गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

प्राणाकर्षण की सुगम क्रियाएं

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प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्ति होकर साधना के लिए किसी स्वच्छ शान्ति दायक स्थान में आसन बिछा कर बैठिये दोनों हाथ दोनों घुटनों पर रखिये। मेरुदण्ड सीधा रहे। नेत्र बन्द कर लीजिये।

फेफड़ों में भरी हुई सारी हवा बाहर निकाल दीजिए। अब धीरे धीरे नासिका द्वारा सांस लेना आरम्भ कीजिए जितनी अधिक मात्रा में भर सकें फेफड़ों में हवा भर लीजिए। अब कुछ देर उसे भीतर ही रोके रहिए। इसके पश्चात् सांस को धीरे-धीरे नासिका द्वार से बाहर निकालना आरम्भ कीजिए। हवा को जितना अधिक खाली कर सकें कीजिए। अब कुछ देर सांस को बाहर ही रोक दीजिए, अर्थात् बिना सांस के रहिये, इसके बाद पूर्ववत् वायु खींचना आरम्भ कर दीजिए। यह एक प्राणायाम हुआ।

सांस निकालने को रेचक, खींचने को पूरक और रोके रहने को कुम्भक कहते हैं। कुम्भक के दो भेद हैं। सांस को भीतर भरकर रोके रखना ‘अन्तर कुम्भक’  और खाली करके बिना सांस रहना ‘वाह्य कुम्भक’ कहलाता है। रेचक और पूरक में समय बराबर लगाना चाहिए पर कुम्भक में उसका आधा समय ही पर्याप्त है।

पूरक करते समय भावना करनी चाहिए कि मैं जन शून्य लोक में अकेला बैठा हूं मेरे चारों ओर चैतन्य विद्युत जैसी जीवनी शक्ति का समुद्र लहरें ले रहा है। सांस द्वारा वायु के साथ-साथ प्राण शक्ति को मैं अपने अन्दर खींच रहा हूं।

अन्तर कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि उस चैतन्य प्राण शक्ति को मैं अपने भीतर भरे हूं। समस्त नस नाड़ियों में, अंग प्रत्यंगों में वह शक्ति स्थिर हो रही है। उसे सोख कर देह का रोम-रोम चैतन्य, प्रफुल्ल, सतेज एवं परिपुष्ट हो रहा है।

रेचक करते समय भावना करनी चाहिए कि शरीर में संचित मल, रक्त में मिले हुए विष, मन में धंसे हुए विकार सांस छोड़ने पर वायु के साथ-साथ बाहर निकाले जा रहे हैं।

वाह्य कुम्भक करते समय भावना करनी चाहिए कि अन्दर के दोष सांस के द्वारा बाहर निकाल कर भीतर का दरवाजा बन्द कर दिया गया है ताकि वे विकार वापिस लौटने न पावें।

इन भावनाओं के साथ प्राणाकर्षण प्राणायाम करने चाहिए। आरम्भ में पांच प्राणायाम करें फिर क्रमशः सुविधानुसार बढ़ाते जावें।

कहीं एकान्त स्थान में जाओ। समतल भूमि पर नरम बिछौना बिछा कर पीठ के बल लेट जाओ मुंह ऊपर को रहे। पैर, कमर, छाती, सिर सब एक सीध में रहें। दोनों हाथ सूर्य चक्र पर (आमाशय का वह स्थान जहां पसलियां और पेट मिलता है) रहें, मुंह बन्द रखो। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दो मानो वह कोई निर्जीव वस्तु हैं और उससे तुम्हारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। कुछ देर शिथिलता की भावना करने पर शरीर बिलकुल ढीला पड़ जायगा। अब धीरे-धीरे नाक द्वारा सांस खींचना आरम्भ करो और दृढ़ शक्ति के साथ भावना करो कि विश्व व्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वच्छ प्राण, सांस के साथ खींच रहा हूं और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्य चक्र में इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को कल्पना लोक में इतनी दृढ़ता के साथ उतारो कि प्राणशक्ति की बिजली जैसी किरणें नासिका द्वारा देह में घूमती हुई चित्रवत् दीखने लगें और अपना रक्त का दौरा एवं नाड़ी समूह तस्वीर की तरह दीखें तथा उसमें प्राण प्रवाह बहता हुआ नजर आवे। भावना की जितनी अधिकता होगी उतनी ही अधिक मात्रा में तुम प्राण खींच सकोगे।

फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो और पांच से दस सेकिण्ड तक उसे भीतर रोके रहो। आरम्भ में पांच सेकिण्ड काफी हैं, पश्चात् अभ्यास बढ़ने पर दस सैकिण्ड तक रोक सकते हैं। सांस रोकने के समय अपने अन्दर प्रचुर परिणाम में प्राण भरा हुआ है अनुभव करना चाहिए। अब वायु को मुंह द्वारा धीरे धीरे बाहर निकालो। निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि शरीर के सारे दोष रोग और विष इसके द्वारा निकाल बाहर किये जा रहे हैं। दस सेकिण्ड तक बिना हवा के रहो और फिर पूर्ववत् प्राणाकर्षण प्राणायाम करना आरम्भ करदो। स्मरण रखो कि प्राणाकर्षण का मूल तत्व सांस खींचने छोड़ने में नहीं वरन् आकर्षण की उस भावना में है जिसके अनुसार अपने शरीर में प्राण का प्रवेश होता हुआ चित्रवत् दिखाई देने लगता है।

इस प्रकार की श्वांस प्रश्वांस की क्रियाएं दस मिनट से लेकर धीरे धीरे आधे घन्टे तक बढ़ा लेनी चाहिए। श्वांस द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य चक्र में जमा होता जा रहा है इसकी विशेष रूप से भावना करो। यदि मुंह द्वारा सांस छोड़ते समय आकर्षित प्राण को छोड़ने की भी कल्पना करने लगे तो यह सारी क्रिया व्यर्थ हो जायगी और कुछ भी लाभ न मिलेगा।

ठीक तरह से प्राणाकर्षण करने पर सूर्य चक्र जाग्रत होने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पसलियों के जोड़ का आमाशय के स्थान पर तो गड्ढा है वहां सूर्य के समान एक छोटा सा प्रकाश बिन्दु मानस नेत्रों से दीखने लगता है। यह गोला आरम्भ में छोटा, थोड़े प्रकाश का और धुंधला मालूम देता है। किन्तु जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ने लगता वैसे-वैसे वह साफ, स्वच्छ, बड़ा और प्रकाशवान् होता जाता है। जिसका अभ्यास बढ़ा चढ़ा है उन्हें आंखें बन्द करते ही अपना सूर्य चक्र साक्षात सूर्य की तरह तेजपूर्ण दिखाई देने लगता है। वह प्रकाशित तत्व सचमुच प्राणशक्ति है। इसकी शक्ति से कठिन कार्यों में अद्भुत सफलता प्राप्त होती है।

अभ्यास पूरा करके उठ बैठो। तुम्हें मालूम पड़ेगा कि रक्त का दौरा तेजी से हो रहा है और सारे शरीर में एक बिजली सी दौड़ रही है अभ्यास के उपरान्त कुछ देर शान्तिमय स्थान में बैठना चाहिए और हो सके तो किसी सात्विक वस्तु का जलपान कर लेना चाहिए। अभ्यास से उठ कर एक दम किसी काम में जुट जाना, स्नान, भोजन या मैथुन करना निषिद्ध है।

ऊपर सर्व साधारण के उपयोग की श्वांस प्रश्वांस क्रियाओं का वर्णन हो चुका है। इसके उपयोग से गायत्री साधकों की आन्तरिक दुर्बलता दूर होती है और प्राणवान होने के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। प्राणमय कोश की भूमिका को पार करते हुए दश प्राणों को संशोधित करना पड़ता है।

मनुष्य शरीर में दस जाति के प्राणों का निवास है। इनमें से पांच को महा प्राण और पांच को लघु प्राण कहते हैं।

1—प्राण
2—अपान
3—समान
4—उदान
5—व्यान

यह पांच महा प्राण हैं , और

1—नाग
2—कूर्म
3—कृकल
4—देवदत्त
5—धनंजय,

यह पांच लघु प्राण हैं।

शरीर में कुछ ऐसे भ्रमर हैं जिनमें जाने से प्राण तत्व की क्रिया एवं स्थिति उन भ्रमरों के अनुकूल ही हो जाती है। बिजली की धारा बल्व के स्पर्श से प्रकाश करती है, पंखे के साथ मिलकर हवा करती है, मोटर में जाकर ताकत पैदा करती है रेडियो में उसका कार्य ध्वनि को पकड़ना होता है।

प्राण तत्व एक प्रकार की विद्युत शक्ति के समान है। बहते हुए पानी में जैसे भ्रमरों के गड्ढे पड़ते हैं वैसे ही सूक्ष्म शरीर में कुछ ऐसे भ्रमर हैं जिनके साथ प्राण का सम्मिश्रण होने से एक विशेष प्रक्रिया बन जाती है।

पांच महा प्राणों को ‘‘ओजस्’’ ओर पांच लघु प्राणों को ‘‘रेतस्’’ कहते हैं। दोनों प्राण एक दूसरे के सहायक एवं पूरक हैं। दोनों नेत्र, दोनों नथुने, दोनों कान, दोनों हाथ, दोनों पैर एक दूसरे के सहायक, पूरक एवं साथी हैं इसी प्रकार महा प्राण और लघु प्राण भी आपस में सम्बद्ध तथा सहायक हैं। इनको एक ही प्राण के दो भाग कहा जा सकता है। एक होते हुए भी कुछ विशेष भेदों के कारण मस्तिष्क को अगला (बड़ा) मस्तिष्क और पिछला (छोटा मस्तिष्क) दो भागों में बांटा गया है वैसे ही एक प्राण तत्व भी दो भागों में विभाजित हुआ।

‘प्राण’ वायु का निवास स्थान हृदय है। ‘नाग’ भी उसके समीप रहता है। ‘अपान’ गुदा और मूत्रेन्द्रिय के बीच में मूलाधार के निकट रहता है, उसी के पास ‘कूर्म’ लघु प्राण का निवास है। ‘समान’ और ‘कृकाल’ नाभि में रहते हैं। ‘उदान’ और ‘देवदत्त’ का स्थान कण्ठ है। ‘व्यान’ और ‘धनंजय’ में आकाश तत्व का मिश्रण अधिक रहने से ये सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हैं पर उनका प्रधान केन्द्र मस्तक का मध्य भाग है।

साधारणतः ऐसा माना जाता है कि प्राण के द्वारा शब्द एवं मस्तिष्क का पोषण होता है। अपान से मलमूत्र स्वेद आदि का विसर्जन होता है। समान के पाचन, परिपाक, उष्णता का संचार होता है। उदान विविध वस्तुएं बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है। व्यान का काम रक्त संचार है। लघु प्राणों में नाग से डकार आती है। कूर्म से पलक मारने और बन्द होने की क्रिया होती है। कृकल से छींकें और देवदत्त से जंभाई आती है। धनंजय जीवित अवस्था में शरीर पोषण करता है और मरने पर देह को सड़ा गला कर शीघ्र नष्ट करने का प्रबन्ध करता है।

यह मान्यताएं सर्वांगपूर्ण नहीं हैं। जिस स्थान पर जिस प्राण का निवास बताया गया है। वहां एक प्रकार के वायु भ्रमर होते हैं जिनमें कठिन प्राणों का विशेष संचार रहता है। गर्मी के दिनों में जब वायु अधिक गरम हो जाती है तो एक प्रकार ‘वायु भ्रमर’ उत्पन्न होते हैं जो घूमते और नाचते हुए अन्धड़ की तरह आगे को चलते हैं। इसी प्रकार के कुछ भ्रमर शरीर में पाये जाते हैं।

