गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती

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अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुकूल पंच मुखी गायत्री की पांच साधनाओं में से एक उपयुक्त साधना चुन लेनी चाहिए। जो विद्यार्थी जिस कक्षा का होता है उसे उसी कक्षा की पुस्तकें पढ़ने को दी जाती हैं। बी.ए. के विद्यार्थी को छठवें दर्जे की पुस्तकें पढ़ाई जायं तो इससे उसकी उन्नति में कोई सहायता न मिलेगी। इसी प्रकार पांचवें दर्जे के छात्र को बारहवें दर्जे का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाय तो घोर परिश्रम करने पर भी उसमें सफलता न मिलेगी। साधना के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। जो साधक अपनी मनोभूमि के अनुरूप साधना चुन लेते हैं वे प्रायः असफल नहीं होते।

गायत्री साधना का प्रभाव तत्काल होता है। उसका परिणाम देखने के लिए देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। साधना आरम्भ करते ही चित्त में सात्विकता, शान्ति, प्रफुल्लता, उत्साह एवं आशा का जागरण होता है। कोई व्यक्ति कितनी ही कठिनाई, परेशानी, असुविधा, एवं संकट में पड़ा हुआ क्यों न हो। उसकी मानसिक चिन्ता, बेचैनी, घबराहट में तत्काल कमी होती है।

जैसे दर्द करते हुए घाव के ऊपर शीतल मरहम लगा देने से तत्काल चैन पड़ जाता है और दर्द बन्द हो जाता है वैसे ही अनेक कठिनाइयों की पीड़ा के कारण दुःखी हृदय पर गायत्री साधना की मरहम ऐसी शीतल एवं शांति दायक प्रतीत होती है कि बहुत सा मानसिक बोझ तो तत्काल हलका हो जाता है।

साधक को ऐसा लगता है कि वह चिरकाल से बिछुड़ा हुआ फिरते रहने के बाद, अपनी सगी माता से मिला हो। माता से बिछड़ा हुआ बालक बहुत समय इधर उधर भटकने के बाद जब माता को ढूंढ़ पाता है तो उसकी छाती भर आती है और माता से लिपट कर उसकी गोदी में चढ़कर ऐसा अनुभव करता है मानो उसकी जन्म जन्मांतरों की विपत्ति टल गई हो। हिरन का बच्चा अपनी माता के साथ घने वनों में हिंसक जानवरों के बीच फिरते हुए भी निर्भय रहता है। वह निश्चिन्त हो जाता है कि जब माता मेरे साथ है तो मुझे क्या फिक्र है। हिरनी भी अपने शिशु शावक की सुरक्षा के लिए कोई बात उठा नहीं रखती। वह उसे अपने प्राणों के समान प्यार करती है, माता का प्यार उससे कदापि कम नहीं होता।

विपत्ति स्वयं उतना कष्ट नहीं पहुंचाती जितनी कि उसकी आशंका, कल्पना, भावना, दुःख देती है। किसी का व्यापार बिगड़ जाय, घाटा आ जाय तो उसे घाटे के कारण शरीर यात्रा में कोई प्रत्यक्ष बाधा नहीं पड़ती, रोटी, कपड़ा, मकान आदि को वह घाटा नहीं छीन लेता और न घाटे के कारण शरीर में दर्द, दाह, ज्वर आदि होता है फिर भी लोग मानसिक कारणों से बेतरह दुःखी रहते हैं। इस मानसिक कष्ट में गायत्री साधना से तत्काल शान्ति मिलती है। उसे एक ऐसा आत्म बल मिलता है, ऐसी आंतरिक दृढ़ता एवं निर्भयता प्राप्त होती है जिसके कारण अपनी कठिनाई उसे तुच्छ दिखाई पड़ने लगती है और विश्वास हो जाता है कि वर्तमान कठिनाई का जो बुरे से बुरा परिणाम हो सकता है उसके कारण भी मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता। असंख्य मनुष्यों की अपेक्षा फिर भी मेरी स्थिति अच्छी रहेगी।

