गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

ध्यान

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ध्यान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मनःक्षेत्र में की जाती है मानसिक क्षेत्र में स्थापित की हुई वस्तु हमारे आकर्षण का प्रधान केन्द्र बनती है। उस आकर्षण की ओर मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियां खिंच जाती हैं। फलस्वरूप एक स्थान पर उनका केन्द्रीकरण होने लगता है। चुम्बक पत्थर अपने चारों ओर बिखरे हुए लौह कणों को सब दिशाओं से खींच कर अपने पास जमा कर लेता है इसी प्रकार ध्यान द्वारा सब ओर से मन खींच कर एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होता है। बिखरी हुई चित्त वृत्तियां एक जगह सिमट आती हैं।

कोई आदर्श, लक्ष, इष्ट, निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं। जैसा ध्यान किया जाता है मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। सांचे में गीली मिट्टी को दबाने से वैसी ही आकृति बन जाती है जैसी उस सांचे की होती है। कीट-भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग, झींगुर को पकड़ ले आती है और उससे चारों ओर लगातार गुंजन करती है। झींगुर उस गुंजन को तन्मय होकर सुनता है और भृंग के रूप को, उसकी चेष्टाओं को, एकाग्र भाव से निहारता रहता है। झींगुर का मन भृंग मय हो जाने से उसका शरीर भी उसी ढांचे में ढलना आरम्भ हो जाता है। उसके रक्त, मास, नस, नाड़ी त्वचा आदि में कन के साथ ही परिवर्तन आरम्भ हो जाता है और थोड़े ही समय में वह झींगुर मन से और शरीर से भी असली भृंग के समान बन जाता है। इसी प्रकार ध्यान शक्ति द्वारा साधक का सर्वांग पूर्ण काया कल्प होता है।

साधारण ध्यान से मनुष्य का शरीर परिवर्तन नहीं होता। उसके लिए विशेष रूप से गहन साधनाएं करनी पड़ती हैं। परन्तु मानसिक काया कल्प करने में हर मनुष्य ध्यान साधना से भरपूर लाभ उठा सकता है। ऋषियों ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि हर साधक को अपना इष्ट देव चुन लेना चाहिए। इष्टदेव चुनने का अर्थ है जीवन का प्रधान लक्ष स्थिर करना। इष्टदेव उपासना का अर्थ है—उस लक्ष में अपनी मानसिक चेतना को तन्मय कर देना। इस प्रकार की तन्मयता का परिणाम यह होता है, कि मन की बिखरी हुई शक्तियां एक बिन्दु पर एकत्रित हो जाती हैं, एक स्थानीय एकाग्रता के कारण उसी दशा में सभी मानसिक शक्तियां लग जाती हैं। फलस्वरूप साधक गुण, तर्क, स्वभाव, विचार, प्रयत्न, उपाय, एवं कर्म अद्भुत गति से बढ़ते हैं जो उसे अभीष्ट लक्ष तक सरलता पूर्वक स्वल्प काल में ही पहुंचा देते हैं। इसी को इष्ट सिद्धि कहते हैं।

ध्यान साधना के लिए आदर्शों को, इष्टों को, दिव्य रूप धारी देवताओं के रूप में मानकर उनको मानसिक तन्मयता स्थापित करने का योगिक विधान है। प्रीति, सजातियों में होती है। इसलिए लक्ष रूपी इष्ट को दिव्य देहधारी देव मानकर उसमें तन्मय होने का गूढ़ एवं रहस्यमय मनोवैज्ञानिक आधार स्थापित करना पड़ा है। एक एक अभिलाषा एवं आदर्श का प्रतीक एक एक इष्टदेव है। जैसे बल की प्रतीक दुर्गा, धन की प्रतीक लक्ष्मी, बुद्धि की प्रतीक सरस्वती, धार्मिक सम्पदा की प्रतीक गायत्री, एवं भौतिक विज्ञान की प्रतीक सावित्री मानी गई है। गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, मातर, लोक मातर, धृष्टि, पुष्टि तुष्टि, आत्मदेवी यह षोडश मातृकाएं प्रसिद्ध हैं। शैल पुत्री, ब्रह्म चारिणी, चन्द्रघण्टा, कूस्माण्डा, स्कन्द माता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी सिद्ध दात्री यह नव दुर्गाएं अपनी अपनी विशेषताओं के कारण हैं।