सूक्ष्म निरीक्षण करने पर पता चला है कि इन स्थानों पर शरीर गत वायु और प्राण की उष्णता के कारण एक प्रकार के भ्रमर चक्र उत्पन्न हो जाते हैं। भ्रमर सदा ऊपर से चौड़े होते हैं और नीचे की तरफ ढलवां होते जाते हैं तथा अन्त में बहुत ही छोटे नोंक मात्र रह जाते हैं। ऊपर के सबसे चौड़े भाग को ‘स्तर’ और नीचे के सबसे नुकीले भाग को बिन्दु कहते हैं। इसी प्रकार प्राण वायु के भ्रमर का ऊर्ध्व भाग महा प्राण और अधः भाग लघु प्राण कहा जाता है। एक स्तर है तो दूसरा बिन्दु। वस्तुतः दोनों एक ही महत्तत्व के दो विभाग मात्र हैं।

वस्तुतः प्राण का कार्य जीवन चलाना है। हृदय की धड़कन जीवन की प्रतीक है। घड़ी में फिनर की ऐंठ ही सब कल पुर्जों को चलाती है। फिनर की चाबी समाप्त हो जाय तो पुर्जों का चलना बन्द हो जायगा। प्राण के द्वारा हृदय की धड़कन होती है फिर उससे रक्त संचार होता है, सांस आती जाती है इसके बाद शरीर की अन्य क्रियाएं होती हैं।

प्राण में शिथिलता आपने पर जीवनी शक्ति घट जाती है और उसके अत्यन्त न्यून हो जाने पर हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। समाधि लगाने वाले, महात्माओं का प्राण पर अधिकार होता है वे दीर्घ काल निस्तब्ध रहने पर भी जब चाहते हैं तब शरीर में प्राण का स्पन्दन बढ़ाकर हृदय का धड़कना आरम्भ कर देते हैं और साधारण जीवन जीने लगते हैं। जब तक उनका प्राण खिंचकर ब्रह्माण्ड में संचित किया रहता है तब तक हृदय की धड़कन बन्द रहती है और शरीर मृत तुल्य हो जाता है। इसलिए उनको दीर्घ काल तक समाधि सुख मिलता रहता है।

प्राण पर अधिकार प्राप्त किये बिना लम्बे समय तक स्थिर समाधि नहीं लग सकती। प्राण पर अधिकार करके दीर्घ काल तक जीवन स्थिर रखना, मृत्यु को इच्छानुवर्ती बना लेना सम्भव है। एक मनुष्य दूसरे को प्राण दान दे सकता है। जैसे एक मनुष्य का रक्त दूसरे के शरीर में पहुंचाया जा सकता है वैसे ही एक का प्राण दूसरे के शरीर में प्रवेश करके उसे जीवन एवं मनोबल दे सकता है।

‘अपान’ का स्थूल कार्य मलों को ठीक प्रकार विसर्जन करना है। देह के भीतर सदा पैदा होने वाले मल, मूत्र, पसीना, कफ, कीचड़, विष, विजातीय पदार्थ आदि त्याज्य पदार्थों को अनेक छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालता रहता है। यदि अपान अपनी यह क्रिया न करे तो शरीर में मल निकालने की शक्ति घट जायगी और अपच जुकाम आदि अनेक रोग पैदा हो जायेंगे।

इसके अतिरिक्त अपान की सूक्ष्म क्रिया जननेन्द्रिय में होती है। काम वासना का आधार इसी पर निर्भर है। मन को मथ डालने वाली, चित्त को आधीर व्यग्र एवं आतुर कर डालने वाली, वासना अपान के उत्तेजित हो जाने से होती है। यह यदि शिथिल हो जाय तो तरुण पुरुष भी नपुंसक हो जायगा। सन्तान का सौन्दर्य, स्वास्थ्य, बुद्धि, पराक्रम एवं स्वभाव अपान में बहुत कुछ सम्बन्धित है। अपान का सहवर्ती ‘कूर्म’ लघु प्राण यदि सुषुप्त अवस्था में होगा तो शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ होने पर भी गर्भ की स्थापना कदापि न हो सकेगी।

