता है। इस ग्रन्थि के दो भाग हैं दक्षिण भाग को रुद्र और वाम भाग को काली कहते हैं। दक्षिण भाग के अन्तरंग गह्वर में प्रवेश करके जब उसकी झांकी की जाती है तो ऊर्ध्व भाग में श्वेत रंग की एक छोटी सी नाड़ी हलका सा श्वेत रस प्रवाहित करती है, एक तन्तु तिरछा पीत वर्ण की ज्योति सा चमकता है। मध्य भाग में एक काले वर्ण की नाड़ी सांप की तरह मूलाधार से लिपटी हुई है, प्राण वायु का जब उस भाग से सम्पर्क होता है तो डिम डिम जैसी ध्वनि उसमें से निकलती है। रुद्र ग्रन्थि की आन्तरिक स्थिति की झांकी करके ऋषियों ने रुद्र का सुन्दर चित्र अंकित किया है। मस्तक पर गंगा की धारा, जटा में चन्द्रमा, गले में सर्प, डमरू की डिम डिम ध्वनि, ऊर्ध्व भाग नुकीलापन त्रिशूल के रूप में अंकित करके भगवान शंकर का एक ध्यान करने लायक सुन्दर चित्र बना दिया। उस चित्र में अलंकारिक रूप से रुद्र ग्रन्थि की वास्तविकताएं ही भरी गई हैं। उसी ग्रन्थि का वाम भाग जिस स्थिति में है उसकी वायु शृंखलाएं कोण, स्फुल्लिंग, तरंगें, नाड़ियां जिस स्थिति में हैं उसी स्थिति के अनुरूप काली का सुन्दर चित्र सूक्ष्म दर्शी आध्यात्मिक चित्रकारों ने अंकित कर दिया है।

विष्णु ग्रन्थि किस पर्ण की किस गुण की, किस आकार की, किस आन्तरिक स्थिति की, किस ध्वनि की, किस आकृति की है यह सब हमें विष्णु के चित्र से सहज ही प्रतीत हो जाता है। नील वर्ण, गोल आकार, शंख ध्वनि, कौस्तुभ मणि, बन माला यह चित्र उस मध्य ग्रन्थि का सहज प्रतिबिम्ब हैं।

जैसे मनुष्य को मुख की ओर से देखा जाय तो उसकी झांकी दूसरी प्रकार की होती है और पीठ की ओर से देखा जाय तब वह आकृति दूसरी ही प्रकार की होती है। एक ही मनुष्य के दो पहलू दो प्रकार के हो जाते हैं। इसी प्रकार एक ही ग्रन्थि दक्षिण भाग से देखने में पुरुत्व प्रधान उसी आकार प्रकार की और बांई ओर से देखने पर स्त्रीत्व प्रधान आकार प्रकार की होती है। एक ही ग्रन्थि को रुद्र या शक्ति ग्रन्थि कहा जा सकता है। विष्णु लक्ष्मी, ब्रह्मा और सरस्वती का संयोग भी इसी प्रकार है।

ब्रह्म ग्रन्थि मध्य मस्तिष्क में है। इससे ऊपर सहस्रार शतदल कमल है, यह ग्रन्थि ऊपर से चतुष्कोण और नीचे से फैली हुई। इसका नीचे का एक तन्तु ब्रह्म रंध्र से जुड़ा हुआ है। इसी को सहस्र मुख वाले शेष नाग की शय्या पर लेटे हुए भगवान के नाभि कमल से उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है। वाम भाग में यही ग्रन्थि चतुर्भुजी सरस्वती है। वीणा की झंकार से ॐकार ध्वनि का यहां निरन्तर गुंजार होता है।