ऐसा भी हो सकता है कि एक ही इष्ट देव को आवश्यकतानुसार विभिन्न गुण वाला मान लिया जाय। एक ही महाशक्ति की विविध प्रयोजनों के लिये काली, तारा, षोडसी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, घूमावती, बगला, मातंगी, कमला, इन्द्राणी, वैष्णवी, ब्रह्मणी, कौमरी, नरसिंही, बाराही, माहेस्वरी, भैरवी, आदि विविध रूपों में उपासना की जाती है। एक ही महा गायत्री की र्हृीं, श्रीं, क्लीं (सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा) के तीन रूपों में आराधना होती है। फिर इन तीनों में से अनेक भेद हो जाते हैं। जो साधक मातृ शक्ति की अपेक्षा पितृ शक्ति में अधिक रुचि रखते हैं, जिन्हें नारी परक शक्ति तत्व को पुरुषत्व प्रधान (पुल्लिंग) दिव्य तत्व में विशेष मन लगता है वे गणेश, कुबेर, हनुमान, नृसिंह, भैरव, शिव, विष्णु आदि इष्ट की उपासना करते हैं।

यहां किसी को भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं ‘अनेक देववाद’ का कोई स्वतन्त्र आधार नहीं है। ईश्वर एक है। उसकी अनेक शक्तियां ही अनेक देवों के नाम से पुकारी जाती हैं मनुष्य अपनी इच्छा, रुचि और आवश्यकतानुसार उन ईश्वरीय शक्तियों को प्राप्त करने के लिए अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, उन्हें अपना इष्ट एवं लक्ष चुनता है। और उनमें तन्मय होने को मनोवैज्ञानिक उपासना पद्धति द्वारा उन शक्तियों को अपने अन्दर प्रचुर परिमाण में धारण कर लेता है। इष्टदेव पूजा का यही रहस्य है।

ध्यान योग साधना में मन की एकाग्रता के साथ-साथ लक्ष को, इष्ट को भी प्राप्त करके योग स्थिति उत्पन्न करने का दुहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मनःक्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पांच अंग हैं।

1—स्थिति
2—संस्थिति,
3—विगति,
4—प्रगति,
5संस्मिति

इन पर कुछ प्रकाश डाला जाता है।

स्थिति का तात्पर्य है—साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तटपर, एकान्त में, श्मशान में, स्नान करके, बिना स्नान करके, पद्मासन से, सिद्धासन से, किस ओर मुंह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाय, इस सम्बन्ध में की व्यवस्था को स्थिति कहते हैं।

संस्थिति का अर्थ है—इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख, आकृति, आकार, मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव आदि को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।

विगति  कहते हैं- गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएं, शक्तियां, सामर्थ्य, परम्पराएँ, एवं गुनावालियाँ हैं ? उनको जानना विगति कहलाती है ।

प्रगति’ कहते हैं—उपासना काल में साधक के मन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु, मित्र, माता, पिता, पति, पत्नी, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते में उपास्य देव को मनाना हो उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने के लिये इष्टदेव के प्रमुख ध्यानावस्था में अपनी उन आन्तरिक भावनाओं का विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा उपस्थित करना ‘प्रगति’ कहलाती है।

सस्मिति’ वह अवस्था है जिसमें साधक और साध्य उपासक और उपास्य, एक हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता भृंग कीट की सी तन्मयता द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झांकी, उपास्य और उपासक का अभेद, ‘‘मैं स्वयं इष्ट देव हो गया हूं, या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूं’’ ऐसी अनुभूति का होना। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है उसे संस्थिति कहते हैं।

एक ही इष्टदेव के अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार से ध्यान किए जाते हैं। साधक की आयु, स्थिति, मनोभूमि, वर्ण संस्कार आदि के विचार से भी ध्यान की विधियों में स्थिति, संस्थिति, विगति, प्रगति एवं संस्मिति में अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण पद्धति है उसका सविस्तार वर्णन तो इन पृष्ठों से हो नहीं सकता। यहां तो हमारा प्रयोजन मनोमय कोश को व्यवस्थित बनाने के लिए ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि बताना मात्र है। इसके लिए कुछ ध्यान नीचे दिए जाते हैं।

  1. चिकने पत्थर या धातु की सुन्दर सी गायत्री प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गंध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों से पूजन कीजिये। इस प्रकार नित्य प्रति का पूजन आरम्भिक साधकों के लिये श्रद्धा बढ़ाने वाला, मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधन में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान यह पार्थिव पूजन ही है। मंदिरों में मूर्ति पूजा का आधार, यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है।
  2. शुद्ध होकर पूर्व की ओर मुंह करके कुश के आसन पर पद्मासन लगाकर बैठिए। सामने गायत्री का चित्र रख लीजिए विशेष मनोयोग पूर्वक उसकी मुखाकृति या अंग प्रत्यंगों को देखिए। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र को भावना क्षेत्र में देखिए। थोड़े दिनों के अभ्यास से उस चित्र की बारीकियां भी ध्यानावस्था में भली भांति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टांग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है।
  3. एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए। ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य पूर्व दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में विशेष मनोयोग पूर्वक देखिए। उसके बीच में हंसारूढ़ माता गायत्री की धुंधली सी छवि दृष्टिगोचर होगी। अभ्यास से धीरे धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी।
  4. भावना कीजिए कि इस गायत्री- सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रहीं हैं और वे रोम कूपों में होकर प्रवेश करती हुई अपनी दिव्य आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।
  5. दिव्य तेज युक्त, अत्यन्त सुन्दर, इतनी सुन्दर जितनी कि आप अधिक से अधिक कल्पना कर सकते हों माता को आकाश में दिव्य वस्त्रों भूषणों से सुसज्जित ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने से सुविधा होती है। माता के एक एक अंग को विशेष मनोयोग पूर्वक देखिये। उसकी मुखाकृति चितवन, चेष्टा, मुसकान, भावभंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए। माता अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथा संकेतों द्वारा आपके मनःक्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेगी।
  6. शरीर को बिलकुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर शरीर की नस नाड़ियों को निर्जीव की भांति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊंचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे में से निकल कर एक नील वर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा की तरह अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क तथा हृदय में ऋतम्भरा बुद्धि के रूप में, तरण तारिणी प्रज्ञा के रूप में, प्रवेश कर रही है। उस परम दिव्य, परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय में सद्भाव और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहे हैं जैसे समुद्र में ज्वार भाटा उमड़ते हैं। वह ध्रुव तारा जो इस दिव्यधारा का प्रेरक है, सत् लोक वासनी गायत्री माता ही है। भावना कीजिए कि जैसे बालक अपनी माता की गोद में खेलता और क्रीड़ा करता है वैसे ही आप भी गायत्री माता की गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं।
  7. मेरुदंड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भ्रू मध्य भाग, भ्रकुटि में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति  का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत केन्द्र की भांति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषण एवं जागरण कर रही हैं, ऐसा विश्वास कीजिए।
  8. भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी चार घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजमयी माता विराजमान है और घोड़ों की लगाम उनने अपने हाथ में थाम रखी है। जो घोड़ा बिचकता है वे चाबुक से उनका अनुशासन करती हैं और लगाम झटक कर उनको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ-प्रदर्शन करती हैं। घोड़े भी माता से आतंकित होकर उनके अंकुश को स्वीकार करते हैं।
  9. हृदय स्थान के निकट सूर्य चक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश का ध्यान कीजिए। यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें माता की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा के वस्तु स्वरूप की झांकी होती है। आत्म साक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्य चक्र ही है।
  10. ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग तथा मनःक्षेत्र की उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है। अपने समस्त पाप ताप विकार संस्कार जल गए हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है।

ऊपर सुगम एवं सर्वोपयोगी ध्यान बताये गये हैं। यह सरल हैं और प्रतिबन्ध रहित हैं। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। शुद्ध होकर साधना के समय उनका करना उत्तम है। वैसे अवकाश के अन्य समयों में भी जब चित्त शान्त हो तो इन ध्यानों में से अपनी रुचि का ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में कन को संयम, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है, साथ ही उपासना का अध्यात्म लाभ मिलने से यह म्यान दुहरा हित साधन करते हैं।




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