जिन स्त्री पुरुषों में अपान साम्य होता है उन्हें काम सेवन में असाधारण आनन्द आता है। रूप सौन्दर्य पर नहीं काम तुष्टि, अपान की समानता पर निर्भर रहती है। पुरुष में अपान और स्त्री में कूर्म प्रधान होता है। दोनों के परस्पर मिलन से एक ऐसा प्राण परिवर्तन होता है जो अनेक शारीरिक और मानसिक अभावों की पूर्ति करता है। अपान पर अधिकार की पद्धति न जानते हुए भी जिन्हें हठ पूर्वक ब्रह्मचर्य रखना पड़ता है वे प्रायः किन्हीं न किन्हीं रोगों में ग्रसित रहते हैं।

आज विधुरों और विधवाओं में से अधिकांश का स्वास्थ्य खराब देखा जाता है और जन गणना की रिपोर्टों से पता चलता है कि गृहस्थों की अपेक्षा विधुरों की मृत्यु संख्या अनुपात कहीं अधिक है। जिनमें अपान की समानता है वे अकारण ही आपस में घनिष्ठ मित्र बन जाते हैं। उन्हें एक दूसरे के साथ रहने में बड़ी शान्ति मिलती है। ऐसे मित्रों को ही ‘प्राणसखा’ कहते हैं। उन्हें आपसी वियोग मर्मान्तक दुख देता है।

समान प्राण उदर में नाभि के नीचे रहता है। पाचन इसका मुख्य कार्य है। गर्मी, उष्णता, एवं पित्त को समान का प्रतीक कहते हैं। शरीर में चंचलता, स्फूर्ति, उत्साह, छरहरा पन एवं चमक इसी के कारण होती है। त्वचा की चिकनाई, कोमलता, चमक में कृकल प्राण का आस्तित्व परिलक्षित होता है। खूब भूख लगना अधिक आहार करना, जल्दी पचा लेना, सर्दी के प्रभाव से व्यथित न होना समान की विशेषता है। जिनमें यह प्राण कम होगा वे सर्दी बर्दाश्त न कर सकेंगे। जाड़े में उनकी देह लुंजपुंज सी हो जायगी। कानों को, उंगलियों को, पैरों को बड़ी ठंड लगेगी, ठंडे जल से जाड़े के दिनों में स्नान करना उन्हें बड़ा कष्टकर होगा। अधिक कपड़े लादे रहने पर ठंड न छूटेगी।

ऐसे लोगों का जरा से भोजन में पेट भर जाता है। गरम पदार्थ खाने की धूप या अग्नि के निकट बैठने की इच्छा रहती है। ऐसे मनुष्य अपनी निर्बलता के कारण गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाते पर गर्मी का मौसम उनकी प्रकृति के अनुकूल पड़ता है। ‘समान’ की न्यूनता के कारण शरीर में उष्णता कम रहती है उसकी पूर्ति गरम मौसम से हो जाती है। ऐसे लोगों की नाड़ी पतली चलती है।

समान प्राण का स्वास्थ्य से बड़ा संबंध है। इन्द्रियों की रसानुभूति समान के आधार पर घटती बढ़ती रहती है। स्वादिष्ट पदार्थ, मनोरम दृष्टि, मधुर ध्वनि, सुखद स्पर्श सुरभित गंध को भली प्रकार ग्रहण करने और उनसे आनंदित होने की क्षमता ‘समान’ शक्ति वाले में होती है। जिसका समान घट जायगा वह सब प्रकार की सुखद् परिस्थिति होते हुए भी खिन्न, असंतुष्ट एवं झुंझलाया हुआ रहेगा। देह का कोई न कोई अंग बीमारी का कष्ट पाता रहेगा।

ऐसे लोगों को सन्निपात मोतीझला आदि तीव्र रोग तो नहीं होते पर जुकाम, खांसी, पेट का भारीपन, सिर का दर्द कमर, का दर्द, दांतों का हिलना, आंखों की कमजोरी, देह का टूटना, थकान जैसे मंद रोग घेरे रहेंगे। एक से पीछा टूटने से पहिले ही दूसरा नया उत्पन्न हो जायगा।

‘समान’ पित्त का प्रतीक है। ‘कृकल’ कफ का प्रतिनिधि है। दोनों के मिलने से ‘वात’ बनता है। इन तीनों को उलझने सुलझने, घटने बढ़ने से बीमारी और तंदुरुस्ती का चक्र घूमता है। कहा जाता है कि बीमारी की जड़ पेट में है। इसका अर्थ यही है कि नाभि चक्र के निवासी समान और कृकल ही हमारे स्वास्थ्य के अधिपति हैं। इन पर अधिकार होने से चिरस्थायी स्वास्थ्य का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।

