गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

त्राटक

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त्राटक भी ध्यान का ही एक अंग है। अथवा यों कहिए कि त्राटक का ही एक अंग ध्यान है। आन्तर त्राटक और वाह्य त्राटक दोनों का उद्देश्य मन को एकाग्र करना है। नेत्र बन्द करके किसी एक वस्तु पर भावना को जमाने और उसे आन्तरिक नेत्रों से देखते रहने की क्रिया आन्तर त्राटक कहलाती है। पीछे जो दस ध्यान लिखे गए हैं वे सभी आन्तर त्राटक हैं। मैस्मरेजम के ढंग से जो लोग आन्तर त्राटक करते हैं वे केवल प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करते हैं। इससे एकांगी लाभ होता है। प्रकाश बिन्दु पर ध्यान करने से मन तो एकाग्र होता है पर उपासना का आत्म लाभ नहीं मिल पाता इसलिए भारतीय योगी सदा ही आन्तर त्राटक का, इष्ट ध्यान के रूप में प्रयोग करते रहे हैं।

वाह्य त्राटक का उद्देश्य वाह्य साधनों के आधार पर मन को वश में करना एवं चित्त वृत्तियों का एकीकरण करना है मन की शक्ति प्रधानतया नेत्रों द्वारा बाहर आती है। दृष्टि को किसी विशेष वस्तु पर जमाकर उसमें मन को तन्मयता पूर्वक प्रवेश करने से नेत्रों द्वारा प्रकीर्ण होने वाला मनः तेज एवं विद्युत प्रवाह एक स्थान पर केन्द्रीभूत होने लगता है। इससे एक तो एकाग्रता बढ़ती है दूसरे नेत्रों का प्रभाव चुम्बकत्व बढ़ जाता है ऐसी बढ़ी हुई आकर्षण शक्ति वाली दृष्टि को ‘‘बेधक दृष्टि’’ कहते हैं।

बेधक दृष्टि से देखकर किसी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। मैस्मरेजम करने वाले अपने नेत्रों में त्राटक द्वारा ही इतना विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर लेते हैं कि उसे जिस किसी शरीर में प्रवेश कर दिया जाय वह तुरन्त बेहोश एवं वशवर्ती हो जाता है। उस बेहोश या अर्ध तन्द्रित व्यक्ति के मस्तिष्क पर वेधक दृष्टि वाले व्यक्ति का कब्जा हो जाता है और उससे जो चाहे वह काम ले सकता है। मैस्मरेजम करने वाले, किसी व्यक्ति को अपनी त्राटक शक्ति से पूर्ण निद्रित या अर्द्ध निद्रित करके उसे नाना प्रकार के नाच नचाते हैं।

मैस्मरेजम द्वारा सत्संकल्प, दान, रोग निवारण, मानसिक त्रुटियों का परिमार्जन आदि लाभ हो सकते हैं और उससे ऊंची अवस्था में जाकर अज्ञात वस्तुओं का पता लगाना, अप्रकट बातों को मालूम करना आदि कार्य भी हो सकते हैं। दुष्ट प्रकृति के वेधक दृष्टि वाले अपने दृष्टि तेज से किन्हीं स्त्री पुरुषों के मस्तिष्क पर अपना अधिकार करके उन्हें भ्रम ग्रस्त कर देते हैं और उनका सतीत्व, तथा धन लूटते हैं कई एक वेधक दृष्टि से खेल तमाशे करके पैसे कमाते हैं। यह इस महत्वपूर्ण शक्ति का दुरुपयोग है।

वेधक दृष्टि को किसी के अन्तःकरण में भीतर तक प्रवेश करके उसकी सारी मनःस्थिति को, मनोगत भावनाओं को, जाना जा सकता है वेधक दृष्टि फेंककर दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है। नेत्रों में ऐसा चुम्बकत्व त्राटक द्वारा पैदा हो सकता है। मन की एकाग्रता चूंकि त्राटक के अभ्यास में अनिवार्य रूप से करनी पड़ती है इस लिए उसका साधन साथ साथ होते चलने से मन पर बहुत कुछ काबू हो जाता है।

1—  एक हाथ लम्बा एक हाथ चौड़ा चौकोर कागज या पट्ठा लेकर उसके बीच में रुपये के बराबर एक काला गोल निशान बना लो। स्याही एक सी हो, कहीं कम ज्यादा न हो। इसके बीच में सरसों के बराबर निशान छोड़ दो और उस सफेदी में पीला रंग भर दो। इस कागज को किसी दीवार पर टांग दो और तुम उससे चार फीट दूरी पर इस प्रकार बैठो कि वह काला गोला तुम्हारी आंखों के सामने सीध में रहे।

साधना का कमरा ऐसा होना चाहिए, जिसमें न अधिक प्रकाश रहे न अंधेरा। न अधिक सर्दी हो न गर्मी। पालथी मारकर मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए बैठो और काले गोले के बीच में जो पीला निशान है, उस पर दृष्टि जमाओ चित्त की सारी भावनाएं एकत्रित करके उस बिन्दु को इस प्रकार देखो मानो तुम अपनी सारी शक्ति नेत्रों द्वारा उसमें प्रवेश कर देना चाहते हो। ऐसा सोचते रहो कि मेरी तीक्ष्ण दृष्टि से इस बिन्दु में छेद हुआ जा रहा है कुछ देर इस प्रकार देखने से आंखों में दर्द होने लगेगा और पानी बहने लगेगा, तब अभ्यास को बन्द करदो।

अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय ठीक है। नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत स्थान पर बैठना चाहिये। पहले दिन देखो कि कितनी देर में आंख थक जाती हैं और पानी आ जाता है, पहले दिन जितनी देर अभ्यास किया है, प्रतिदिन उससे एक या आधी मिनट बढ़ाते जाओ।

दृष्टि को स्थिर करने पर तुम देखोगे कि उस काले गोले में तरह तरह की आकृतियां पैदा होती हैं। कभी वह सफेद रंग का हो जायगा, तो कभी सुनहरा। कभी छोटा मालूम पड़ेगा, कभी चिनगारियां सी उड़ती दीखेंगी, कभी बादल से छाये हुये प्रतीत होंगे। इस प्रकार यह गोला अपनी आकृति बदलता रहेगा। किंतु जैसे जैसे दृष्टि स्थिर होनी शुरू हो जायगी और उसमें दीखने वाली विभिन्न आकृतियां बन्द हो जावेंगी और बहुत देर तक देखते रहने पर भी गोला ज्यों का त्यों बना रहेगा।

2—  एक फुट लम्बे चौड़े दर्पण के बीचों−बीच चांदी की चवन्नी बराबर काले रंग के कागज का गोल टुकड़ा काट कर चिपका दिया जाता है। उस कागज के मध्य में सरसों के बराबर एक पीला बिन्दु बनाते हैं इस अभ्यास को एक एक मिनट बढ़ाते जाते हैं। जब इस तरह की दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब और भी आगे का अभ्यास शुरू किया जाता है। दर्पण पर चिपके हुए कागज को छुड़ा देते हैं और उसमें अपना मुंह देखते हुए अपनी बांई आंख की पुतली पर दृष्टि जमा लेते हैं और उस पुतली में बड़े ध्यान पूर्वक अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं।

3—  गौ घृत का दीपक जलाकर नेत्रों की सीध में चार फुट की दूरी पर रखिए। दीपक की लौ आधा इंच से कम उठी हुई न हो, इसलिए मोटी बत्ती डालना और पिछला हुआ घृत भरना आवश्यक है। बिना पलक झपकाये इस अग्नि शिखा पर दृष्टिपात कीजिए और भावना कीजिए कि आपके नेत्रों की ज्योति दीपक की लौ से टकरा कर उसी में घुली जा रही है।

4—  प्रातःकाल के सुनहरे सूर्य पर या रात्रि को चन्द्रमा पर भी त्राटक किया जाता है। सूर्य या चन्द्रमा जब मध्य आकाश में होंगे तब त्राटक नहीं हो सकता। कारण कि उस समय या तो सिर ऊपर को करना पड़ेगा या लेट कर ऊपर को आंखें करनी पड़ेंगी यह दोनों ही स्थितियां हानिकारक हैं। इसलिए उदय होता हुआ सूर्य या चन्द्रमा ही त्राटक के लिए उपयुक्त माना जाता है।

5—  त्राटक के अभ्यास के लिए स्वस्थ नेत्रों का होना आवश्यक है। जिनके नेत्र कमजोर हों या कोई रोग हो उन्हें वाह्य त्राटक की अपेक्षा आन्तर त्राटक उपयुक्त है जो कि ध्यान प्रकरण में लिखे जा चुके हैं। आन्तर त्राटक को पाश्चात्य योगी इस प्रकार करते हैं कि दीपक की अग्नि शिखा, सूर्य चन्द्रमा आदि कोई चमकता प्रकाश, पन्द्रह सेकिण्ड खुले नेत्रों से देखा फिर आंख बन्द करली और ध्यान किया कि वह प्रकाश मेरे सामने मौजूद है। एकटक दृष्टि से मैं उसे घूर रहा हूं तथा अपनी सारी इच्छा शक्ति को तेज नोकदार कील की तरह उसमें घुसाकर आर-पार कर रहा हूं।

अपनी सुविधा, स्थिति या रुचि के अनुरूप इन त्राटकों में से किसी को चुन लेना चाहिए और उसे नियत समय पर नियम पूर्वक करते रहना चाहिए। इससे मन एकाग्र होता है और दृष्टि में बेधकता, पारदर्शिता एवं प्रभावशीलता की अभिवृद्धि होती है।

त्राटक पर से उठने के पश्चात गुलाब जल से आंखों को धो डालना चाहिए। गुलाब जल न मिले तो स्वच्छ छना हुआ ताजा पानी भी काम में लाया जा सकता है। आंख धोने के लिए छोटी कांच की प्यालियों अंग्रेजी दवा बेचने वालों की दुकान पर मिलती हैं वह सुविधाजनक होती हैं। न मिलने पर कटोरी में पानी भर के उसमें आंख खोलकर डुबाने और पलक हिलाने से आंखें धुल जाती हैं। इस प्रकार के नेत्र स्नान से त्राटक के कारण उत्पन्न हुई आंखों की उष्णता शान्त हो जाती है। त्राटक का अभ्यास समाप्त करने के उपरान्त साधना के कारण बढ़ी हुई मानसिक गर्मी से समाधान के लिए दूध, दही, लस्सी, मक्खन, मिश्री, फल, शरबत, ठण्डाई आदि कोई ठण्डी पौष्टिक चीजें ऋतु का ध्यान रखते हुए सेवन करनी चाहिए। जाड़े के दिनों में बादाम का हलुआ, च्यवनप्राश अवलेह आदि वस्तुएं भी उपयोगी होती हैं।





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