गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

पांच कलाओं तात्विक साधना

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


पृथ्वी तत्व — इस तत्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अण्डकोश की ओर हट कर सीवन में स्थिति हैं। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक तत्व चक्र का आकार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वी तत्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है।

पृथ्वी तत्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसलिए इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलबाय आदि रोग इसी तत्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्व के विकार मूलाधार चक्र में ध्यान स्थिति करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।

साधन विधि — सवेरे जब एक पहर अंधेरा रहे तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़ कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उलटे करके घुटनों पर इस प्रकार रखो, जिससे उंगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘लं’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी का ध्यान करे। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जायगी और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है। ध्यान करते समय ऊपर कहे हुए पृथ्वी तत्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘लं’ इस बीज मन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्वनि रूप से) जप करते जाना चाहिए।

जल तत्व
— पेडू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का स्थान है। यह चक्र ‘भुवः’ लोक का प्रतिनिधि है। रंग श्वेत, आकृति अर्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्व की विकृति से होते हैं।

साधन विधि — पृथ्वी तत्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठ कर ‘बं’ बीज वाले अर्ध चन्द्राकार, चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जल तत्व का स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान करना चाहिये। इससे भूख प्यास मिटती है और सहन शक्ति उत्पन्न होती है।

अग्नि तत्व
— नाभि स्थान में स्थित मणिपूरक चक्र में अग्नि तत्व का निवास है। यह ‘स्व’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्व की आकृति त्रिकोण, रंग लाल, गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पांव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्व की गड़बड़ी से होते हैं। इसके सिद्ध हो जाने पर मंदाग्नि अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने में सहायता मिलती है।

साधन विधि — नियत आसन पर बैठ कर ‘रं’ बीज मंत्र वाले, त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नि तत्व का मणिपूरक चक्र में ध्यान करे। इस तत्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।

वायु तत्व — यह तत्व हृदय देश में स्थित अनाहत चक्र में है। एवं ‘महलोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है। गुण स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय त्वचा और कर्मेन्द्रिय हाथ है। वात, व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।

साधन विधि — नियत विधि से स्थिति होकर ‘यं’ बीज वाले गोलाकार, हरी आभा वाले, वायु तत्व का अनाहत चक्र में ध्यान करे। इससे शरीर और मन में हलका पन आता है।

आकाश तत्व — शरीर में इसका निवास विशुद्ध चक्र में है। यह चक्र कण्ठ स्थान में ‘जन लोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग नीला, आकृति अण्डे की तरह लम्बी गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है।

साधन विधि — पूर्वोक्त आसन पर से ‘हं’ बीज मन्त्र का जप करते हुए चित्र विचित्र रंग वाले आकाश तत्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिये। इससे तीनों कालों का ज्ञान ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

नित्य प्रति पांच तत्वों का छह मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्वों की सामर्थ्यें, कलाएं बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएं अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।






<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118