‘उदान’ प्राण का निवास कंठ है। यह श्री और समृद्धि का स्थान है। लक्ष्मीजी का केन्द्र कंठ कूप की ‘स्फुटा’ ग्रन्थि को माना गया है। लक्ष्मीजी की पूजा एवं स्फुटा के उत्तेजन के निमित्त कंठ में स्वर्णाभूषण धारण किये जाते हैं। स्फुटा पर धातुओं और रत्नों का जो प्रभाव पड़ता है उसे जानने वाले गले में रत्न, कवच, आभूषण एवं मालाएं बनाकर कंठ में धारण करते हैं और उनके सूक्ष्म परिणामों से लाभान्वित होते हैं।

उदान के परिपुष्ट होने से मनुष्य में वह योग्यताएं, सामर्थ्यं शक्तियां, विशेषताएं एवं चतुरताएं प्राप्त हो जाती हैं जिनके कारण सांसारिक आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती रहती हैं। तृष्णाओं को तो अन्त नहीं उन्हें तो कुबेर भी पूरी नहीं कर सकता पर जीवनोपयोगी कोई वस्तु ऐसी नहीं जिसे उदान प्राण की सामर्थ्य से प्राप्त न किया जा सकता हो।

जिनकी ‘स्फुटा’ ग्रन्थि जागृति है वे कभी भी अभाव ग्रस्त नहीं रह सकते, उनकी हर उचित आवश्यकता समय पर पूरी हो जाती है। ‘देवदत्त’ सूक्ष्म प्राण आध्यात्मिक सम्पदाओं का स्वामी है। अष्ट सिद्धियां नव निद्धियां, देवदत्त से सम्बन्धित हैं। शाप, वरदान, दूर दर्शन, देर श्रवण, अणिमा, महिमा, लघिमा आदि चमत्कारों का केन्द्र यही है।

अमीर, सम्पन्न, बड़े आदमी, व्यापारी, धनी, लक्ष्मीपति बनना, वैसे घर में जन्म पाना, वैसी आकस्मिक सहायताएं प्राप्त होना, वैसे अवसर, सुझाव या मित्र मिल जाना, उदान प्राण शक्तिशाली होने पर निर्भर है। जब वह प्राण निर्बल हो जाता है तो लक्ष्मी विदा होते देर नहीं लगती ऐसे गलत कदम उठ जाते हैं, ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके कारण घाटे पर घाटा होने लगता है, चोट पर चोट लगती है मनुष्य कुछ दिनों में निर्धन एवं दीन हीन बन जाता है।

जब तक स्फुटा जाग्रत रहती है तब तक बड़ी बड़ी हानि होने पर भी स्थायी रूप से दरिद्रता नहीं आ सकती। कारण यह कि ‘स्फुटा’ में उदान प्राण के सम्पर्क से एक ऐसी चैतन्य स्फुरणा उत्पन्न होती है जो अदृश्य लोक में छिपे हुए भविष्य का परिचय पाती रहती है। उसे अज्ञात रूप से अनायास ही ऐसा आभास होता रहता है कि ‘‘यह करना ठीक है और यह करना अनिष्टकारक होगा।’’ एक अज्ञात शक्ति उसका पथ प्रदर्शन करती सी मालूम होती है। वह खतरों से बचाती है, आगे बढ़ने का मार्ग बताती है और कठिन परिस्थितियों में वह सहारा देती है जिससे कि डूबता हुआ बेड़ा पार हो जाता है।

उदान चैतन्य—स्फुटा—को शरीर वासिनी लक्ष्मी कहा जाता है। जब कण्ठ कूप का ‘देवदत्त’ प्रबुद्ध होता है ऐसा पुरुष महा चमत्कारी परम सिद्ध पुरुष बन जाता है। वह चाहे तो अपने प्राण बल से अद्भुत उथल पुथल उत्पन्न कर सकता है।

