गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

अजपा जाप

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आत्मा के सूक्ष्म अन्तराल में अपने आप के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान मौजूद हैं वह अपनी स्थिति की घोषणा प्रत्येक क्षण करती रहती है ताकि बुद्धि भ्रमित न हो और अपने स्वरूप को न भूले। थोड़ा सा ध्यान देने पर आत्मा की इस घोषणा को हम स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं उस ध्वनि पर निरन्तर ध्यान दिया जाय तो उस घोषणा करने वाले अमृत भण्डार आत्मा तक ही पहुंचा जा सकता है।

जब हम सांस लेते हैं तो वायु प्रवेश के साथ साथ एक सूक्ष्म ध्वनि होती है जिनका शब्द ‘‘सो ोोोो...............’’ जैसा होता है। जितनी देर सांस भीतर ठहराती है अर्थात् स्वाभाविक कुंभक होता है उतनी देर आधे ‘‘अ् ऽ ऽ ऽ’’ की सी विराम ध्वनि होती है और जब सांस बाहर निकलती है तो ‘‘ह............’’ जैसी ध्वनि निकलती है। इन तीनों ध्वनियों पर ध्यान केन्द्रित करने से अजपा जाप की ‘सो ऽ हं’ साधना होने लगती है।

प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व नित्यकर्म से निबट कर पूर्व को मुख करके किसी शान्त स्थान में बैठिए। मेरुदंड सीधा रहे। दोनों हाथों को समेट कर गोदी में रख लीजिए। नेत्र बन्द रखिए। जब नासिका द्वारा वायु भीतर प्रवेश करने लगे तो सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय को सजग करके ध्यान पूर्वक अवलोकन कीजिये कि वायु के साथ साथ सो की सूक्ष्म ध्वनि हो रही है। इसी प्रकार जितनी देर ‘अ’ और वायु निकलते समय ‘हं’ की ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित कीजिए। साथ ही हृदय स्थित सूर्य चक्र के प्रकाश बिन्दु में आत्मा के तेजोमय स्फुल्लिंग की श्रद्धा कीजिए। जब सांस भीतर जा रही हो और ‘सो’ की ध्वनि हो रही हो तब अनुभव करिए कि यह तेज बिन्दु परमात्मा का प्रकाश है। ‘सो’ अर्थात् वह परमात्मा। ‘ऽहम्’ अर्थात्-मैं। जब वायु बाहर निकले और ‘हं’ ध्वनि हो तब उसी प्रकाश बिन्दु में भावना कीजिए कि ‘‘यह मैं हूं’’

‘अ’ की विराम भावना परिवर्तन के अवकाश का प्रतीक है। आरंभ में उस हृदय चक्र स्थिति प्रकाश बिन्दु को ‘सो’ ध्वनि के समय ब्रह्म माना जाता है और पीछे उसी को ‘हं’धारणा में जीव भावना हो जाती है इस भाव परिवर्तन के लिए ‘अ’ का अवकाश काल रखा गया है। इसी प्रकार जब ‘हं’ समाप्त हो जाय वायु बाहर निकल जाय और नई वायु प्रवेश करे उस समय भी जीव भाव हटाकर उस तेज बिन्दु में ब्रह्म भाव बदलने का अवकाश मिल जाता है। यह दोनों ही अवकाश ‘अ ऽ ऽ ऽ’ के समान हैं पर इनकी ध्वनि सुनाई नहीं देतीं। शब्द तो केवल ‘सो हं’ का ही होता है।

‘सो’ ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। ‘ऽ’ प्रकृति का प्रतिनिधि है। ‘हं’ जीव का प्रतीक है। ब्रह्म प्रकृति और जीव का सम्मिलन इस अजपा जाप में होता है। सोऽहम् साधना में तीनों महा कारण एकत्रित हो जाते हैं। जिनके कारण आत्म जागरण का स्वर्ण सुयोग एक साथ ही उपलब्ध होने लगता है।

‘सो हं’ साधना की उन्नति जैसे जैसे होती जाती है वैसे ही वैसे विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता जाता है। आत्मज्ञान बढ़ता है और धीरे धीरे आत्म साक्षात्कार की स्थिति निकट आती चलती है। आगे चलकर सांस पर ध्यान जमना छूट जाता है और केवल मात्र हृदय स्थित सूर्य चक्र में विशुद्ध ब्रह्म तेज के ही दर्शन होते हैं उस समय समाधि की सी अवस्था हो जाती है। हंस योग की परिपक्वता से साधक ब्राह्मी स्थिति का अधिकारी हो जाता है।

स्वामी विवेकानन्द जी ने विज्ञानमय कोश की साधना के लिये ‘अनुभूति योग’ की विधि बताई है। उनके अमेरिकन शिष्य रामाचरक ने भी इस विधि को मेन्टल डवलपमेन्ट नामक पुस्तक में विस्तार पूर्वक लिखा है।






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