गायत्री साधना की यह विशेषता है कि उससे तत्काल आत्म बल प्राप्त होता है जिसके कारण मानसिक पीड़ाओं में तत्क्षण कमी होती है। हमें ऐसे अनेक अवसर याद हैं जब दुःखों के कारण आत्म हत्या करने के लिए तत्पर होने वाले मनुष्यों के आंसू रुके हैं और उनने सन्तोष की सांस छोड़ते हुए आशा भरे नेत्रों को चमकाया है। घाटा बीमारी, मुकदमा, विरोध, गृह कलह, शत्रुता आदि के कारण उत्पन्न होने वाले परिणामों की कल्पना से जिनके होट सूखे रहते थे। चहरा विषाद ग्रस्त रहता था उन्होंने माता की कृपा को पाकर हंसना सीखा और मुस्कुराहट की रेखा उनके कपोलों पर दौड़ने लगी।

‘‘जो होना है, होकर रहेगा। प्रारब्ध भोग हमें स्वयं भोगने पड़ेंगे। जो टल नहीं सकता उसके लिए दुःखी होना व्यर्थ है। अपने कर्मों का परिणाम भोगने के लिए वीरोचित बहादुरी को अपनाया जाय?’’ इन भावनाओं के साथ वह अपनी उन कठिनाइयों को तृणवत् तुच्छ समझने लगता है जिन्हें कल तक पर्वत के समान भयंकर और दुन्त समझता था।

काया कल्प करना है। जिन्हें काया कल्प कराने की विद्या मालूम है वे जानते हैं कि इस महा अभियान को करते समय कितने धैर्य और संयम का पालन करना होता है, तब कहीं शरीर की जीर्णता दूर होकर नवीनता प्राप्त होती है। गायत्री आराधना का आध्यात्मिक कायाकल्प और भी अधिक महत्व पूर्ण है। उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं हैं वरन् शरीर मस्तिष्क, चित्त, स्वभाव, दृष्टिकोण सभी का नव निर्माण होता है और स्वास्थ्य मनोबल एवं सांसारिक सुख सौभाग्यों में वृद्धि होती है।

ऐसे असाधारण महत्व के अभियान में समुचित श्रद्धा, सावधानी रुचि एवं तत्परता रखनी पड़े तो इसे कोई बड़ी बात न समझना चाहिए। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने में काफी समय तक धैर्य पूर्वक व्यायाम करते रहना पड़ता है। दंड बैठक कुश्ती आदि के कष्टसाध्य कर्मकाण्ड करने होते हैं। दूध, घी, मेवा, बादाम आदि में काफी खर्च होता रहता है तब कहीं जाकर पहलवान बना जा सकता है। क्या आध्यात्मिक काया कल्प करना पहलवान बनने से भी कम महत्व का है? बी.ए. की उपाधि लेने वाले जानते हैं कि उनने कितना धन, समय, श्रम और अध्यवसाय लगा कर तब उस उपाधि पत्र को प्राप्त कर पाया है। गायत्री की सिद्धि प्राप्त करने में यदि पहलवान या ग्रेजुएट के समान प्रयत्न करना पड़े तो यह कोई घाटे की बात नहीं है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने जो आश्चर्य जनक सिद्धियां प्राप्त की थीं उसका उन्होंने समुचित मूल्य चुकाया था। हर एक लाभ की उचित कीमत देनी होती है। गायत्री साधना का आध्यात्मिक काया कल्प यदि अपना उचित मूल्य चाहता है तो उसे देने में किसी भी ईमानदार साधक को आना कानी नहीं करनी चाहिए।