‘व्यान’ का स्थान मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह चार अन्य प्राणों का नियन्त्रण करता है। दोनों कानों के बीच एक रेखा खींची जाय और दूसरी रेखा भ्रू मध्य भाग से लेकर सिर के पीछे तक खींची जाय तो दोनों जहां मिलेंगी वह स्थान त्रिकुटी कहा जायगा। यही ‘व्यान’ का अवस्थान माना जाता है। इसका सहायक धनंजय है। व्यान को कृष्ण, धनंजय को अर्जुन कहते हैं। इसी त्रिकुटी में, युद्ध स्थली के मध्य भाग में कृष्णार्जुन सम्वाद रूपी गीता का आविर्भाव होता है। मध्य मस्तक में शतदल कमल में अवस्थित जिस अमृतकलश का योग शास्त्रों में वर्णन है उसे व्यान और धनंजय का प्रसाद ही समझना चाहिए।

व्यान के प्रबुद्ध होने से ऋतम्भरा प्रज्ञा मिलती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा उस उच्च विचार धारा को कहते हैं जो जीव को आत्म कल्याण की ओर ले जाती है। सत्कर्म-शुभ संकल्प सद्वृत्ति आदि दैवी गुण, कर्म, स्वभावों का प्रकाश, व्यान द्वारा ही होता है। आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, ब्रह्म प्राप्ति, दिव्य दृष्टि एवं समाधि का केन्द्र व्यान है। व्यान को गरुड़ कहा गया है। भगवान का वाहन गरुड़ है। जिसका व्यान जागृत हो गया उसके मानस में परमात्मा का प्रत्यक्ष निवास परिलक्षित होने लगता है।

मस्तिष्क में अनेक शक्तियां हैं जिनके कारण मनुष्य अपनी सर्वोपरि प्रधानता सिद्ध करता है। संसार में ऐसे कितने ही महा पुरुष हुए हैं जिनकी अद्भुत मानसिक योग्यता एवं प्रतिभा ने लोगों को हैरत में डाल दिया है। यह धनंजय प्राण के विकास का चमत्कार है। मस्तिष्क में अनेक शक्तियों का निवास है। व्यवस्था शक्ति, ग्रहण शक्ति, निर्णय शक्ति, रचना शक्ति, उपार्जन शक्ति, आमोद शक्ति, उपक्रान्ति शक्ति, अनुवर्तन शक्ति आदि अगणित शक्तियां मस्तिष्क में भरी पड़ी हैं।

सभी प्रकार की भली बुरी, तुच्छ महान शक्तियों का भण्डार मस्तिष्क है। इस भण्डार की सुव्यवस्था एवं अव्यवस्था का आधार धनंजय प्राण है। यदि उसमें कुछ गड़बड़ी हो तो मनुष्य में अनेक मानसिक त्रुटियां उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे लोग मूर्ख, मन्द बुद्धि, चिंतित, दुःखी एवं उलझनों में उलझे रहते हैं। किसी व्यक्ति का पूर्ण मस्तिष्कीय विकास तभी हो सकता है तब उसका व्यान प्राण ठीक हो और उसका मन्त्री धनंजय जागृत होकर काम करे।

दस प्राणों को सुषुप्त दशा से उठाकर जागृत करने, उसमें उत्पन्न हुई प्रवृत्तियों का निवारण करने, प्राण शक्ति पर परिपूर्ण अधिकार करने एवं इस महाशक्ति के द्वारा सांसारिक एवं आत्मिक जीवन को सुसम्पन्न बनाने के लिए ‘प्राणविद्या’ का जानना आवश्यक है। जो इस विद्या को जानता है उसको प्राण सम्बन्धी न्यूनता एवं विकृति के कारण उत्पन्न होने वाली कठिनाइयां दुःख नहीं देतीं।

प्राण विद्या को ही हठयोग भी कहते हैं। हठयोग के अन्तर्गत प्राण परिपाक के लिए (1) बन्ध  (2) मुद्रा  और (3) प्राणायाम  के साधन बताये गये हैं। तीन बन्ध—और नौ प्राणायामों का वर्णन नीचे किया जाता है।





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