यह तीनों ग्रन्थियां जब तक सुप्त अवस्था में रहती हैं बंधी हुई रहती हैं तब तक जीव साधारण दीन हीन दशा में पड़ा रहता है, अशक्ति, अभाव और अज्ञान उसे नाना प्रकार से दुख देते रहते हैं पर जब इनका खुलना आरम्भ होता है तो उनका वैभव बिखर पड़ता है। मुंह बन्द कली में न रूप है न सौंदर्य न गंध है आकर्षण, पर जब वह कली खिल पड़ती है और पुष्प के रूप में प्रकट होती है तो एक सुन्दर दृश्य उपस्थित हो जाता है। जब तक खजाने का ताला लगा हुआ है थैली का मुंह बन्द है, तब तक दरिद्रता दूर नहीं हो सकता पर जैसे ही रत्न राशि का भंडार खुल जाता है वैसे ही अतुलित वैभव का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।

रात को कमल का फूल बन्द होता है तो भौंरा भी उसमें बंद हो जाता है पर प्रातःकाल वह फूल फिर खिलता है तो भौंरा बन्धन मुक्त हो जाता है। यह तीन कलियां, तीन तीन ग्रन्थियां, जीव को बांधे हुए हैं जब यह खुल जाती हैं तो मुक्ति का अधिकार स्वयमेव ही प्राप्त हो जाता है। इन रत्न राशियों का ताला खुलते ही शक्ति सम्पन्नता और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हस्तगत हो जाता है।

चिड़िया अपनी छाती की गर्मी से अंडों को पकाती हैं, चूल्हें की गर्मी से भोजन पकता है, सूर्य की गर्मी से वृक्षों, वनस्पतियों और फलों का परिपाक होता है। माता नौ महीने तक बालक को पेट में पका कर उस को इस स्थिति में लाती है कि वह जीवन धारण कर सके। विज्ञानमय कोश की यह तीन ग्रन्थियां भी तप की गर्मी से पकती हैं। तप द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश—सरस्वती, लक्ष्मी, काली सभी का परिपाक हो जाता है। यह शक्तियां समदर्शी हैं। न उन्हें किसी से प्रेम है न द्वेष। रावण जैसे असुर ने भी शंकर जी से वरदान पाये थे और अनेक सुर भी कोई सफलता नहीं प्राप्त कर पाते। इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है। श्रम और प्रयत्न ही परिपक्व होकर सफलता बन जाता है।

रुद्र, विष्णु और ब्रह्म ग्रन्थियों को खोलने के लिए उस ग्रन्थि के मूल भाग में निवास करने वाली बीज शक्तियों का संचार करना पड़ता है। रुद्र ग्रन्थि के अधोभाग में बेर के डंठल की तरह एक सूक्ष्म प्राण अभिप्रेत होता है जिसे क्लीं बीज कहते हैं। विष्णु ग्रन्थि के मूल में श्रीं बीज का निवास है और ब्रह्म ग्रन्थि के नीचे ह्रीं तत्व का अवस्थान है। मूल बन्ध बांधते हुए एक ओर से अपान और दूसरी ओर से कूर्म प्राण को चिमटे की तरह बनाकर रुद्र ग्रन्थि को पकड़ कर रेचक प्राणायाम द्वारा दबाते हैं। इन दबाव की गर्मी से क्लीं बीज जागृत हो जाता है। वह नोकदार डंठल आकृति का बीज अपनी ध्वनि और रक्त वर्ण प्रकाश ज्योति के साथ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है।

इस जागृत क्लीं बीज की अग्रिम नोंक से कंचुकी क्रिया की जाती है। जैसे किसी वस्तु में छेद करने के लिए कोई नोकदार कील कोंची जाती है इस प्रकार की वेधन साधना को कंचुकी क्रिया कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि के मूल केन्द्र में क्लीं बीज की अग्र शिखा से जब निरन्तर कंचुकी होती है तो प्रस्तुत कालिका में भी भीतर ही भीतर एक विशेष प्रकार के लहलहाते हुए तड़ित प्रवाह उठने लगते हैं। इनकी आकृति एवं गति सर्प जैसी होती है इन तड़ित प्रवाहों को ही शंभु के गले में फुसकारने वाले सर्प बताया है। जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत के उच्च शिखर पर धूम मिश्रित अग्नि निकलती है उसी प्रकार रुद्र ग्रन्थि के ऊपरी भाग में पहले क्लीं बीज की अग्नि जिह्वा प्रकट होती है। इसी को काली की बाहर निकली हुई जीभ माना गया है। इस को शंभु का तृतीय नेत्र कहते हैं।

