गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

सात मुद्राएं

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


महा मुद्रा — बायें पैर की एड़ी को गुदा तथा मूत्रेंद्रिय के बीच के सोवत भाग में लगाइए और दाहिना पैर लम्बा कर दीजिए। लम्बे किए हुए पैर के अंगूठे को दोनों हाथों से पकड़े रहिए। सिर को घुटने से लगाने का प्रयत्न कीजिए। नासिका के बांए छिद्र से सांस पूरक खींचकर कुछ देर कुंभक करते हुए दाहिने छिद्र से रेचक प्राणायाम कीजिए आरम्भ में पांच प्राणायाम बांई मुद्रा से करने चाहिए फिर दाएं पैर को सिकोड़ कर गुदा भाग से लगाने और बांए पैर को फैलाकर दोनों हाथों से उसका अंगूठा पकड़ने की क्रिया करनी चाहिए। इस दशा में दांये नथुने से पूरक और बाएं से रेचक करना चाहिए। जितनी देर बांए भाग से यह मुद्रा की थी उतनी ही देर दांये भाग से करनी चाहिए।

इस महा मुद्रा से, कपिल मुनि से सिद्धि प्राप्त की थी। इससे अहंकार, अविद्या, भय, द्वेष, मोह आदि के पंच क्लेश दायक विकारों का शमन होता है। भगन्दर, बवासीर, संग्रहणी, प्रमेह आदि रोग दूर होते हैं। शरीर का तेज बढ़ता है और वृद्धावस्था दूर हटती जाती है।

खेचरी मुद्रा — जीभ को लम्बी करके उसे उलटना और तालू में के गड्ढे में जिव्हा का अग्र भाग लगा देने को खेचरी मुद्रा कहते हैं। तालु के पिछले भाग में एक पोला सा स्थान है जिसमें आगे चलकर मांस की एक छोटी सूंड़ सी लटकती रहती है। उसे कपाल कुहर भी कहते हैं। यही स्थान जिव्हा के अग्रभाग को लगाने का होता है।

प्राचीन काल में जिव्हा को लम्बी करने के लिए कुछ ऐसे उपाय काम में लाये जाते थे जो वर्तमान परिस्थिति में आवश्यक नहीं है। 1-जिव्हा को इस तरह दुहना जैसे पशु के थन को दुहते हैं। 2-जिह्वा को शहद, काली मिर्च आदि से सहलाते हुए आगे की ओर सूंतना या खींचना। 3-जीभ के नीचे की नाड़ी तन्तुओं को काट देना। 4-लोहे की शला से दबा दबा कर जीभ बढ़ाना। यह क्रिया देश, काल, ज्ञान की वर्तमान स्थिति के अनुरूप नहीं है जैसे अब प्राचीन काल की भांति हजारों वर्षों तक निराहार तप कोई नहीं कर सकता वैसे ही खेचरी मुद्रा के लिए जिह्वा बढ़ाने के कष्ट साध्य उपाय भी अब असामयिक हैं।

काली मिर्च और शहद की जिह्वा पर हलकी मालिश कर देने से वहां के तन्तुओं में उत्तेजना आ जाती है और उसी पीछे की ओर लौटाने में सहायता मिलती है। उसी रीति से जिव्हा के अग्र भाग को तालू गह्वर में लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। जिव्हा धीरे-धीरे चलती रहे जिससे तालु गह्वर की हलकी सी मालिश होती रहे, दृष्टि भ्रू मध्य भाग में रखनी चाहिए।

खेचरी मुद्रा से कपाल गहर में होकर प्राण शक्ति का संचार होने लगता है और सहस्रदल कमल में अवस्थित अमृत निर्झर झरने लगता है। जिसके आस्वादन से एक बड़ा ही दिव्य आनन्द आता है। प्राण का ऊर्ध्वगति हो जाने से मृत्यु काल में जीव ब्रह्म रंध्र में होकर ही प्रयाण करता है इसलिए उसे मुक्ति या स्वर्ग की सद्गति प्राप्ति होती है। गुदा आदि अधो मार्गों से जिनका प्राण निकलता है वह नरक गामी, मुख, नाक, कान से प्राण छोड़ने वाला मृत्युलोक में भ्रमण करता रहता है। किन्तु जिसका जीव ब्रह्म रंध्र में होकर जायेगा वह अवश्य ही सद्गति प्राप्त करेगा। खेचरी मुद्रा के द्वारा ब्रह्माण्ड स्थिति शेष शाया सहस्रदल निकासी परमात्मा से साक्षात्कार होता है। यह मुद्रा बड़ी ही महत्वपूर्ण है।

विपरीत करणी मुद्रा
— मस्तक को जमीन पर रखकर दोनों हाथों को उनके समीप रखना और पैरों को सीधे ऊपर की ओर उलटे कर देना इसे विपरीत करणी मुद्रा कहते हैं। शीर्षासन भी इसी का नाम है। सिर का नीचे और पैरों का ऊपर होना इसका प्रधान लक्षण है।

तालु के मूल से चन्द्र नाड़ी और नाभि के मूल से चन्द्र नाड़ी निकलती है। इन दोनों के उद्गम स्थान विपरीत करणी मुद्रा द्वारा सम्बन्धित हो जाते हैं। ऋण प्राण और धन प्राण का इस मुद्रा द्वारा एकीकरण होता है जिससे मस्तिष्क को बल मिलता है।

योनि मुद्रा
— इसे षड्मुखी भी कहते हैं। पद्मासन पर बैठकर दोनों हाथों के अंगूठों से दोनों कान, दोनों हाथों की तर्जनियों से दोनों आंखें, दोनों मध्यमाओं से दोनों कानों के छेद और दोनों अनामिकाओं से मुंह को बन्द कर देना चाहिए। होठों को कौए की चोंच की तरह बाहर निकाल कर धीरे-धीरे सांस खींचते हुए उसे गुदा तक ले जाना चाहिए। फिर उलटे क्रम से उसे धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिए। योनि मुद्रा की यह साधना योग सिद्धि में बड़ी सहायक होती है।

शाम्भवी मुद्रा — आसन लगाकर दोनों भवों के बीच में दृष्टि को जमा कर भृकुटी में ध्यान करने को शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। कहीं कहीं अधखुले नेत्र और ऊपर चढ़ी हुई पुतलियों से जो शान्त चित्त ध्यान किया जाता है। उसे भी शाम्भवी मुद्रा कहा है। भगवान शम्भु के द्वारा साधित होने के कारण इन साधनाओं का नाम शाम्भवी मुद्रा पड़ा है।

अगोचरी मुद्रा — मन को रोककर नासिका के अग्रभाग पर मन को रोकना।

भूचरी मुद्रा — नासिका से चार अंगुल आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करना।

इसके अतिरिक्त नभो मुद्रा, महा बन्धु शक्ति चालनी मुद्रा, ताड़गी, माण्डवी, अधोधारण, आम्भसी वैश्वानरी, वायवी नभोधारणा, अश्वनी, पाशिनी, काको, सातंगी, भुजंगनी, आदि 25 मुद्राओं का घेरण्ड संहिता में सविस्तार वर्णन है। यह सभी अनेक प्रयोजनों के लिए महत्वपूर्ण हैं। प्राणमय कोश के अनावरण में जिन मुद्राओं का प्रमुख कार्य है उन सात का संक्षिप्त वर्णन ऊपर कर दिया है। अब 96 प्राणायामों में से प्रधान 9 प्राणायामों का उल्लेख नीचे करते हैं।





<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: