गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

रस साधना

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जो फल आपको सबसे स्वादिष्ट लगता हो उसे इस साधना के लिए लीजिए। जैसे आपको कलमी आम अधिक रुचिकर है तो उसके छोटे छोटे पांच टुकड़े लीजिए। एक टुकड़ा जिह्वा के अग्र भाग पर एक मिनट तक रखा रहने दें और उसके स्वाद का अनुभव करें। फिर इस टुकड़े को फेंक दें और उस पूर्व स्वाद का स्मरण इस प्रकार करें कि बिना आम के भी आम का स्वाद जिह्वा को होता रहे। दो मिनट में वह अनुभव शिथिल होने लगेगा, फिर दूसरा टुकड़ा जीभ पर रखिए और पूर्ववत् उसे फेंक कर आम के स्वाद का अनुभव कीजिए। इस प्रकार पांच बार करने में पन्द्रह मिनट लगते हैं।

धीरे धीरे जिह्वा पर कोई वस्तु रखने का समय रखना चाहिए और बिना किसी वस्तु के रस का अनुभव करने का समय बढ़ाना चाहिए। कुछ समय पश्चात् बिना किसी वस्तु को जीभ पर रखे भी केवल भावना मात्र से इच्छित वस्तु का पर्याप्त समय तक रसास्वादन किया जा सकता है।

शरीर के लिये जिन रसों की आवश्यकता है वे पर्याप्त मात्रा में आकाश में भ्रमण करते रहते हैं। संसार में जितने पदार्थ हैं उनका कुछ अंश वायु रूप में, कुछ तरल रूप में और कुछ ठोस आकृति में रहता है। अन्न को हम ठोस आकृति में ही देखते हैं। भूमि में, जल में वह परमाणु रूप से रहता है और आकाश में अन्न का वायु अंश उड़ता रहता है। रस साधना की सिद्धि हो जाने पर आकाश में उड़ते फिरने वाले अन्नों को मनोबल द्वारा संकल्प शक्ति के आकर्षण द्वारा खींच कर उदरस्थ किया जा सकता है। प्राचीन काल में ऋषि लोग दीर्घ काल तक बिना अन्न जल के तपस्याएं करते थे। वे इस सिद्धि द्वारा आकाश में से ही अभीष्ट आहार प्राप्त कर लेते थे इसलिए बिना अन्न जल के भी उनका काम चल जाता था। इस साधना का साधक बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थों औषधियों एवं स्वादिष्ट रसों का उपभोग अपने साधन बल द्वारा ही प्राप्त कर सकता है। तथा दूसरों के लिए यह वस्तुएं आकाश से उत्पन्न करके इस तरह दें सकता है मानों किसी के द्वारा कहीं से मंगा कर दी हों।





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