मूल बन्ध, अपान और कूर्म प्राण के आघात से जागृत हुए क्लीं बीज की कंचुकी क्रिया से धीरे धीरे रुद्र ग्रन्थि शिथिल होकर वैसे ही खुलने लगती है जैसे कली धीरे धीरे खिलकर फूल बन जाती है। इस कमल पुष्प के खिलने को पद्मासन कहा गया है। त्रिदेवों के कमलासन पर विराजमान होने के चित्रों का तात्पर्य यही है कि वे विकसित रूप से परिलक्षित हो रहे हैं।

साधक के प्रयत्न के अनुरूप खुली हुई रुद्र ग्रन्थि का भीतरी भाग जब प्रकटित होता है तब साक्षात् रुद्र का, काली का, अथवा रक्त वर्ण सर्प के समान लहलहाती हुई क्लीं घोष करती हुई अग्नि शिखा का, साक्षात्कार होता है। यह रुद्र जागरण साधक में अनेक प्रकार की गुप्त प्रकट शक्तियां भर देता है। संसार की सब शक्तियों का मूल केन्द्र रुद्र ग्रन्थि ही है। उसे रुद्र लोक या कैलाश भी कहते हैं। प्रलय काल में संसार संचालिनी शक्ति व्यय होते होते पूर्ण शिथिल होकर जब सुषुप्त अवस्था को चली जाती है तो रुद्र का ताण्डव नृत्य होता है उस महा मंथन से इतनी शक्ति फिर उत्पन्न हो जाती है जिससे आगामी प्रलय तक काम चलता रहे। घड़ी में चाबी भरने के समान रुद्र का प्रलय तांडव होता है। रुद्र शक्ति की शिथिलता से ही जीवों की तथा पदार्थों की मृत्यु हो जाती है इसीलिए रुद्र को मृत्यु का देवता माना गया है।

विष्णु ग्रन्थि को जागृत करने के लिए जालन्धर बन्ध बांधकर ‘समान’ और ‘उदान’ प्राणों द्वारा दबाया जाता है तो उसके मूल भाग का श्रीं बीज जागृत होता है यह गोल गेंद की तरह और इसकी अपनी धुरी पर द्रुत गति से घूमने की क्रिया होती है। इस घूर्णन क्रिया के साथ साथ एक ऐसी सनसनाती हुई सूक्ष्म ध्वनि होती है जिसको दिव्य श्रोत्रों से ‘श्रीं’ जैसा सुना जाता है।

श्रीं बीज को विष्णु ग्रन्थि की वाह्य परिधि में भ्रामरी क्रिया के अनुसार घुमाया जाता है। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है उसी प्रकार परिभ्रमण करने को भ्रामरी कहते हैं। विवाह में वर वधू की भांवरिया फेरे पड़ना, देव मन्दिरों के यज्ञ की परिक्रमा या प्रदक्षिणा होना भ्रामरी क्रिया का ही एक रूप है। विष्णु की उंगली पर घूमता हुआ चक्र सुदर्शन चित्रित करके योगियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव किये गये इसी रहस्य को प्रकट किया है कि श्रीं बीज जब विष्णु ग्रन्थि की भ्रामरि गति से परिक्रमा करने लगता है तब उस महा तत्व का जागरण होता है।

पूरक प्राणायाम की प्रेरणा देकर समान और उदान द्वारा जागृत किये गये श्रीं बीज से जब विष्णु ग्रन्थि के वाह्य आवरण की मध्य परिधि में भ्रामरी क्रिया की जाती तो उसके गुंजन से उसका भीतरी भाग चैतन्य होने लगता है इस चेतना की विद्युत तरंगें इस प्रकार उठती है जैसे पक्षी के पंख दोनों बाजुओं में हिलते हैं। उसी गति के आधार पर विष्णु का वाहन गरुण निर्धारित किया गया है।