यह सत्य है कि कई बार जादू की तरह गायत्री उपासना का लाभ होता है। आई हुई विपत्ति अति शीघ्र दूर हो जाती है और अभीष्ट मनोरथ आश्चर्य जनक रीति से पूरे हो जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि अकाट्य प्रारब्ध भोग न टल सके और अभीष्ट मनोरथ पूरा न हो। राजा हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, राम मोरध्वज जैसे महापुरुषों को होनहार भवितव्यता का शिकार होना पड़ा था। इसलिए सकाम उपासना की अपेक्षा निष्काम उपासना ही श्रेष्ठ है। गीता में भगवान ने निष्काम कर्म योग का ही उपदेश दिया है। साधना कभी निष्फल नहीं जाती। उसका तो परिणाम मिलेगा ही, पर हम अल्पज्ञ होने के कारण अपना प्रारब्ध और वास्तविक हित नहीं समझते। माता सर्वज्ञ होने से सब समझती है और वह वही फल देती हैं जिसमें हमारा वास्तविक लाभ होता है। साधन काल में एक ही कार्य हो सकता है या तो मन भक्ति में तन्मय रहे या कामनाओं के मन मोदक खाता रहे। मनमोदकों में उलझे रहने से भक्ति नहीं रह पाती फलस्वरूप अभीष्ट लाभ नहीं हो पाता। यदि कामनाओं को हटा दिया जाय तो उस ओर से निश्चित होकर समग्र मन भक्ति पूर्वक साधना में लग जाता है तदनुसार सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

कोई युवक किसी दूसरे युवक को कुश्ती में पछाड़ने के लिए व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साह पूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी कदाचित वह कुश्ती पछाड़ने में असफल रहता है तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गई। वह तो अपना लाभ दिखावेगी ही। शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बल वीर्य की अधिकता, निरोगता, दीर्घजीवन, कार्य क्षमता, बलवान सन्तान आदि अनेक लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से प्राप्त होकर रहेंगे। कुश्ती की सफलता से वंचित रहना पड़ा, ठीक, पर शरीर की बल वृद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वंचित नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल नहीं हो सके तो भी उसे अन्य अनेकों भागों से ऐसे लाभ मिलेंगे जिनकी आशा बिना साधना किये नहीं की जा सकती।

बालक चीजें मांगता है पर माता उसे वह चीजें नहीं देती। रोगी की सब मांगें भी बुद्धिमान वैद्य या परिचर्या करने वाले पूरी नहीं करते। ईश्वर की सर्वज्ञता की तुलना में मनुष्य बालक और रोगी के समान है। जिन अनेकों कामनाओं को हम नित्य करते हैं उनमें से कौन हमारे लिए वास्तविक लाभ और हानि करने वाली हैं इसे हम नहीं जानते पर ईश्वर जानता है। यदि हमें ईश्वर की दयालुता, भक्त वत्सलता पर सच्चा विश्वास है तो कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ देनी चाहिए और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा देना चाहिए ऐसा करने से हम घाटे में नहीं रहेंगे वरन् सकाम साधना की अपेक्षा अधिक लाभ में ही रहेंगे।

इतिहास जानता है कि अकबर रास्ता भूल कर एक निर्जन वन में भटक गये थे वहां एक अपरिचित वनवासी ने उनका उदार आतिथ्य किया। उसकी रूखी सूखी रोटी का अकबर ने कुछ दिन बाद विपुल धन राशि में बदला दिया यदि उस वनवासी ने अपनी रोटी की कीमत उसी वक्त मंगली होती तो वह राजा का प्रीति भाजन नहीं बन सकता था। सकाम साधना करने वाले मतलबी भक्तों की अपेक्षा माता को निष्काम भक्तों की श्रद्धा अधिक प्रिय लगती है। वे उसका प्रतिफल देने में अकबर से भी अधिक उदारता दिखाती हैं।

हमारा दीर्घकालीन अनुभव है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। न उलटा परिणाम ही होता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम धैर्य स्थिरता, विवेक और मनोयोग पूर्वक कदम बढ़ावें। इस मार्ग में छिछोरपन से नहीं सुदृढ़ आयोजन से ही लाभ होता है। इस दिशा में किया हुआ सच्चा पुरुषार्थ अन्य किसी भी पुरुषार्थ से अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। गायत्री साधना में जितना समय, श्रम, धन और मनोयोग लगता है सांसारिक दृष्टि से इस सबका जो मूल्य है वह कई गुना होकर साधक के पास निश्चित रूप से लौट आता है।













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