इस साधना से विष्णु ग्रन्थि खुलती है और साधक की मानसिक स्थिति के अनुरूप विष्णु, लक्ष्मी या पीत वर्ण अग्नि शिखा की लपटों के समान महान् ज्योति पुंज का साक्षातकार होता है विष्णु का पीताम्बर इस पीत ज्योति पुंज का ही प्रतीक है। इस ग्रन्थि का खुलना ही बैकुंठ, स्वर्ग, एवं विष्णु लोक को प्राप्त करना है। बैकुंठ या स्वर्ग को अनन्त ऐश्वर्य का केन्द्र माना जाता है वहां सर्वोत्कृष्ट सुख साधन जो संभव हो सकते हैं वे प्रस्तुत हैं। विष्णु ग्रन्थि वैभव का केन्द्र है जो उसे खोल लेता है उसे विश्व के ऐश्वर्य पर परिपूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।

ब्रह्म ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य भाग में सहस्र दल कमल की छाया में अवस्थित है। उसे अमृत कलश भी कहते हैं। बताया गया है कि सुरलोक में अमृत कलश की रक्षा सहस्र फनों वाले शेष नाग करते हैं। इसका अभिप्राय इसी ब्रह्म ग्रन्थि से है।

उड्डियान बन्ध लगाकर व्यान और धनंजय प्राणों द्वारा ब्रह्म ग्रन्थि को पकाया जाता है। पकने से उसके मूलाधार में वास करने वाली ह्रीं शक्ति जागृत होती हैं। इसकी गति को प्लाविनी कहते हैं। जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती हैं और निरन्तर आगे को ही लहराती हुई चलती है उसी प्रकार ह्रीं बीज की प्लाविनी गति से ब्रह्म ग्रन्थि में दक्षिणायन से उत्रायण की ओर प्रेरित करते हैं। चतुष्कोण ग्रंथि के ऊर्ध्व भाग में यह ह्रीं तत्व रुक रुक कर गांठें सी बनाता हुआ आगे की ओर चलता है और अन्त में परिक्रमा करके अपने मूल स्थान को लौट आता है।

गांठ बनाते चलने की नीची ऊंची गति के आधार पर माला के दाने बनाये गये हैं। 108 दचके लगाकर तब एक परिधि पूरी होती है इसलिए माला में 108 दाने होते हैं। इस ह्रीं तत्व की तरंगें मन्थर गति से इस प्रकार चलती है जैसे हंस चलता है। ब्रह्मा या सरस्वती का वाहन हंस इसी लिए माना गया है। वीणा के तारों की झंकार से मिलती जुलती ‘ह्रीं’ ध्वनि सरस्वती की वीणा का परिचय देती है।

कुंभक प्राणायाम की प्रेरणा से ह्रीं बीज की प्लाविनी क्रिया आरम्भ होती है। यह क्रिया निरन्तर होते रहने पर ब्रह्म ग्रन्थि खुल जाती है। तब उसका ब्रह्म के रूप में, सरस्वती के रूप में, अथवा श्वेत वर्ण प्रकम्पित शुभ्र ज्योति शिखा के समान साक्षात्कार होना है। यह स्थिति आत्मज्ञान ब्रह्म प्राप्ति, ब्राह्मी स्थिति की है। ब्रह्म लोक एवं गो लोक भी इसे कहते हैं। इस स्थिति को उपलब्ध करने वाला साधक ज्ञान बल से परिपूर्ण हो जाता है। उसकी आत्मिक शक्तियां जागृत होकर परमेश्वर के समीप पहुंचा देती है, अपने पिता का उत्तराधिकार उसे मिलता है और जीवन मुक्त होकर ब्राह्मी स्थिति का आनन्द, ब्रह्मानन्द उपलब्ध करता है।

षट चक्र बेधन का हठयोग सम्मत विधान अथवा महायोग का यह ग्रन्थि भेद, दोनों ही समान स्थिति के हैं। साधक अपनी स्थिति के अनुसार उन्हें अपनाते हैं दोनों से ही विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता है।





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